■दो लघुकथा : •महेश राजा.
●उनका रविवार
सुबह के लगभग साढ़े नौ बज रहे थे।रीमा किचन में ही थी।भले ही आज रविवार था।पर,उसके हिस्से में पेन्डिंग काम की लंबी फेहरिस्त थी।
तभी मोबाइल बज उठा।वह समझ गयी जरूर राज ही होगा।एक हाथ से फोन कान पर रखा दूसरा हाथ नाश्ते बनारहे बर्तन में चम्मच चला रहा था।
राज उसके बचपन का साथी।साथ खेले,पढ़े।वह अच्छी जाब में था।हर रविवार फोन करना न भूलता था।
हमेंशा की तरह राज की वही
रोबीली,उत्साह भरी आवाज थी-“हे…क्या कर रही हो?आज तो मजे होंगे,रविवार जो है।”
रीमा प्रत्युतर में हँस पड़ी-“पुरूष हो.न तो मजे सूझ रहे है।एक महिला को छुट्टी में ज्यादा काम होते है,साफ सफाई,सप्ताह भर के कपड़े,इत्यादि।”
सुनकर राज भी हँस पड़ा,-“पर,तुम तो ताकतवर हो।चुटकी में सब निपटा लोगी।”
रीमा ने पूछा-“आज जल्दी उठ गये।चाय वगैरह हुयी।”
राज-“हमारे ऐसे नसीब कहाँ।हमें कौन चाय बनाकर देगा?”
रीमा ने चुटकी ली-“तो कौन मना कर रहा है,ले आओ चाय बनाने वाली।”
राज-“कहाँ से लाऊं।तुम सा कोई मिल ही नहीं रहा।”
रीमा-“रहने दो।इतने गुडलुकिंग हो।शानदार सर्विस.अकेली जान।कोई भी लड़की तैयार हो जायेगी।”
राज ने गहरी साँस ली-“तुम कहाँ तैयार हुयी थी।”
कुछ देर की चुप्पी के बाद रीमा बोली-“हम लोग घर परिवार, संस्कार,जाति धर्म से बंधे थे।तुमने भी तो ज्यादा कोशिश न की।”
राज ने बात बदलते हुए कहा-“छोड़ो,यह बताओ,आज नाश्ते में क्या स्पेशल बना रही हो?मेरे यहाँ तो भोजन बनाने वाली आंटी देर से आयेगी,और दोनों समय का खाना बना कर चल देगी।”
रीमा-“आ जाओ ,तुम्हारी पसंद के भरवाँ आलू परांठे बने है देशी घी में ।दहीं के साथ।रिची बेटे को बहुत पसंद है।”
राज ने फिर गहरी साँस लेकर कहा-“लकी!मैं कहाँ आ पाऊँगा।”।
फिर धीरे से पूछा,रीम,अपना ध्यान तो रखती हो न।उपवास,सोम,गुरु अभी भी है कि बंद।और खाने में तो तुम बिल्कुल बच्चे जैसी हो।”
रीमा की आँख भर आयी मुश्किल से स्वयं को संभालते हुए झूठ बोली,-“ये है न बहुत ख्याल रखते है…
फिर आँसूओं को पीकर संभले स्वर में बोली-“राज,अब फोन रखो।ढ़ेर सारे काम है।ये रात को देर से सोते है।उनके उठने का भी समय हो गयाहै।मैं तुमसे फुरसत से शाम को बात करूंगी।”
फोन रख दिया।मन भर आया था।कड़ाही में आलू के मसालों से एक भाप उठी और रीमा के आँख से एक आँसू ढ़ुलक आया।
●स्वच्छता अभियान
वे एक कुलीन घर से थे।एक प्राईवेट आफिस में मैनेजर पद पर आसीन थे।
छोटा सा परिवार, पत्नी ,एक लडका,और एक लडकी।बच्चे पढ रहे थे।पत्नी घरेलु महिला थी।
वे अनुशासन और सफाई पसंद व्यक्तित्व के धनी थे।आफिस में भी स्वच्छता का ध्यान रखते।टुअर पर रहते ट्रेन या बस में किसी को मूंगफली खाकर छिलके फेंकते देखते तो स्वयं उठा कर कचरे के डिब्बे में डाल आते।
घर पर घरेलू कार्य के लिये एक कामवाली सरोज थी ,जो पत्नी की मदद करती।
एक रविवार वे सौदा सुलफ कर आये।पत्नी सामान को ठिकाने लगा रही थी।कागज की पन्नी को कमरें में ही बिखेर देती।
आदतन उन्होंने वे थैलियां उठायी और डस्टबिन में डाल दी।
पत्नी ने देखा तो सहज स्वर में बोली,”रहने दो न ,अभी सरोज आयेगी .वह उठा लेगी।”
वे अखबार पढने लगे।सामान समेट कर पत्नी ने कचरा कमरें में ही रख दिया।उसे ईंतजार था,सरोज का।
अखबार पढते पढते पति महोदय का ध्यान वहीं चला जाता।फिर अवसर देख कर उन्होंने कचरा उठाया और डस्टबिन में डाल दिया।
पत्नी जी किचन एक नयी फिल्म का गीत गुनगुनाते हुए नाश्ता और चाय बनाने लगी।
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