■लघुकथा : •महेश राजा.
●ईमानदार नागरिक
-महेश राजा
[ महासमुंद-छत्तीसगढ़ ]
प्रायः मुझे हर दूसरे दिन बस से शहर जाना होता था।
बहुत पहले की बात है,तब किराया होता था,तीन रूपये चालीस पैसे।परिवाहन निगम की टिकीट खिडकी पर जो आदमी बैठता था,वह मुझे साठ पैसे कभी नहीं लौटाता था।वह हर बार कहता,चिल्हर नहीं है।या झल्लाता चिल्हर लेकर आओ।मेरी तरह दूसरे यात्रियों से भी वह इसी तरह से व्यवहार करता।इस तरह शाम तक वह पंद्रह बीस रूपये बना देता।उन दिनो इतने पैसे का भी बडा महत्व था।तब वेतन 260रुपये हुआ करता था।
मैं जानता था कि उसका यह कार्य अनुचित है,लेकिन मैंनै कभी चिल्हर पैसे नहीं मांगे।मैं अक्सर दस रूपये की नोट देता और वह मुझे छह रूपये लौटाता।
यह क्रम बना रहा।आज मैने संयोग से उसे पांच रूपये का नोट दिया।उसने मुझे टिकीट दिया औरक्षछह रूपये वापस किये।मै विन्डो पर ही खडा रहा।उसने मेरी तरफ देखा और आदतन झल्ला कर कहा,छुट्टे पैसे नहीं है।आपको पैसों का इतना ही मोह है तो खुले पैसे लाया करे…।चलिए भीड मत बढाईये।आगे बढिये।
मैंने कहा ,बाबूसाहब सुन तो लिजिये,मैंनै पांच रूपये का नोट दिया था ….आपने मुझे ज्यादा लौटा दिये..।
वह बोला,ज्यादा लौटा दिये है तो देश के ईमानदार नागरिक की तरह वापस कर दिजिये….दूसरोँ के पैसे पर नियत खराब करना अच्छी बात नहीं है।
मैंनै पांच रूपये वापस कर दिये।उसने उसे मेज की दराज मे डाला और दूसरे यात्री का टिकीट काटने लगा।
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