मज़दूर दिवस-1 मई पर विशेष, अरुण कुमार निगम.
●नहीं ख़ुद को बसा पाये.
●सभी का घर बनाते हैं.
-अरुण कुमार निगम
[ दुर्ग-छत्तीसगढ़ ]
कुदाली – फावड़ा लेकर , सृजन के गीत गाते हैं
नहीं है पास कुछ अपने , मगर हम मुस्कुराते हैं |
जहाँ टपका है श्रम-सीकर,वहाँ जीवित हुये पत्थर
नहीं खुद को बसा पाये , सभी का घर बनाते हैं |
नहीं है पास कुछ अपने , मगर हम मुस्कुराते हैं ||
ये खानें औ’ खदानें हैं, ये कल औ’ कारखाने हैं
हमारे दम से चलते हैं , इन्हें हम ही चलाते हैं |
सड़क हमने सजाई है , नहर हमने बनाई है
नदी पर बाँध – पुल देखो,सभी के काम आते हैं |
नहीं है पास कुछ अपने , मगर हम मुस्कुराते हैं ||
जमाना पेट भरता है , हमें कब याद करता है
भुलाकर भूख को अपनी,फसल हम ही उगाते हैं |
सभी के घर यहाँ रोशन, ये दुनियाँ जगमगाती है
अंधेरा पी लिया हमने , उजाले हम ही लाते हैं |
नहीं है पास कुछ अपने , मगर हम मुस्कुराते हैं ||
बिछाई रेल की पटरी , किये टॉवर खड़े लाखों
मिटा कर दूरियाँ सबको , घड़ी भर में मिलाते हैं |
वो सरकारी भवन देखो , या देखो ये दवाखाने
शहर घर गाँव बस्ती को , बड़े श्रम से सजाते हैं |
नहीं है पास कुछ अपने , मगर हम मुस्कुराते हैं ||
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