■निबंध. विद्या गुप्ता.
♀ आ अब लौट चलें.
♀ विद्या गुप्ता.
【 दुर्ग-छत्तीसगढ़ 】
पर्यावरण प्रकृति और प्राणी मात्र का आनंद एक शब्द में कहा जाए तो- ” सत्यम शिवम सुंदरम”ही होता है…. प्रकृति दिल खोलकर हमें देती है हमें उस अनुदान को पूरी आत्मीयता और उदारता से लेकर वापस भी लौटना है…. यहीं परस्पर पूरकता ही मनुष्य होने के लक्षण है…. यही मानवीयता कृतज्ञता और सार्थकता है।
आज प्राणी और प्रकृति के बीच की यह साइकिल पूरी तरह ध्वस्त वअव्यवस्थित हो चुकी है। इंसान न अपनी उदार प्रकृति के लिए एहसानमंद रहा और न प्रकृति को समुचित व्यवस्थित रहने दिया । हर जगह इंसानी हाथों ने अपने स्वार्थ का परिचय दिया।
देखिए ना….!! पेड़ देवता हमें ताजा सुगंधित पवन निशुल्क दे रहा है…. मीठे फल, खूबसूरत रंगीन फूल और रंगों की इंद्रधनुषी छटा के बदले हम कोई मूल्य नहीं चुकाते…..हमें प्रकृति के इन रंगीन नजारों में कितना सुकून और आत्म तृप्ति मिलती है।
कभी कभी तो ऐसा लगता है कि इंद्रधनुष ने यहीं से सारे रंग चुरा लिए हैं क्योंकि…. उसके पास भी उतने रंग नहीं है जितने प्रकृति में है…. गहरे, हल्के, बहते, ठहरे रंगो के पड़ाव बदलती नई पुरानी कोंपले, पत्तियां,….. भिन्न-भिन्न आकार, गंध, रंग के मनमोहक फूल, फूलों से सजी संवरी प्रकृति….
…….इतना ही नहीं प्रकृति ने
हमारी भूख और प्यास के लिए अपनी अतुल स्नेह संपदा लुटाते हुए हमारी जीवन व्यवस्था की है। जिस तरह से मां का दूध बच्चे का समुचित पोषण करता है, उसी तरह प्रकृति ने पौष्टिकता से भरपूर सुख तृप्ति और सुरक्षा का अनुदान किया है।……. हमारी समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति में प्रकृति ने अनाज (पोषण) स्वाद, सुगंध, औषधि, खनिज, कीमती धातुएं दी है…….उसने विविध मसालों के रूप में स्वाद की विविधता भी हमें उदार मन से दी है।
अब बताइए ना…..!! इसके बाद और क्या बचा है……!!
इतना ही नहीं मनमोहक वाद्य, संगीत, गान गायन, नृत्य जैसी आनंददायी ललित कलाएं भी आप को यहां मिलेंगी…..तो वीरता, शौर्य, सेवा क्षमा विनम्रता एकता और एकाग्रता जैसे गुणों को भी इन्हींअरण्य वनों में देखे सकते हैं…..!!
चलिए, ध्यान लगाकर सुनिए……!! पंछियों की स्वर लहरी में आपको संगीत के सप्तसुर और सरगम के आरोह अवरोह पर मिलेगा गूंजता हुआ सा संगीत….विविध स्वरों और बोलियों में कोयल. पपीहा. तोता, गोरैया, मोर, चकोर जैसे गायको के मधुर गान, तो भ्रमर, मधुमक्खी जैसे सफल धुन कारों की मादक धुन की गूंज भी सुन सकते हैं। यहां आपको किसी और नकली संगीत की आवश्यकता ही महसूस नहीं होगी।ऐसा लगता है कि कृत्रिम साजो से मनुष्य ने नकल की है।
चलिए अंदर अरण्य में चलिए, खतरों का सामना भी करना है,पशु जगत, उनकी आचार-संहिता, उनका संयम उनके नियम भी तो जानना आवश्यक है हां हां चलिए आपको सारे गुणों की झांकियां वहां पर दिखाई देगी। वीरता और क्षमा उदारता विनय यह तमाम गुण भी आपको पशुओं के बीच में दिखाई देंगे…… जब वनराज पेट भरे होने पर छोटे-छोटे पशु और पक्षियों को अभय देते हुए बिल्कुल आराम से शाही अंदाज और शान से गुजर जाते हैं…. उनके कामक्रीड़ा के नियम भी मनुष्य की अनियंत्रित हवस की तुलना में श्रेष्ठ है एक कहानी सुनी है ना…. चूहा जब शेर के ऊपर चढ़ जाता है वह उसे दबोच लेता है और फिर उसे उदारता से क्षमा भी कर देता हैं…. तो लीजिए वीरता उदारता राजसी ठाठ विनय दया यह सारे गुण आपको पशुओं में भी दिखाई देंगे। मात्र भूख प्यास आराम यह चीजें प्रकृति प्रदत आवश्यकता है जिसे प्रकृति ने नैसर्गिक धन से पूरी की है।
मनुष्य ने अपनी बेइंतहा तृष्णा के कारण इस नैसर्गिक सौंदर्य को भारी नुक़सान पहुंचाया। मनुष्य द्वारा वृक्षों के काटे जाने ने जंगलों को सुखा दिया… पहाड़ सौंदर्यहीन, निर्वसना नदी, बदरंग हो चुके झरने,सुखे पत्रहीन कंकाल से पेड़,…..!! ओह …..!
आदमी ने तो तीन तीन सौ फीट के बोर खुदवा लिए, मगर ऐसे में प्यासे पशु, क्या करें….!! पानी खोजते जब वे जंगल छोड़ कर गांवों-कस्बों में आते हैं, और खूंखार नरभक्षी मानकर मार दिये जाते हैं।
एक मनुष्य समाज में परिवार में रिश्तो की जो बुनावट होती है जो परस्पर स्नेह अनुदान सेवा समर्पण यह गुण भी आप अपनी प्रकृति के इस परिवार में देख सकते हैं। जिस तरह से एक परिवार में पिता की जो भूमिका होती है कि हर बाधा के सामने पिता अटल सुरक्षा बनकर खड़े हो जाते हैं थी वैसे ही हमारे ये खड़े पहाड़ ठीक पिता की तरह सुरक्षा के लिए कटिबद्ध होकर खड़े हैं । जिस तरह से माता का ममतामयी रिश्ता पुत्र को हर उम्र में बाधा से, परेशानियों से मुक्ति दिलाता है । स्नेह और आश्वासन की थपकी देता है ठीक वैसे ही हमारी धरती मां की हरी भरी शस्य श्यामला गोद आपको वैसे ही लोरी गाकर अपने अंक में सुला लेगी देखिए घर की छोटी सी कृत्रिम छत ……आप कल्पना करिए… नीले आकाश का विस्तृत वितान,… दिशाओं की दीवारें, सूरज और चंद्रमा से सुबह और रात्रि के की प्रकाश व्यवस्था, इतना ही नहीं नाइट लैंप की तरह जगमगाते सितारे की….
आओ लौट चलें अपने घर……!! अपनी प्रकृति को आश्वासन देते हुए, आश्वस्त करते हुए हमें वापस अपनी भूलों का प्रायश्चित करते हुए चले। रूठी हुई प्रकृति को मनाने चलें…. अपनी धरती मां, पिता की तरह सुरक्षा देते पहाड़, स्नेही स्वजन की तरह बहती हुई हवाएं लोरिया गाती बहारें ,ये सब हमारा इंतजार कर रहे हैं… प्रकृति के नियम में सब अपने अपने सीमित अधिकारों में एक दूसरे को संवारते, रिश्तो को निभाते हुए संपूर्णता से जी सकते हैं
हमारे भय और स्वार्थ की संकीर्ण मानसिकता ने हमारी सुंदर वसुंधरा को कंटकाकिर्ण कर दिया सूखे उदास पहाड़ वीभत्स सौंदर्यहीन वन , निराश व्यथित प्यासे पशु…. सूखी निर्वस्त्र नदियां. … मरुभूमि में परिवर्तित होती धरा की स्नेहिल सतह….!!
ओह कहां भटक गए हम….!!
आओ अब लौट चलें…. अपनी हरी भरी वसुंधरा के पास।
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