कविता आसपास- दिलशाद सैफी
●जंगल
-दिलशाद सैफी
[ रायपुर-छत्तीसगढ़ ]
खामोशीयों में सिसकते हुए चिखते है
कहने को है बेताब, ये धधकते हुए जंगल
जलते है जब वो तड़प के मचलने लगते
तकते आसमान को, पानी को तरसते जंगल
निविड़ थे खामोश भी साथ खड़े ये दरख़्त
आज दहशत से भरे है ,क्यों हमारे जंगल
प्राणवायु देते हँस कर तुम्हें पल-पल फिर क्यों
अपने अस्तित्व को मिटता देख रो पड़े जंगल
मिट्टी में जहर हवा भी क़ातिल, ये कैसे जियेंगे
धूप की तपिश से बेहाल,अब कैसे बचेंगे जंगल
सावन हो या बंसत सदा पत्तों से रहते हरे भरे
पतझड़ में जलते हुए कैसे, खड़े रहेंगे ये जंगल
बेतरतीब हवाये झुलसाये पेड़ों के बदन को
अब और कहाँ से सर्द, हो पायेंगे ये जंगल
चरमरातें इनके फूल पत्ते धू धू कर जलने लगते
अब अपने डालियों की शोभा कैसे बढ़ायेंगे जंगल
एक दर्द है पंक्षियो में और शोर चराचर में भी
जो पूछ रहे कोलाहल, अब कहाँ पाऐंगे जंगल
अपनी ही नादानियो से एक दिन हमसब मरेंगे
जायेंगे कहाँ सर छुपाने,जब न रहेंगे ये जंगल..।
●दिलशाद सैफी