अपनी बात-अपनों से- •रमेश शर्मा
●इस महामारी ने किसी के दुःख में शरीक होने की प्रवृत्ति को लगभग ख़त्म सा कर दिया है.
-रमेश शर्मा
इनदिनों मित्रों , परिजनों की मौत की खबरें हम सबको भीतर से डराने लगी हैं | जब किसी परिजन से बातें होती हैं तो उनसे भी यही सबकुछ सुनने को मिलता है | आदमी के दुःख से ज्यादा आदमी का डर हम सब पर हावी है | महामारी ने मनुष्य के भीतर डर को इस कदर स्थापित कर दिया है कि दुःख जैसे मानवीय संवेदना से भरे हुए उदात्त रस से हम सब थोड़ा दूर हुए हैं | किसी परिजन की मौत की खबर से (अगर वह हमारे खून के रिश्ते से जुड़े परिवार से बाहर का सदस्य है ) दुखी होने के पहले हम डर जाते हैं फिर उसके उपरान्त शनैः शनैः दुःख की ओर धीरे धीरे आते हैं | यद्यपि दुःख झेल रहे किसी मनुष्य के जीवन में दुख एक नितांत निजी मसला है जो उसे आजीवन सालता है फिर भी हमारा स्वभाव रहा है कि थोड़ी देर के लिए ही सही हम सब दुःख को साझा करने और उसमें सहभागी होने की कोशिश जरूर करते हैं | इस महामारी से उत्पन्न भय ने खुद को बचा लेने की एक चुनौती जब से हमारे सामने खड़ी कर दी है दूसरों का दुःख हमारे लिए एक गौण बिषय हो गया है |कितना दुर्भाग्य जनक समय है कि मृत्यु ने आज अपनी गरिमा तक खो दी है | मौत एक आंकडा भर रह गया है | हम मौत की खबरों में डूबते उतरते हुए “हार्दिक नमन” जैसे शब्दों को व्यक्त करते हुए किसी रोबोट में बदल जाने को अभिशप्त हो उठे हैं |हम किसी के पास जाकर न तो सांत्वना के दो शब्द ब्यक्त कर पा रहे हैं न किसी के कंधे पर अपना सिर टिका कर रोते हुए कुछ देर के लिए अपना दुःख कम कर पा रहे हैं | इस महामारी ने न केवल हमारे सामने जीवित रह पाने की एक चुनौती उत्पन्न की है बल्कि इसने हम सबके बीच हमेशा से बहती चली आ रही रिश्तों की संवेदना को भी तार तार किया है | मनुष्यों के बीच ऎसी दूरियाँ उत्पन्न हुई हैं कि जीवन का रस ही खत्म होता हुआ दिखाई देने लगा है |
विगत एक वर्ष के भीतर हमने जो भी अनुभव अर्जित किये हैं, उन अनुभवों का कभी विश्लेषण करिए तो लगेगा कि हमारे भीतर का मनुष्य अपनी धुरी से थोड़ा विस्थापित ही हुआ है | मनुष्य के भीतर का यह विस्थापन उसके भीतर उपजे डर और असुरक्षा का कारण है | यहाँ जीवित बचे रहने के साथ साथ आर्थिक असुरक्षा के भय ने मनुष्य को मनुष्य होने से थोड़ा वंचित और विस्थापित किया है | आज जीवन की बुनियादी जरूरतों में समाहित सामग्रियां जिनमें राशन और दवाईयां शामिल हैं उनकी कालाबाजारी और जमाखोरी का एक वीभत्स दृश्य हम चारों तरफ देख रहे हैं ये सब उसी विस्थापन से उपजे हैं | कुछ हद तक तंत्र ने भी मनुष्य के आचरण की इस तब्दीली में बड़ी भूमिका अदा की है जो कि चिंता का बिषय है | चिंता का बिषय इसलिए कि ऎसी घटनाएँ सघन रूप में हमारे सामने घटित हुई हैं| कुछ घटनाएँ ऎसी भी हमारे सामने दिखी हैं जो हमें आश्वस्त करती हैं कि मनुष्य मनुष्यता से पूरी तरह अभी विस्थापित नहीं हुआ है बल्कि अभी भी उसमें दूसरों का सहयोग करने और दूसरों का दुःख बांटने की प्रवृत्ति शेष है , पर ऎसी घटनाएँ समाज में विरल हैं |
ऐसे समय में जब दुनियां के ज्यादातर देश एक सर्विलांस स्टेट बनने की ओर अग्रसर हैं, इस महामारी के समय हम सबके लिए यह चुनौती है कि हम केवल जीवित रहने भर के लिए ही जीवित न रहें बल्कि दूसरे के दुःख में शामिल होने और अपनी मनुष्यता को बचाए रखने के लिए भी हम जीवित रहें |
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