कहानी : •रमेश शर्मा
●रिजवान तुम अपना नोटबुक लेने कब आओगे ?
-रमेश शर्मा
[ रायगढ़-छत्तीसगढ़ ]
वह एक फ्रीलांस रिपोर्टर थी। कभी-कभी उसे महसूस होता कि शौक के साथ-साथ कितना थका देने वाला काम भी है यह । दुख को आखिर कोई कब तक लिखे,कहे-सुने । कोविड 19 के इस त्रासद भरे दौर में आज वह ग्राउंड रिपोर्टिंग पर आयी थी, दुःख की फिर कोई कहानी लिखने | दुखों का फलसफा पढ़ने की इच्छा उसे किस उम्र से हुई होगी? ठीक-ठीक याद नहीं उसे | हाईवे के किनारे एक खपरैल वाली छत के नीचे बैठकर वह टाट से घिरे इस झोपड़ीनुमा गुमटी पर फिलहाल अकेले ही बैठी थी और भूली बिसरी बातों को याद करने की कोशिश भर कर रही थी । उसके हाथ में एक खाली गिलास था और सामने रखी पुरानी सी टेबल पर रखा पानी से भरा बड़ा सा एक कांच का जार, जिसके उस पार की चीजें थोड़ी धुंधली दिख रही थीं। इस पार उसकी आंखें थीं जो उस पार कुछ ढूंढ रही थीं | इस पार और उस पार के बीच पानी से भरा एक बड़ा सा जार आ जाने की वजह से उस पार खड़ी लड़की का चेहरा, जो अपने काम में ब्यस्त थी थोड़ा धुंधला नजर आ रहा था ।
वह उस पार देखती रही । कुछ चीजें कई बार दीवार की तरह लगती हैं | इस वक्त जार के भीतर पानी की यह परत उसे दीवार की तरह लगी और उसने गिलास में पानी उड़ेलकर जार को थोड़ा खाली कर दिया । आहिस्ता आहिस्ता उसने गिलास का पानी घूँट घूँट कर पी लिया । उसे क्या सूझा कि वह दोबारा जार से गिलास में पानी उड़ेलने लगी । पता नहीं उसे जोरों की प्यास लगी थी या नहीं पर उसने दोबारा अपने गले में धीरे धीरे गिलास का पानी उड़ेल कर गले को थोड़ा और तर कर लिया। अब पानी से भरा जार आधा हो चुका था। पहले से थोड़ा ज्यादा पारदर्शी । पहले की तरह गिलास फिर खाली हो चुका था और उसके सामने अब भी उसी तरह रखा था । मन के भीतर जो चल रहा था अब भी वही चल रहा था । कुछ बदला था तो बस यही कि जार में भरा पानी आधा हो गया था। आधा खाली और आधा भरा हुआ जार । जार के उस पार लड़की का चेहरा अब थोड़ा-थोड़ा उसे साफ दिखने लगा । बस बीच में पानी की और काँच की जगह अब सिर्फ कांच की दीवार भर थी जो थोड़ा अधिक पारदर्शी लग रही थी।
दीवारें पारदर्शी हो जाएं , गिर भी जाएं तब भी कुछ चीजें धुंधली की धुंधली रह जाती हैं | जैसे किसी की अमूर्त दुनियां को झांक पाना कितना कठिन है, जब तक वह खुद न कहे कि आओ मेरे भीतर और झाँक लो मुझे |
“लो बेटा आज का अखबार पढ़ो |” – हाकर अभी-अभी अखबार डालकर गया नहीं कि इस गुमटी को चलाने वाले बृद्ध की आवाज उसे थोड़ी देर के लिए सहला गई | कई बार मीठी आवाजों से भी तो हम किसी के भीतर गए बिना उसे हल्के से जान लेते हैं | पर कोई कुछ कहे ही नहीं , अपने में खोया रहे तो फिर ? यह सोचते हुए उसकी नजर अखबार के इस अंश पर ठहर गई –
“संवाद से समय की यह कैसी दुश्मनी है ? इस समय के भीतर हाहाकार मचाता यह कैसा रूदन है कि कोई किसी का दर्द बांटने के लिए उससे बात भी न करे, वह भी इसलिए कि ऐसे संवाद से पीड़ित का समय नष्ट होता है। निजाम की ओर से पीड़ितों की झोली तो इस बेसुरे समय की पीड़ा से इस कदर भर दी गई है कि इस समय ने उसके हिस्से का बाकी सब कुछ छीन लिया है , फिर समय की कमी का यह कैसा प्रलाप है ? क्या यह समय अब किसी संवाद की , दुख-दर्द बांटने की इजाजत भी न देगा ? बिना दिल वाले प्रलाप करते निजामों के भीतर पीड़ितों से संवाद के लिए जब कोई स्पेस ही न बचे तो वह अक्सर चाहता है कि समय के भीतर सारे संवाद खत्म कर दिए जाएं । बस एक सूनापन पसरा रहे । कोई आवाज कहीं से न आए । इतिहास की जद में जाइये तो आवाजें भी निजामों को डराती रही हैं। वे उसे अपने लिए प्रतिरोध मानते रहे हैं । आसपास झांकिये तो यह डर वर्षों से कहीं विलुप्त हो गया लगता है। मन करता है कोई आए और इस समय के भीतर अपनी आवाज से उस डर को फिर से पैदा करे। ऐसी आवाजों की आहट सुनने की इच्छा रखती हुई मैं इस समय में अपने डग भर रही हूँ, जो इन दिनों एक अपशकुन की तरह सबके घरों के दरवाजे पर दरबान बन खड़ा है और हर आने-जाने वालों का रास्ता रोक रहा है !”
किसी लेखिका के इस लिखे को पढ़कर उसे लगने लगा कि यह तो उसकी खुद की इच्छा है जिसे किसी ने उससे बिना कहे बिना पूछे लिख दिया है | आदमी के भीतर ऐसा बहुत कुछ है जो दूसरों के भीतर भी पल रहा है | बिना कहे, बिना जाने भी यह साझापन जीवन का एक ऐसा सच है जहां आदमी के दुःख एक साथ पलते हैं | उसे कई बार क्यों लगता है कि दुख धरती पर स्थायी है ? जीवन यात्राओं का दुखद कहानियों में बदल जाना समय की नियति है या समय का षड्यंत्र? सवाल हर घड़ी उसके मन में उठते हैं | अक्सर उसकी आँखों में कई-कई दृश्य आने-जाने लगते हैं | कल ही तो उसने एक स्टोरी बनायी थी | लॉक डाउन , तपती गर्मी, भूख और बीहड़ों के बीच सैकड़ों किलोमीटर की पैदल यात्रा की कहानी , श्रमिक माता पिता और छोटी बच्ची का पेड़ की शाख पर रस्सी से झूल कर जीवन समाप्त कर लेने वाला दृश्य उसकी आंखों में अचानक चुभने लगा । यात्रा में गंतव्य तक पहुंचने के पूर्व मृत्यु को प्राप्त कर लेना बहुत ह्रदय विदारक घटना थी । घटनाएं अचानक उसकी आंखों में फ़िल्म के दृश्यों की तरह आने-जाने लगीं। आत्मा अमर होती है, यह कहानी सुनते-सुनते वह बड़ी हुई, बावजूद इसके आत्मा के अमर होने की प्रमाणिकता से वह कभी रुबरू न हो सकी । कभी-कभी उसे लगता कि सद आत्माएं अगर बची रहतीं तो धरती को अपने सीने में इस तरह स्थायी दुख को ढोना न पड़ता। शायद उसे इसलिए भी ऐसा लगता है कि आत्माएं अमर हों न हों, दुख धरती पर स्थायी है, अमर है। वह मरने के लिए नहीं जन्मता। वह प्रकृति की इस शाख से उस शाख तक हर घड़ी फैलता रहता है और बढ़ते जाता है |जिस तरह प्रेम सत्य है उसी तरह दुःख भी धरती पर सबसे बड़ा सत्य है | उसी प्रेम और उसी दुःख की कहानियों को लिखने हर दिन वह उनकी खोज में अब तक भटकती रही |
कांच की जार के उस पार उसकी नजर फिर चली गयी | उस पार खड़ी लड़की बहुत छोटी उम्र की लग रही थी । यही कोई दस-ग्यारह साल ।
वह इस वक्त एक कोने में खड़ी जूठे बर्तनों को धो रही थी । उसके चेहरे पर मास्क लगा हुआ था पर मुंह थोड़ा सा खुला हुआ । शायद उसे सांस लेने में कुछ तकलीफ हुई हो इसलिए मास्क को उसने थोड़ा ऊपर चढ़ा लिया होगा ।
वह उसे देख ही रही थी पर उसने अब तक नोटिस किया था कि वह लड़की उसे नहीं देख रही ।
कई बार ऐसा होता है कि हम जिसे देख रहे होते हैं वह हमें नहीं देख रहा होता है। नजर का यह एकतरफा संवाद है। ऐसा संवाद कई बार मन को बेचैन करता है |
वह सोचने लगी…..आखिर वह क्यों कर उसकी ओर देखे ? हो सकता है इस वक्त उसके भीतर जीवन की कोई कहानी ही उमड़-घुमड़ रही हो । हो सकता है जहां वह इस वक्त काम कर रही, उसके मालिक की सख्त हिदायत हो कि वह किसी की तरफ न देखे। हो सकता है वह किसी स्कूल में पढ़ती रही हो पहले और उस स्कूल की याद उसके भीतर अचानक चली आयी हो । हो सकता है किसी सहपाठी की याद में वह व्याकुल हो उठी हो। हो तो बहुत कुछ सकता था क्योंकि आदमी के जीवन में होने की संभावनाएं असीमित हैं। उसकी उदासी इस होने की अनगिनत संभावना को लेकर उसके भीतर एक जिज्ञासा जगाने लगी और वह उसे पारदर्शी कांच के उस पार एकटक देखती रही। लड़की को देखते हुए उसे हर बार लगा कि लड़की खुश नहीं है | वह सोचने लगी कि आखिर उसके भीतर कौन सा दुःख पल रहा ?
सोचते-सोचते उसका ध्यान उस दृश्य से अचानक हटने लगा । उसे आश्चर्य हुआ, जब उस गुमटी में एक छोटे स्क्रीन वाली टीवी भी अचानक चलने लगी । बृद्ध ने उससे कहा कि बिजली अक्सर चली जाती है यहां । बिजली आती है तो टीवी अपने आप ऑन हो जाता है। उसे लगा बिजली की कहानी भी कितनी अजीब है, जाती है तो एक पूरी की पूरी दुनियां अपने साथ ले जाती है और आती है तो सबकुछ फिर अपने साथ उसी तरह लौटा लाती है | जैसे इस आने-जाने में बदलती दुनियां के ऊपर आदमी का कोई नियंत्रण ही नहीं | तभी तो आदमी कभी उसे नंगे हाथों से छू ले तो बिजली आदमी को करेंट भी मारती है और उसे उसकी औकात से रुबरू करा देती है |
बिजली के साथ लौट आयी इस सुनहरी दुनियां में टीवी पर चल रहे बहस के एक संवाद पर अचानक उसकी आंखें ठहर गयीं –
“बसें आईं । बसें चली भी गयीं।बसों से उनकी दूरी पहले भी रही। बसों से उनकी दूरी आगे भी रहेगी। राजनीति उन्हें हर बार विलग करती रहेगी। दृश्य वही था,वही है ,वही रहेगा।
दुर्भाग्य यह रहा कि जब भी सोचा गया , श्रमिकों के हित के नजरिये से कम और राजनीति के नजरिये से अधिक सोचा गया। वे लोगों के बीच मनुष्य कम और वस्तु की तरह अधिक बचे रहते आए हैं और आगे भी ऐसे ही बचे रहेंगे, इस तरह दिनोंदिन वे दृश्य से बाहर होते गए और आगे भी बाहर होते रहेंगे ।
सोचिए कि विदेशों से लोग आए, कोई विवाद नहीं हुआ। कोटा से देश भर में पढ़ने वाले बच्चे आए-गए, बसों को लेकर कोई विवाद नहीं हुआ। विवाद हुआ तो बस उन्हीं श्रमिकों के आवागमन को लेकर हुआ। समाज का उन्हें मनुष्य के रूप में स्वीकार न कर पाना भी उनके साथ एक बड़ी त्रासदी है। उनके प्रति राजनेताओं के साथ-साथ समाज का व्यवहार भी बढ़ा दोयम दर्जे का है । महामारी के इस त्रासद समय में इस दिशा में भी कभी सोचिए तो तकलीफ दुगुनी तिगुनी होने लगेगी !”
संवाद सुनते हुए अपने सिर को कुछ देर के लिए टेबल पर टिका अपने को वह आराम देने लगी |
टीवी पर संवाद खत्म हो चुका था | उसके बाद रामानन्द सागर का रामायण सीरियल आने लगा । उसे लगा कितना जल्दी दृश्य बदल जाता है पर्दे पर, पर असल जिंदगी की तस्वीरें जस की तस रहती हैं । बरसों बरस नहीं बदलतीं। मजदूरों के भीषण पलायन के दृश्य क्या भारत पाक विभाजन की याद नहीं दिलाते ?
इस सवाल के साथ उसे दादा-दादी की कहानी याद आने लगी । भारत पाक विभाजन का दुख उनसे अधिक भला किसने भोगा होगा ? सरहद पार करते-करते दादी भीड़ में कहीं ऎसी गुम हुई कि फिर दोबारा कभी नहीं मिली | वह कहाँ गयी? किसके साथ उसने बाक़ी जीवन बिताया? ज़िंदा भी बची या उन्हीं दिनों कहीं मर खप गयी? सारे सवाल दादा के ज़िंदा रहते उनकी डायरी में ज़िंदा रहे | दादा जब गुजरे तो वह डायरी उसके हाथ लगी | डायरी नहीं थी वह, बल्कि विस्थापन की पीड़ा से भरी हुई एक पोटली थी जिसमें जीवन की दुःख भरी कहानियां कैद थीं | दादा के बाद उसे पढने वाला भी कोई नहीं बचा जब, तो वह डायरी उसके पास सरक कर आ गयी और कहने लगी कि तुम्हीं हो जो मुझे अब पढ़ सकोगे | और फिर उसके बाद उसके जीवन में दुःख की कहानियों को लिखने की यात्राएं आरम्भ होने लगीं |जाड़ा,बसंत,पतझड़,धूप और बारिश में भींगीं हुई दुःख की अनगिनत कहानियां !
सब सोचकर ही उसकी आंखों में आंसू आ गए ।बैठे-बैठे उसने अपने चेहरे को नीचे झुकाकर आंखों में लुढ़क आए आंसुओं को रुमाल से हल्के से पोंछ लिया । ऐसा करते हुए शायद उसे किसी ने नहीं देखा। यूं भी दुख को कौन आसानी से भला देख सकता है। उसने कनखियों से उस लड़की की तरफ फिर देखा जो अब भी बर्तनों को धो रही थी । उसकी नजर अब भी बर्तनों पर ही थी । सामने एक उदास सा चेहरा |
वह चाहती थी कि कम से कम एक बार तो वह उसकी ओर देखे। पर ऐसा संभव नहीं हुआ । वह कब अपने कामों से फारिग होगी ? वह कब उससे बात कर सकेगी ? बस इन्हीं सवालों में उलझ कर वह अब इन्तजार करने लगी |
“बाबा ये हाईवे में इनदिनों क्या हर समय इसी तरह प्रवासी मजदूर आ-जा रहे हैं ?”
“शुरू-शुरू में दूसरे लॉक डाउन के समय तो ये हर समय दीखते थे, पर धीरे-धीरे बस रात को और सुबह सुबह ही अब दीखते हैं!” बूढ़ा थोड़ा नजदीक आकर बैठते हुए उसकी बातों का जवाब देने लगा |
वह महसूस करने लगी कि बूढ़े की आवाज में भीतर कहीं एक मिठास है | एक ऎसी मिठास जिसे वह पहचान गयी | उसे लगा यह तो दादा की आवाज में घुली मिठास जैसी है
“बाबा यह लड़की ?” उसकी ओर वह हल्के से इशारा कर पूछने लगी
“हमने इसे कुछ दिनों पहले ही काम पर रखा है ” बूढ़े की आवाज में सनी अब भी वो मिठास उसके भीतर कहीं गूँजती रही |
थोड़ी देर के लिए वह चुप हो गयी |
उसे चुप देख बूढ़ा भी चुप हो गया |
यह चुप्पी तब टूटी जब बुढ़िया ने उस लड़की को आवाज दी – “सुम्मी! दिन के दस बज गए, बर्तन धुल गये हों तो बेटा थोड़ा सब्जियों को काट लेना, तब तक मैं दाल की कुकर चढ़ा लूँ !”
“लॉक डाउन में चाय की गुमटी तक बंद हो गयी थी बेटा | अब कहीं चौथे लॉक डाउन में कुछ राहगीर आ जाते हैं तो दूर से पेपर गिलास से चाय पिला देते हैं | अब क्या करें कब तक लोग एक दूसरे से अछूत जैसा ब्यवहार करें !” बूढ़ा फिर बोलने लगा
“राहगीर क्या बाबा ! वही प्रवासी श्रमिक ही होंगे जो पानी चाय के बहाने कभी रूक जाते होंगे, वरना अभी तो सबको मरने का डर इस तरह सता रहा कि कौन इस गुमटी की तरफ रूख करे!”
उसकी बातें सुन बूढ़े के चेहरे पर इस तरह की बेचैनी उभर आयी जैसे वह कुछ कहना चाहता हो पर कुछ कह न पा रहा हो |
“आप कुछ परेशान लग रहे बाबा! क्या कोई ऎसी बात है जो मुझसे साझा नहीं की जा सकती ?” वह उसके लिए जैसे कोई सवाल छोड़ गयी |
सबके चेहरे पर छायी चुप्पी देख उस वक्त लगा जैसे गुमटी की दीवारों पर सवाल ही सवाल टंग गए हैं |
बूढ़े की आँखें शून्य की तरफ ताकने लगीं | बुढ़िया कुछ देर के लिए सड़क की ओर बाहर निकल आयी |
लड़की उसकी तरफ ताकती रही | उसने कुछ नहीं कहा | कुछ देर बाद कोने में रखे झोले से वह एक नोटबुक जैसा कुछ निकाली और लाकर उसकी हाथों में थमा एक कोने में जाकर चुपचाप बैठ गयी | नोटबुक देखकर लगा यह तो किसी स्कूली बच्चे की कॉपी है | वह उसे उलट-पलट कर देखने लगी | ऊपर लिखा था … सुम्मी मुंझवार, कक्षा पांच, सदर प्राथमिक स्कूल,कटारा | वह भीतर के पन्ने पलटने लगी | गणित के सवाल आने लगे | फिर भाषा | और फिर विज्ञान की बातें |
पलटते पलटते एक जगह उसने लिखा हुआ देखा .. मालिक बहुत बदमाश है | कोरोना आया तो उसने पापा को मारकर भगा दिया | बचे पैसे भी नहीं दिए | हम कहाँ जाते | स्कूल भी छूट गया | मम्मी भी उस वक्त कितनी बीमार थी | सहेलियां भी पता नहीं कहाँ कहाँ चली गयीं | फिर आखिर में लिखा था सुम्मी |
वह पन्ने पलटने लगी | पन्नों पर गणित, भाषा और विज्ञान की बातें अब कहीं नहीं दिखीं | उनकी जगह बिलकुल नयी बातों ने ले लीं |
अगले पन्ने पर लिखा मिला … कुछ दिनों तक हम फुटपाथ पर सोये | पापा के पास कुछ पैसे थे पर दुकानें बंद थीं | एक दिन तो पानी तक नहीं मिला | रात भूखे रहकर बिताना पड़ा | मम्मी की बीमारी उस दिन और बढ़ गयी | सुम्मी |
वह पन्ने पलटने से अब डरने लगी | एक बार उसकी तरफ उसने देखा | उसने अपना चेहरा दूसरी तरफ कर रखा था | लगा जैसे ढीली हो चुकी झाडू को वह बाँध रही हो |
इस दरमियान उसकी उंगलियाँ अगले पन्ने को पलट चुकी थीं |
उस पर लिखा हुआ मिला … कोई गाड़ी नहीं चल रही थी | कोई बस नही थी | हम गाँव भी कैसे जाते ? एक दिन पुलिस वाले आकर पापा को धमकाने लगे कि यहाँ से भागो | एक ने तो पापा पर दो डंडे भी बरसा दिए | वे दर्द से चीख पड़े | हम देखते रहे.. किस तरह तीसरे सिपाही ने पापा की जेब से पांच-पांच सौ के दो नोट निकाल लिए और दांत निपोर कर चलता बना | उस दिन डरकर हम फुटपाथ से एक पूल के नीचे आकर रहने लगे | ये सरकार भी कितनी गंदी है |छीः !
“ये सरकार भी कितनी गंदी है |छीः!” इस पंक्ति को एक ग्यारह साल की बच्ची ने अपने नोटबुक में गणित, भाषा और विज्ञान की जगह चस्पा कर दिया था |
उसे लगा यह घटना उसके जीवन में घटी अब तक की सबसे हैरतअंगेज घटना है | उसने अपने ग्यारह की उम्र को याद किया | उसे लगा उस उम्र में तो वह इस बच्ची के जीवन अनुभवों से कोसों दूर थी |
वह पन्ने पलटने लगी और हर पन्ने में लिखी कहानियों में उलझकर डूबने लगी| एक जगह रिजवान का जिक्र मिला
“रिजवान भी न जाने कहाँ छूट गया | कितना प्यारा था | कितनी प्यारी-प्यारी बातें करता था | लॉक डाउन हुआ और उसकी नोटबुक मेरे पास रह गयी | मुझे भी उसके पास कुछ छोड़ आना था | दुःख हुआ कि हिसाब अधूरा रह गया | क्या उसकी नोटबुक अब हमेशा मेरे पास रहेगी? क्या उसे लेने अब वह कभी नहीं आएगा ? “- सुम्मी
पढ़ते पढ़ते वह रुआंसा हो चली | वह आगे पढ़ नहीं पा रही थी | अचानक क्या हुआ कि अनमने ढंग से उसकी अंगुलियाँ आखरी पन्ने पर चली गयीं –
चार दिन से हम पैदल सड़कों पर चलते रहे | रात भर चलते और दिन में कहीं ओट पाकर सुस्ता लेते | मम्मी एकदम निढाल हो जाती | दिन में कहीं कहीं कुछ खाने को मिल जाता | लोग आते और कुछ दे जाते | अब तक लोगों ने हमें बचाए रखा | पर कब तक वे हमें बचाते | और हम दोनों कब तक मम्मी को बचाते | चलते चलते रात में एक जगह मम्मी गश खाकर गिर पड़ी | भीड़ जमा हो गयी | लोगों ने कहा वह मर चुकी |भीड़ ने पुलिस को फोन कर बुला लिया | पुलिस की गाड़ी आयी और मम्मी की लाश को ले गयी | हम वहीं छूट गए | मम्मी फिर कभी मुझे नहीं मिली | रिजवान के बाद मैं मम्मी से भी अलग हो गयी | हम तीन से अब दो रह गए | चलते रहे भूखे प्यासे | फिर गाँव के पास का शहर आया पटना | पहुंचे तो पुलिस फिर हमें पकड़ कर एक स्कूल में ले गयी | स्कूल बहुत दिनों से बंद था | गंदगी पसरी हुई थी | बिजली की ब्यवस्था नहीं थी और 14 दिन उसी तरह हमें वहां बंदी की तरह रहना था | खाना कभी एक टाइम मिलता कभी वह भी नहीं आता | मैं देख रही थी कि पापा अब एकदम थक गए हैं | और वह रात मेरे हिस्से का बचा खुचा भी छीन ले गयी | उस रात पापा को इस क्वारेंटाइन सेंटर में सांप ने काट लिया | हम तीन से दो हुए और फिर दो से एक | मैं एकदम अकेली हो गयी | सुबह पुलिस की गाड़ी आयी और मुझे छोड़ पापा की लाश को अपने साथ ले गयी | कोराना क्या मारती उन्हें , उन्हें तो इन सरकारों ने मिलकर मार दिया ! सब सरकारें एक जैसी क्यों होती हैं ? हत्यारी सरकारें! छीः! – सुम्मी
मैं सुम्मी के नोटबुक पढ़ते-पढ़ते भीतर से एकदम डर गयी | बुढ़िया भी बाहर से लौट आयी और सुम्मी को दुलारने लगी | उसकी दुलार मेरे भीतर उपजे डर को धीरे धीरे मिटाने लगी | बूढ़ा मेरी नजरों से अपनी नजरें बचाते हुए , अपने काम पर लग गया| बीच-बीच में वह भी अपनी मीठी आवाज से सुम्मी को दुलारने लगा | सब देखकर मुझे शुकून मिला | एक बार फिर दुःख के साथ धरती पर बचे हुए प्रेम को मैंने महसूस किया | ये सभी कहानियाँ जो मेरे सामने घटित होने लगीं ये नोटबुक से बाहर की कहानियाँ थीं जिसे अब मैं सिम्मी के नोटबुक से बाहर उसकी आँखों में पढ़ने लगी | इसी बीच मैंने सिम्मी को उसका नोटबुक लौटाने को आवाज लगाई | इससे पहले कि वह मेरे पास आती , नोटबुक के आखिरी हार्डबाउंड कवर पर मेरी नजर अचानक ठहर गयी | उस पर बड़े बड़े अक्षरों में लिखा था — रिजवान तुम अपना नोटबुक लेने कब आओगे ?
【 ●रमेश शर्मा प्रकाशित कहानी संग्रह हैं- ‘मुक्ति’,’एक मरती हुई आवाज़’. ●कविता संग्रह हैं- ‘वे खोज़ रहे थे अपने हिस्से का प्रेम’. ●देश की तमाम पत्र-पत्रिकाओं में रमेश शर्मा की कहानी-कविताएं प्रकाशित होते रहती है. ●’छत्तीसगढ़ आसपास’ के लिए उनकी ये पहली कहानी ‘रिज़वान तुम अपना नोटबुक लेने कब आओगे ?’ प्रकाशित कर रहे हैं, कैसी लगी लिखें.
-संपादक ]■