कविता
आदमी
-सदानंद टोकेकर, पुणे-मुंबई
क्यूं इतना ख़ुदगर्ज हो गया है आदमी
पहले तो था इंसान, इंसान हो गया
आदमी
बातों-बातों में खेल बन जाता है
आदमी
कभी खुशी, फिर भी दु:खी दिखता है आदमी
पहले तो था इंसान, इंसान हो गया है आदमी
किसने कहा तुम हंसते हो, रोते नहीं आदमी
रोते हुए आते हो,रूलाते जाते हो
आदमी
अपनी ही परछाई को ढुंढता फिर रहा है आदमी
शायद रोशनी में कुछ पथरा गया है आदमी
पहले तो था इंसान, इंसान हो गया आदमी
कुछ अपनी सोचो, कुछ उसकी सोचो प्यारा है आदमी
लेकिन ज़रा अहं, प्रेम का, सम्मान का मारा है आदमी
खैर छोड़ो जैसा भी है, है तो आखिर वो आदमी
इंसानियत के बात पर मर मिट सकता है आदमी
पहले तो था इंसान, इंसान हो गया
आदमी
देखिये इस तरफ़, उस तरफ़ बिखरे हैं आदमी
हर किसी से पुछिए, क्या?आप हैं
आदमी
हर किसी का ज़वाब होगा, क्या देखा नहीं आदमी
दो आंखें,दो कान,दो हाथ, दो पैरों का है आदमी
पहले तो था इंसान, इंसान हो गया
आदमी
पर प्रश्न यही उठता है? अंधे-बहरे
विकलांग आदमी
कभी पूर्व, कभी पश्चिम,उत्तर-दक्षिण भी हैं आदमी
ऊत्तर न पुछिये इसका, सब जानते हैं आदमी
हवा के झरोंखों से आगे बढ़ रहा है आदमी
पहले तो था इंसान, इंसान हो गया
आदमी ।
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