कविता आसपास
■रहनुमा
-सरस्वती धानेश्वर ‘सारा’
अथाह पीड़ाओं का दंश
अश्कों की गगरी
हृदय का गहरा तल
छिपे हुए कयी बीते पल
अदृश्य सा उसका वजूद
ओझल राहों का जुगनू सा उजाला,
लंबी स्याह रातों का संबल ।
उसकी धड़कन का विस्तार
हर सांसों के आर-पार
दर्द पगे हालात,
दग्ध हृदय जज्बात।
निष्ठावान हृदय उसका,
गर्माहट लिए धड़कता है,
वो रहनुमा है यारों का,
अपने ही दर्द से अंजान।
खुद से बेगाना वो,
दुनिया की बेखुदी से बेखबर,
अपने सुरूर में सराबोर,
अनहद नाद सा पवित्र,
स्वभाव से समर्पित,
उसके ख्यालों में खलिश।
यूं कलम की धार अब रुक- रुक कर चलती है,
दर्द वही पहचाना सा,
इन शब्दों की संजीदगी,
भीगी पलकों की बेचारगी,
दर्द की इंतेहा, कौन सुने गुजारिशों के अंश,
ओह हमनवां मेरे__
वक्त की सरगोशियों ने थाम लिया खामोशियों का दामन,
अब तेरी दीदारियों का एहसास कहां हो पाता है,
यूं रूह में समाया है तू धड़कन बनकर बस यही एहसास जीने की वजह बन जाता है।
[ ●विश्व शांति समिति भारत एवं अंतराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन की निदेशक सरस्वती सरस्वती धानेश्वर ‘सारा’, सामाज़िक गतिविधियों के साथ-साथ रचनात्मक लेखन में भी सक्रिय हैं. ●’छत्तीसगढ़ आसपास’ परिवार की शुभचिन्तक ‘सारा’ की वेब पोर्टल में दूसरी कविता प्रस्तुत है. ●अपनी राय से अवगत कराएंगे तो ख़ुशी होगी. -संपादक. ]
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