कहमुक़री (लुप्त होती एक प्यारी सी विधा) – अरुण कुमार निगम
(1)
जब अपने परिधान उतारे
शीश नवाते जन-गण सारे
तन को लागे,तन से उज्ज्वल
क्या सखि साजन ? ना सखि चाँवल
(2)
बुरी-भली पहचान बनाए
संग न छोड़े लाख छुडाये
कभी-कभी तो ला दे शामत
क्या सखि साजन ? ना सखि आदत
(3)
बढ़ा-बढ़ा देता जिज्ञासा
कभी बढ़ाता प्रेम-पिपासा
रक्षक है पर लगता दुश्मन
क्या सखि साजन ? ना सखि चिलमन
(4)
रंगीले जित गायें गाना
बूढ़े भी उत मारें ताना
देता तरह-तरह की झंझट
क्या सखि साजन ? ना सखि पनघट
(5)
इंतजार का मजा दिलाये
इसीलिए देरी से आये
आपस में करवाये मेल
क्या सखि साजन ? ना सखि रेल
(6)
पावर से त्रुटियों को ढाँपे
सदा मातहत थर-थर काँपे
और समझते खुद को ईश्वर
क्या सखि साजन ? ना सखि अफसर
(7)
बातों से होता मिठलबरा
मन से होता है चितकबरा
नाव डुबोता , जब भी खेता
क्या सखि साजन ? ना सखि नेता
(8)
रंगबिरंगे सोये-जागे
ले जायें अम्बर से आगे
हैं जैसे भी लेकिन अपने
ऐ सखि साजन? ना सखि सपने
(9)
जुगनू बनकर करें उजाला
इनमें शबनम, इनमें ज्वाला
बिछुड़ों से ये तुरत मिला दें
ऐ सखि साजन? ना सखि यादें
(10)
बने प्रेम में हरदम बाधा
पिया-मिलन को कर दे आधा
मजबूरी यह, नहीं शौक री !
ऐ सखि साजन? न सखि नौकरी
(11)
जाने कब आता कब जाता
युवा-वर्ग को बहुत सुहाता
हरा-भरा रखता है जीवन
ऐ सखि साजन? ना सखि फैशन
कवि संपर्क –
आदित्य नगर,दुर्ग, छत्तीसगढ़
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