कविता- अभिव्यक्ति पाण्डेय

5 years ago
458

आज जहाँ बस सूखी धरती जल को तरसा करती है
माँ कहती है कभी यहाँ, कश्ती तैरा करती
थी
हरे भरे जो जंगल गम हैं,बड़ी बड़ी मीनारों में
कभी यहाँ पंक्षी की मीठी तानें गूंजा
करती थी
अवसाद है बिखरा हर सूं ,हर इंसान परेशां है
कभी सुकून था वादी में, मुस्कानें तैरा
करती थीं
ज़हर हुई है हवा आज,साँसे बोझिल लगती हैं
कभी हवा ये महका महका जीवन बांटा
करती थी
जो बोया है काट रहा है ,दोष किसी को क्या देगा
एक वक़्त था,हरी भरी फसलें लहराया
करती थीं
बंद पड़े दरवाजों में ख़ुद में ही सिमट लोग मिले
कभी गली के हर घर से कुछ रिश्तेदारी
रहती थी

 

कवयित्री संपर्क –
गुरुग्राम,हरियाणा,

विज्ञापन (Advertisement)

ब्रेकिंग न्यूज़

कविता

कहानी

लेख

राजनीति न्यूज़