स्मृति शेष शरद बिल्लोरे के जन्मदिन 19 अक्टूबर पर
कवि-
शरद बिल्लोरे
प्रस्तुति-
शरद कोकास
भोपाल के पास इटारसी है और उसके पास है रहटगांव जहां रहते थे कवि शरद बिल्लोरे । जब भी कॉलेज की छुट्टियाँ होती तो अपने गांव चले जाते और फिर लौट कर आने के बाद मित्रों से अपने गांव के किस्से सुनाते ।
एक बार मित्रों ने पूछा ” घर वाले कैसे हैं ?” तो बोले “यार उन्हें लगता है कि मैं बहुत बड़ा आदमी बनने वाला हूँ …जैसे उन्होंने मुझे कॉलेज के खेत में गेहूँ की तरह बो दिया है और बी ए ऑनर्स की डिग्री पूरी होने के बाद फसल की तरह काटेंगे।”
“और .गांव के तेरे दोस्त दुश्मन ? और प्रेमिकाएं ?”
“दोस्त वही लफंटू , प्रेमिका कोई है नहीं , बचे दुश्मन तो वो हमेशा जैसे … साहूकार जमींदार. साले खून चूसने वाले अब तो उनको शर्म भी नहीं आती ।”
“भाई पूंजीवाद में पूंजीपतियों को कैसे शर्म आएगी ? वह तो कभी नहीं आने वाली ।
“अच्छा, गांववाले तेरी कविताई के बारे में जानते हैं ?
“यार… उन्हें क्या करना है कविता फविता से , बस गांव का पान वाला मामा जब मैं उससे सिगरेट लेने गया तो दाढ़ी देखकर कहने लगा ..पक्के कविराज लग रहे हो गुरु …”
शरद बिल्लौरे की इस कविता को पढ़ने के बाद आप समझ जाएंगे कि जीवनानुभव से रचना कैसे बनती है ।
स्मृतिशेष शरद बिल्लौरे के जन्मदिन पर
मैं अभी गाँव गया था
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मैं अभी गाँव गया था
केवल यह देखने
कि घर वाले बदल गए हैं
या
अभी तक यह सोचते हैं
कि मैं बड़ा आदमी बन कर लौटूँगा।
रास्ते में सागौन पीले पड़ गए थे
शायद अपनी पढ़ाई के अन्तिम वर्ष में रहे होंगे
उन्हें भविष्य की चिन्ता रही होगी
मेरा भविष्य
मेरे सीने में है और मेरे गाँव में
बेशरम की झाड़ियाँ और ज़्यादा हरी हो गई हैं
मैं खेतों में जा कर देखना चाहता था
कि कहीं बीस गुना पैदा करने की कोशिश में
मुझे गेहूँ के साथ तो
बो नहीं दिया गया है
और मैं सचमुच
गेहूँ के बीच उगा हुआ था
अब मेरे लिए
ज़्यादा ठहरना ठीक नहीं था
लौट आया हूँ…
पानवाला मामा
कहो कविराज कह कर
मुस्कुरा रहा है।