■सरफ़राज़ हुसैन ‘फ़राज़’ की दो ग़ज़लें.
●पहली ग़ज़ल.
बिछड़ने का तुम से इरादा नहीं है.
मगर जिंदगी का भरोसा नहीं है.
बिछड़ने का तुम से इरादा नहीं है।
मगर ज़िन्दगी का भरोसा नहीं है।
मिरे ग़म की उसको ख़बर मिल चुकी है।
मगर आयेगा वो ये आशा नहीं है।
तुम्हारे ही गाता है यह गीत हर पल।
कहूँ कैसे दिल यह तुम्हारा नहीं है।
गले इस से रो – रो के मिलते हैं दरिया।
समुन्दर मियाँ यूँ ही खारा नहीं है।
यक़ीं मुझको यूँ भी नहीं अपने दिल पर।
कभी मेरा कहना ये माना नही है।
मुह़ब्बत के पैकर हैं हम सादा दिल हैं।
ज़माना अभी हमको समझा नहीं है।
कहाँ रात होगी कहाँ दिन कटेगा।
मुसाफ़िर हैं कोई ठिकाना नहीं है।
वो बनता है जितना फ़राज़ उससे कह दो।
वो अच्छा है पर इतना अच्छा नहीं है।
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●दूसरी ग़ज़ल.
बन जाए उनसे कैसे हमारी ‘फ़राज़’ बात.
वो आदमी नहीं हैं हमारे हिसाब के.
क्या ह़ाल हैं ? सुनाइए आ़ली जनाब के।
असबाब कुछ बताइए ‘इस इज़तिराब के।
मतलब परस्ती आप ‘न समझें इसे अगर।
कहिए तो ‘पाँव दाब दूँ इज़्ज़तमुआब के।
ह़क़ बात ‘भी वो कह ‘न सके तेरे सामने।
जलवे जो कोई देख ले तेरे इ़ताब के।
उसको ‘ही बस नसीब हुई हैं ‘बुलन्दियाँ।
जिसने शऊ़र सीख लिए इकतिसाब के।
बेवज्हा तो भड़कते नहीं जज़्बा-ए- ह़यात।
असबाब’ कुछ तो होते हैं हर इन्क़िलाब के।
छोड़ी न मय पिलानी ‘निगाहों से आपने।
यूँ हम भी ख़ूब हो गए आ़दी शराब के।
बन जाए उनसे कैसे ‘हमारी फ़राज़ बात।
वो आदमी नहीं हैं हमारे ह़िसाब के।
【 सरफ़राज़ हुसैन ‘फ़राज़’, पीपलसाना, मुरादाबाद उत्तरप्रदेश से हैं. 】
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