गुरु पूर्णिमा पर विशेष : महेश राजा
●गुरु दक्षिणा
-महेश राजा
[ महासमुंद-छत्तीसगढ़ ]
रिया का शोध प्रबंध समाप्त हो गया था।कल सबमिट करना था।
आज शाम को पी.के.सर ने अंतिम रूप देने घर बुलाया था।
सर बहुत सख्त मिजाज थे।अकेले रहते थे।
मन में घबराहट लिये रिया सारे कागजात लेकर सर के घर पहुंँची।शाम घिर आयी थी।कालोनी सुनसान थी।
ड़रते ड़रते रिया ने बैल बजायी।सर ने दरवाजा खोला।
लगभग एक घंटे चुपचाप वे पढ़ते रहे।अँत में रिया को बताया,एकदम सही है।
रिया को ढ़ाढ़स महसूस हुयी।तभी सर ने कहा,तो मिस रीया।अब तो आप डाक्टर कहलायेगी।मेरी गुरु दक्षिणा?
अब रिया को ड़र लगने लगा।कालेज ने सारे सहकर्मियों ने पुरूष लोगों की मानसिकता को अलग ढ़ंग से बताया था।
-सर,आप बतायें।सँभव होगा वह मैं जरूर दे सकूँंगी।
सर ने आवाज लगायी,रामू सब सामान ले आओ।
एक बुजुर्ग ट्रे लिये आया।उसमें ढ़ेर सारी वस्तु ऐं थी।चाय ,नाश्ता।अन्य उपहार की वस्तु ऐं।
सर ने कहा,देखो रिया,आज तक तुम मेरी स्टुडैंट थी।अब यह भूमिका समाप्त हुयी।मेरी कोई सँतान नहीं है।पत्नी तो पहले ही चल बसी।क्या तुम मेरी बेटी बनना पसंद करोगी?
एक आश भरी नजरों ने सर ने उसे देखा।रिया की आँखों में आँसू आ गये।उसके पिता नहीं थे।रिया सर के चरणों में झुकी।सर बोले-“अरे,अरे।बेटियाँ पैर नहीं पड़ती।”
दोनों मिल कर चायनाश्ते का आनंद लेने लगे।सर ने उसे ढ़ेर सारे उपहार दिये।
दरवाजे पर रामूकाका अपने आँसुओ को छिपाते खुश हुए।
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