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कविता -विशाखा मुलमुले, पुणे-महाराष्ट्र

4 years ago
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मन का पँछी
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कभी हरी भरी दूब पर
चुगती रहूँ दाना – दाना धूप
फिर मनचाहा पेड़ चुनकर
उस तक उड़ान भरूँ

कंठ से पुकार का कोमल राग छेड़ूँ
मूँदकर दो घड़ी आँखें
तेरी आहट को सुनूँ
तिनका – तिनका पंखों में थकान भरूँ
तेरे स्पर्श को अंगीकार करूँ

कभी किरणों के पुल के सहारे
नील गगन में पंख पसार फिरूँ
घर लौटते हुए स्याह बादलों को
सफेद बादलों का सन्देशा सुनाऊँ
विरह में उपजी स्याह बादलों की सिसकी ,धड़क और फफक को
अश्विन के कांधे तक पहुँचाऊँ

बाजरे के खेतों से होकर लौटूं
प्रतीक्षातुर चहचहाहट भरी खुली चोंच में
बाजरे की मिठास उतारूँ
पंखों को समेटूँ
सूर्योदय की प्रतीक्षा में सप्त ऋषियों को खोजूँ
स्वप्नों का जोड़ -घटाव करूँ

कवयित्री संपर्क-
95119 08855

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