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यात्रा-वृतांत छत्तीसगढ़ पर्यटन- राजिम
राजिम – महानदी के तट पर बसा एक अदभुत विरासत का दर्शन
हम यह सुनते आ रहे हैं की प्राचीन काल में लोग तीर्थयात्रा बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी एवं पैदल चलकर ही किया करते थे और शायद इसी वजह से मनुष्य अपने समस्त कर्त्तव्य पूर्ण करने के बाद यानि वयोवृद्ध आयु प्राप्त करने पर ही तीर्थयात्रा पर जाने का साहस कर पाता था । परन्तु आज विज्ञान और प्रौद्योगिकी की उन्नति की वजह से तीर्थ यात्राएं काफी सुगम हो गई है जिसकी वजह से हर आयु वर्ग के लोग इसमें विशेष रुचि ले रहे हैं । हमारी इसी रुचि का एवं छत्तीसगढ़ में ससुराल होने का हमको पूर्ण लाभ मिला और विवाह के लगभग 5 वर्षों के बाद हमारा राजिम जाने का कार्यक्रम बन पाया है । राजिम के बारे में बहुत पहले से सुन रखा था कि वहां प्रयागराज के तर्ज पर कुंभ मेले का आयोजन होता है, वहां भी तीन नदियों का संगम है । बहुत पुराने मंदिर है, बहुत सुंदर जगह है इत्यादि – इत्यादि जिसकी वजह से हम उस ऐतिहासिक एवं अदभुत विरासत को जितनी जल्दी हो सके दर्शन करना चाहते थे । भिलाई से राजिम की दूरी लगभग 75 किलोमीटर है , फिर भी पहुंचने में लगभग दो घंटे का समय लग ही गया । जैसे ही महानदी के ऊपर स्थित सेतु को हमने पार किया , हमारा प्रवेश राजिम की प्राचीन नगरी में हो गया । लेकिन यह क्या ? महानदी की यह दुर्दशा ! जीवनदायिनी महानदी की यह दुर्दशा आखिर कैसे ? जो महानदी अपने विकराल स्वरूप के लिए जानी जाती है उसका यह अवस्था ? हमारे वाहन चालक से बातों ही बातों में ज्ञात हुआ की महानदी भी अन्य नदियों की तरह ही अंधाधुंध बेतरतीब, अवैज्ञानिक प्रगति की मार झेल रहा है और महानदी का वह रोद्र रूप इस भाग में, मात्र अब वर्षा काल में ही दिखता है । खैर ! बाकी के दो नदियां – सोडुल और पैरी कहां है ? क्योंकि राजिम तो तीन नदियों के संगम पर बसा हुए है । हमारे वाहन चालक ने उसी सेतु से ही यह बताया की मुख्य रूप से बाकी की दो नदियां, महानदी बेसिन के है अन्तर्गत आती है और जब महानदी जो कि मुख्य नदी है उसका यह हश्र है तो बाकी दो सहायक नदियों का क्या हश्र होगा, इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है । फिर भी हमारे वाहन चालक ने वहीं से उन नदियों को दिखाने का प्रयास किया जिसमें वह सफल नहीं हो सके। लेकिन क्या उन नदियों में पर्याप्त जलराशि ना होने की वजह से ही राजिम का महत्व और सौंदर्य घट गया ? नहीं बिल्कुल नहीं । सोडुल- पैरी – महानदी संगम के पूर्व में बसा राजिम अत्यंत प्राचीन समय से ही छत्तीसगढ़ का प्रमुख सांस्कृतिक केंद्र रहा है । दक्षिण कौशल के नाम से प्रख्यात क्षेत्र प्राचीन सभ्यता, संस्कृति एवं कला की अमूल्य निधि संजोएं हुए है । राजिम में कई मंदिर है जो कि प्रसिद्ध है , परन्तु सबसे महत्वपूर्ण एवं आकर्षक मंदिर है – राजीव लोचन मन्दिर। राजीव लोचन मंदिर एक तरह से मंदिरों का समूह है । जिसमे मुख्य मंदिर है भगवान श्री राजीव लोचन का है जिनके नाम पर ही राजिम का नामकरण हुआ है । नलवंशी नरेश बिलासतूरा के राजीव मंदिर अभिलेख के आधार पर अधिकांश विद्वानों ने इस मंदिर को 8 वीं शताब्दी के आसपास निर्मित माना है । इसी प्रांगण में मुख्य मंदिर राजीव लोचन के अलावा यहां पर वामन, वराह, नृसिंह , बद्रीनाथ, जगन्नाथ, साक्षीगोपाल एवं भगवान शिव के मंदिर हैं । मंदिर प्रबंधन को तथा वहां के प्रशासन को वहां की स्वच्छता सुंदरता एवं विरासत को संजोएं रखने के लिए निश्चय ही श्रेय देना उचित रहेगा | भगवान श्री राजीव लोचन एवं अन्य देवताओं के अदभुत दर्शन करने के बाद हमारा अगला पड़ाव था दिवंगत संत श्री पवन दीवान जी की समाधि । जिनके बारे में कहा जाता था कि वह संत नहीं कवि है, छत्तीसगढ़ का फकीर है। उनके समाधि स्थल के प्रांगण में ही एक गुफा में विराजमान मां काली के दर्शन करके एवं स्वंभू शिवशंकर के दर्शन करने के बाद जैसे ही हम बाहर निकले, सामने फिर से महानदी के दर्शन हुए । हमने मन ही मन महानदी को प्रणाम किया और कहा कि ” है महानदी । हम मनुष्यों को क्षमा करना जिसके लोभ, तिरस्कार एवं दूरदर्शिता कि अभाव की वजह से आज तुम्हारी यह दुर्दशा हुई है । लेकिन ! तुम इस क्षेत्र की जीवनरेखा हो और सदा ही रहोगी । तुम देखना ! अति शीघ्र उन नादान लोगों की आंखें खुलेगी और तुम्हारा वह पूराना स्वरूप लौट आएगा ।”
इसी के साथ हम चल पड़ें हमारे अगले पड़ाव पर और हमारे पीछे वह मंदिर वह घाट वह प्राण दायिनी नदी धीरे – धीरे हमारी आंखों से ओझल होने लगीं ।
लेखक
अंशुमन राय
प्रबंधक, भारतीय खाद्य निगम, इलाहाबाद
संपर्क- 09076500207