■सुमधुर गीतों के कालजयी गीतकार-मुकुंद कौशल.
●आलेख-
-वीरेन्द्र सरल
[ मगरलोड, धमतरी, छत्तीसगढ़ ]
बचपन की मेरी साहित्यिक अभिरुचि किशोरवय में परवान चढ़ने लगी थी। शब्दों के संसार में विचरना अच्छा लगने लगा था। साहित्यकारों की निकटता प्रिय लगने थी। उस समय घर में शिक्षा, सूचना और मनोरंजन का एक मात्र माध्यम था रेडियो। आकाशवाणी रायपुर के प्रातःकालीन सभा में भक्ति संगीत का कार्यक्रम चलता था और उसी में देशभक्ति गीत भी बजता था। हर दो चार दिन में किसी देशभक्ति गीत में गीतकार के नाम में मुकुंद कौशल जी के नाम की उद्घोषणा होती थी। आकाशवाणी रायपुर के दिनभर के कार्यक्रम में किसी न किसी गीत के गीतकार के रूप में कौशल जी का नाम अवश्य सुनाई पड़ता । तब से मैं उनकी लेखकीय दक्षता और भाषयी कौशल का मुरीद हो गया था। तभी से मेरी आँखे यह स्वप्न देखने लगी थी कि कभी इस शख्स के साथ बैठकर बातचीत करने का अवसर मिल जाय तो मन की साहित्यिक मुराद पूरी हो जाएगी।
कुछ साहित्यिक समझ बढ़ने पर मैं भी अपनी नन्हीं कलम के साथ साहित्य की डगर पर चल पड़ा। आसपास के कवि सम्मेलन के छोटे -छोटे मंचो पर जाता अपनी कविताएं सुनाता। अपने आप को वैचारिक दृष्टि से सम्पन्न करने के लिए कवि सम्मेलन के बड़े मंचो में स्थापित कवियों को सुनने के लिए जाता और लगभग सभी बड़े काव्य मंचो में मुकुंद कौशल जी को अवश्य सुनता। उनकी ओजस्वी वाणी, सटीक शब्द विन्यास, भावपूर्ण गीत, गजल और वीर रस की कविता लालटेन जलने दो, सुनकर मन तृप्त हो जाता और उनके गीत मोर भाखा संग दया मया के सुंदर हावे मिलाप रे या चल धर ले रे कुदारी ग किसान आज डिपरा ल खनके खोंचका पाट देबो रे को गुनगुनाते हुए लौट आता। धीरे धीरे मेरे कदम भी बड़े मंचो पर पड़ने लगे।
बात 18 अक्टूबर 2004 की है। जब चित्रोतपला शिक्षण समिति और छात्र संघ के सयुंक्त तत्वाधान में सेठ फूलचंद स्मृति महाविद्यालय नयापारा राजिम में सन्त कवि पवन दीवान के मुख्य आतिथ्य , माननीय धनेंद्र साहू जी की अध्यक्षता और माननीय भगवानदास गोयल जी के विशिष्ट आतिथ्य में भव्य कवि सम्मेलन का आयोजन हुआ। जिसमें पद्मश्री डॉ सुरेन्द्र दुबे, मुकुंद कौशल, पंडित दानेश्वर शर्मा, आशा दुबे, सुरजीत नवदीप, विशम्भर यादव मरहा, उमाशंकर देवांगन के साथ ही विद्यालय के तात्कालिक छात्र संघ अध्यक्ष श्री शशांक बाफना जी ने मुझे भी आमंत्रित किया था।
महाविद्यालय परिसर में खचाखच भरे प्रबुद्ध श्रोताओं के बीच कविता पढ़ने का यह मेरा पहला अवसर था। मुकुंद कौशल जी के साथ एक मंच में बैठकर कविता पढ़ने का मेरा स्वप्न साकार हुआ था। मैं आह्लादित था। अपनी बारी आने पर मैंने अपनी व्यंग्य रचनाएं सुनाकर खूब तालियां बटोरने में सफलता पाई। सभी कवियों के साथ मुझे मुकुंद कौशल जी का विशेष स्नेह मिला जब उन्होंने मेरी पीठ थपथपाते हुए कहा, ” शाबाश वीरेन्द्र! बहुत बढ़िया व्यंग्य लिखते हो और शानदार पढ़ते हो। खूब तरक्की करोगे। बस एक बात का ध्यान रखना माइक पर आते ही सबसे पहले माँ शारदे और मंच को प्रणाम करते हुए एक शानदार व्यंग्य पढ़ना उसके बाद ही कोई औपचारिक बाते करना। मुझे पूरा विश्वास है कि तुम अपने पहले व्यंग्य पाठ से ही श्रोताओं को बांधने में हमेशा सफल रहोगे फिर लोग तुम्हें मन भर सुनेंगे। आग्रह कर कर के सुनेंगे।” कौशल जी का यह स्नेहाशीष मेरा सम्बल बना। अब हिंदी व्यंग्य जगत में लोग मुझे जानने पहचानने लगे हैं।
तब से लेकर अब तक कौशल जी से किसी न किसी कवि सम्मेलन में, सभा संगोष्ठियों में, साहित्यिक कार्यक्रमों में मुलाकाते होती रही। घण्टो फोनालाप होता रहा। एक दूसरे को अपनी प्रकाशित किताबें भेजते रहे और उन्हें पढ़कर उन पर अपनी प्रतिक्रियाएं भी एक दूसरे को भेजते रहे।
अभी 19 मार्च 2021 को ही रायपुर साहित्य महोत्सव में उनसे मुलाकात हुई थी। उनकी दो किताबों का विमोचन और उनका सम्मान हुआ था। थोड़ा कमजोर लग रहे थे, अस्वस्थ थे। मगर वाणी में उनकी वही आत्मीयता की मिठास थी। और वीरेन्द्र कैसे हो, कोई नया व्यंग्य संग्रह आ रहा है कि नहीं?
मुझे अंदाज नहीं था कि यह वाक्य मेरे लिए स्नेह का उनका अंतिम वाक्य है। जब कल जानकारी मिली कि कौशल जी हमारे बीच नहीं रहे। अपनी समृद्ध साहित्यिक विरासत छोड़कर विदा हो गए तो मैं स्तब्ध रह गया। उनकी आत्मीयता, प्रेम और स्नेह भरी वाणी फिर से जीवंत हो गई। बस यही कहने को मन करता है कि बड़े शौक से सुन रहा था जमाना, तुम्ही सो गए दास्तां कहते कहते। कौशल जी की यादों को नमन करते हुए मैं उन्हें विनम्र श्रद्धाजंलि.
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