लघुकथा : डॉ. प्रेमकुमार पाण्डेय [केंद्रीय विद्यालय वेंकटगिरि, आंध्रप्रदेश]
▪️ विभाजन रेखा
रविवार का दिन,सुबह-सुबह काॅलबेल घनघनाई तो मैंने हड़बड़ी में दरवाजा खोला। अरे! मनोहर बाबू। बहुत दिनों बाद घर आए थे। एक वो दिन थे मनोहर के बिना मैं अपने आपको अधूरा महसूस करता था।अभी ड्राईंगरूम में हालचाल चल ही रहा था कि अंदर की ओर जाने वाला परदा हिला।पत्नी से नज़र मिली तो उसने आंखों से बुलाया। अन्दर जाते ही वह मुझे किचेन में ले गई और हिदायत दी-
“देखो मैं सब जानती हूं ये तुम्हारे मित्र पैसों के लिए आए होंगे, तुम बड़े भोले हो जाल में मत फंसना। बाकी जैसी तुम्हारी मर्जी। सुबह सुबह आए हैं चाय पिलाकर टरकाओ। मनोहर बुरे दौर से गुजर रहा है। जवान बेटा रोड़ एक्सीडेंट में चला गया। ग़म में उसे लगवा मार गया। मानसिक स्थिति ठीक न होने के कारण नौकरी जाती रही।एक बेटी है जिसने घर बाहर एक कर रखा है। मेरे मन में अपराधबोध है कि दुर्दिन में मुझे अपने प्रिय मित्र की जितनी मदद नहीं चाहिए थी नहीं कर सका। शुरुआत में कुछ दिन हालचाल लिया फिर अपने में व्यस्त हो गया। घरेलू झमेले में मानवता विलीन हो जाती है। मैं चाय लेकर निकला तो उन्होंने कहा अरे! तू चाय लेकर आ रहा है भाभी जी नहीं हैं क्या? मैंने जवाब नहीं दिया और हम चाय सुड़कने लगे। औपचारिकता के बाद उसने कहा – अच्छा रमेश मैं चलता हूं,जरा भाभी जी को तो बुलाओ। मैंने आवाज़ दी तो आंखों से करुणा छलकाती वो आ खड़ी हुईं। मनोहर ने प्रणाम कर मिठाई का डिब्बा उनके हाथों पर रखते हुए कहा- भाभी जी आज गुड़िया की सरकारी नौकरी लग गई है। उसने ही कहा था कि आंटी का मुंह मीठा करा कर आइए। बिटिया का आपसे बहुत लगाव है। मेरी ओर मुखातिब होकर छलछाई नज़रों से कहा- रमेश बुरे वक्त में ही आदमी की पहचान होती है। सबने साथ छोड़ दिया पर तुमने मित्रता निभाई। जब खून के रिश्ते पानी हो गए तब तुम खड़े रहे,मुझे गुड़िया ने सब कुछ बता दिया था। वे दाहिने पैर की हवाई चप्पल को जमीन पर घसीटते एक लाइन खींचते चले जा रहे थे। ऐसा लग रहा था कि वे मानवता और दुर्दिन के बीच विभाजन रेखा खींच रहे हों।उनके ओझल होने पर जब मैं मुड़ा तो पत्नि आग्नेय नेत्रों से मुझे घूर रही थी।
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