■सुधा पंडा की कलम से
●द्रौपदी की अंतवेर्दना
-सुधा पंडा
[ घरघोड़ा, जिला-रायगढ़, छत्तीसगढ़ ]
यज्ञ से प्रकट हुई याज्ञसेनी कहलाई।
महाराजा द्रुपद की तनया से द्रौपदी कहलाई।
पांचाल देश की राजकुमारी से पांचाली कहलाई।
माता की आज्ञा से पाचों पांडवों की भार्या कहलाई ।
श्यामवर्णी से मैं कृष्णा कहलाई।
सुदेष्णा की दासी बन सैरन्ध्री कहलाई।
यज्ञकुंड से प्रकट होने के उपरांत भी
क्या-क्या नहीं भोगा मैंने?
नित्य अंतर्मन में ज्वाला धधकती रही,
फिर भी, प्रतिदिन अग्नि-स्नान करती रही,
पांच पांडवों की भार्या जो थी..!
स्वयंवर तो अर्जुन ने जीता, अतः उन्हें ही वरमाला पहनाई,
फिर क्यों सब भाईयों की भार्या हुई मैं?
लौट बोले माता से-“देखो माता,हम आपके लिए लाएं हैं क्या ?”
मानो मै कोई तुच्छ वस्तु हूं!
माता बिन देखे बोलीं-
आपस में बांट लो, विडंबना मेरी देखिए! आज्ञाकारी पुत्रों ने बांट भी लिया?
क्या मैं विभाजन योग्य कोई वस्तु थी ?
बड़े भाई का मान रख ,
हो सकता है अर्जुन न कुछ बोला हों!
परंतु ज्येष्ठ युधिष्ठिर ने
अपने अनुज का मान रखा कहां?
चाहते तो कह सकते थे,
“माता,हम कोई वस्तु नहीं, हम अनुज अर्जुन-वधू लाएं हैं।”
पर ऐसा कुछ न हुआ।
जब थे माता के इतने आज्ञाकारी तो क्या माता की आज्ञा से की थी द्युतक्रीड़ा ?
माता कुंती व गांधारी भी तो नारी ही थीं
फिर, क्यों मेरी पीड़ा को समझ न सकीं?
पीड़ा हुई होती तो क्या तुरंत आदेश न दे देतीं?
कहतीं-“पुत्र युधिष्ठिर!अब बस भी करो,
तुम मेरी कुलवधू को दांव पर नहीं लगा सकते!”
परंतु हाय! ऐसा कुछ न हुआ!
कहलाते सब महापराक्रमी,महाधनुर्धारी!
जब भरी राजसभा में होता रहा अपमान
मेरा!
तब सब कैसे हो गये मौनव्रतधारी?
क्या यही कर्तव्य होता है महापराक्रमियों का?
कितना अनुनय-विनय किया मैंने,
कितना रोया-गिड़गिड़ाया था मैंने!
किंतु राज दरबार में मनुष्य नहीं, सब पत्थर के बूत बैठे थे!
वे भला कैसे सुन सकते थे? सब कायर थे या जीते जी मर चुके थे।
पितामह भीष्म की ऐसी क्या विवशता थी?
जो अपने प्रिय अर्जुन-पत्नी का
अपमान होता देख भी चुप्पी साध ली थी!
कहते हैं राज्य का सर्वेसर्वा राजा होता है,
तो कैसे राजा के समक्ष एक नारी का
होता रहा अपमान एवं राजा रहा मौन ?
माना धृतराष्ट्र चक्षु-विहिन थे,
परंतु गूंगे-बहरे तो न थे ?
क्या मेरी चित्कार नहीं सुनी?
या मस्तिष्क से भी अंधे हो चुके थे!
गुरू द्रोणाचार्य,
जो सबको शस्त्र-विद्या का दिया था ज्ञान!
दिया होगा साथ में नैतिक का भी ज्ञान!
उन्हीं के समक्ष मेरा चीर-हरण होता रहा,
और वे मूकदर्शक बन बैठे रहें!
महादानी व महापराक्रमी कर्ण
उनका भी तो न था ऐसा स्वभाव!
हां,भरी सभा में सूतपुत्र कह किया था अपमानित मैंने, किंचित,उसी का प्रतिशोध लिया मर्माहत कर्ण ने!
किन-किन का नाम गिनाऊं मैं?
सभी को पराक्रमी समझती रही मैं।
परंतु यह थी मेरी भूल,
पराक्रमी समझने में हुई चूक!
इतना सब हो जाने के उपरांत भी लांछन तो मुझ पर ही आ पड़ी!
कहते हैं एक नारी के कारण ही महाभारत हो गई !
पराक्रमी तो बस एक ही हैं,
जिसने मेरी लाज बचाई।
और वे हैं मेरे श्रीकृष्ण!
वहीं मेरे सखा हैं…
वहीं मेरे सर्वस्व हैं…।
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