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- ■सरदार उधम : एक क्लासिक बायोपिक. ■पीयूष कुमार.
■सरदार उधम : एक क्लासिक बायोपिक. ■पीयूष कुमार.
पिछले दशक भर में हिंदी सिनेमा में आई नई पीढ़ी सरोकारों और सिनेमा को जिम्मेदार बनाने के प्रति जागरूक दिखती है। अभी बीते दो महीनों पर ही नजर डालें तो कुछेक फिल्में अपने भिन्न कंटेंट और प्रस्तुतियों से हिंदी सिनेमा पर नई इबारत छोड़ रही है। इसी क्रम में यह फ़िल्म 16 अक्टूबर को अमेजन प्राइम पर रिलीज हुई है जिसका नाम है, ‘सरदार उधम’। उधम सिंह को लोग एक क्रांतिकारी के नाम से जानते तो हैं पर उनकी सोच, उनका जीवन और पंजाब के तत्कालीन गवर्नर माइकल ओ’ड्वायर की हत्या के लिए 21 साल की धैर्यपूर्ण तैयारी को बहुत कम ही लोग जानते हैं। यह फ़िल्म इसी आज़ादी के दीवाने के बारे में है जो ब्रिटिश प्रताड़नाओं के आगे नहीं टूटा और न माफीनामे का रास्ता चुना। यह एक ऐसे नौजवान की कहानी है जिसने अपना नाम राम मोहम्मद सिंह आज़ाद रखा था, जो इंसानी आज़ादी का हिमायती था, जो भगतसिंह की राह को बनाये रखना चाहता था।
शहीद उधम सिंह (1899-1940) पर यह फ़िल्म एक बॉयोपिक है जिसमें 1919 के जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद वे हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के लिए क्रांतिकारी गतिविधियों में दिखाई देते हैं। फ़िल्म की शुरुआत ही उनके मुश्किल रास्तों से होकर विदेश जाने के लंबे दृश्यों के साथ शुरू होती है और उनका चरित्र खामोश दिखाई पड़ता है। यह खामोशी लोकेशन के कोहरे और बर्फ के साथ कहानी की जमीन बनाती है कि प्रतिशोध की यह ज्वाला ठंडा लोहा बनकर जमाने के सीने में उतरने वाला है। इन दृश्यों के साथ यह भी एहसास होने लगता है कि यह फ़िल्म एक इतिहास बनाने जा रही है। फ़िल्म का यह स्लो ट्रीटमेंट स्टीवन स्पीलबर्ग की ‘सिंडिलर्स लिस्ट’ जैसी फिल्मों की याद दिलाती है।
फ़िल्म ने उधम सिंह के लंदन प्रवास और ओ’ड्वायर की हत्या की तैयारी करने को बारीकी से दर्ज कर लिया है। ओ’डायर की हत्या के बाद स्कॉटलैंड यार्ड पुलिस की पड़ताल के बीच 1930 के दशक के उत्तरार्ध की तमाम घटनाएं भी चलती रहती हैं। उधम सिंह का इन वर्षों में ब्रिटेन स्थित क्रांतिकारी संगठन के साथ काम करना, एक जर्मन से हथियार खरीदना, उधर सोवियत यूनियन के नेताओं से बातचीत करना और साथ ही माइकल ओ’ड्वायर की हत्या का अभ्यास करना, यह सब खामोशी के साथ चलते रहते हैं। इस खामोशी को यूरोप के सर्द मौसम के साथ मिलाकर निर्देशक शूजीत सरकार ने कल्ट रच दिया है।
फ़िल्म रिसर्च बेस्ड है, यह साफ नजर आता है। जहां तत्कालीन ब्रिटिश प्रशासन का रवैय्या ब्रिटिश क्राउन और चर्चिल से लेकर यहां पंजाब में जनरल डायर और गवर्नर ओ’ड्वायर तक क्या और कैसा रहता है, यह बहुत स्पष्ट है वहीं क्रांतिकारियों को क्या करना है, यह भगतसिंह के माध्यम से फ़िल्म में कहलवाया गया है। उधम सिंह जलियांवाला बाग हत्याकांड के बदले की भावना में जीते रहते हैं साथ ही 1931 में भगतसिंह की शहादत के बाद संगठन को जीवित रखने का प्रयास भी करते हैं। फ़िल्म में संवाद वास्तविक हैं। कुछ दृश्य तो कमाल हैं जैसे, पूछताछ के दौरान अधिकारी भगत सिंह के बारे में बात करता है। उधम सिंह उससे कहते हैं, “आप 23 की उम्र में क्या कर रहे थे” तो अंग्रेज अधिकारी खुश होकर कहता है, “शादी की थी और एक बच्चा भी था, बढिया जीवन था।” उधम सिंह कहते हैं, “तुम भगतसिंह पर बात करने के लायक नहीं हो।” एक सीन उनके अकेले बात करने का है जो भावुक करता है। कोर्ट में उधम सिंह का बयान ऐतिहासिक है। यह फिल्मकार की खुशकिस्मती है कि उन्हें यह सब दर्ज करने का मौका मिला।
इस सब्जेक्ट और डायरेक्टर शूजीत सरकार के बीच यह अद्भुत समानता है कि जहां उधम सिंह ने अपने प्रतिशोध को 21 सालों के सब्र के बाद पूरा किया, उसी तरह शूजीत सरकार ने 20 साल पहले से यह सब्जेक्ट चुन लिया था और अब जाकर इसे यह क्लासिक रूप में दे सके। इस फ़िल्म के तीन नायक हैं, पहला नायक है फ़िल्म का सब्जेक्ट और दूसरा है डायरेक्टर शूजीत सरकार। जब आप 1930 -40 के बीच के लंदन और यूरोप के वातावरण में फ़िल्म को आगे बढ़ते देखते हैं तो यकीन नहीं होता कि यह कोई हिंदी फिल्म है। इसके लिए शूजीत ने दुनिया भर के तकनीशियनों की मदद ली है। उन्होंने अपने कैनवास पर कहानी के साथ देशकाल – वातावरण, ड्रेसिंग और तत्कालीन जीवन को अद्भुत रचा है। यह फ़िल्म रिचर्ड एटनबरो के ‘गांधी’ से भी बेहतर बन पड़ी है। इसका सारा क्रेडिट डायरेक्टर शूजीत सरकार को जाता है। इस फ़िल्म का तीसरा हीरो है उधम सिंह के रूप में विकी कौशल। विकी ने उधम सिंह जैसा दिखने की कोशिश नहीं की है बल्कि उन्हें जिया है। बदले की भावना को जज्ब किये 21 सालों तक जिलाये रखने के भाव को विकी कौशल ने एक्सप्रेशन में जैसा पेश किया है, वह बेमिसाल है। यह उधम सिंह को सौ साल पहले या इस फ़िल्म में विकी कौशल को क्योंकर हुआ, उसकी वजह है फ़िल्म का आखिरी आधा घन्टा। इसमें जलियांवाला बाग में हुई फायरिंग और उसके बाद का लम्बा बेहद- बेहद तकलीफदेह सीन है। रोंगटे खड़े कर देनेवाले इस लंबे दृश्य को लगातार देख पाने की ताब हर किसी में नहीं है। जब यह सीन खत्म होता है, दर्शक खुद को जेहनी तौर पर वहीं खड़ा पाता है, जहां 1919 के बाद उधम सिंह खड़े थे। इतिहास के वास्तविक चरित्र से दर्शक की यह कनेक्टिविटी विरल है।
अन्य सभी कलाकरों ने भी फ़िल्म में बेहतरीन काम किया है। बनिता संधू फ़िल्म में कहीं कहीं पर आई हैं और उनके आने से खुशगवारी आती है। शॉन स्कॉट, स्टीफन हॉगन सहित बाकी लगभग सारे कलाकार यूरोपीय मूल के हैं जिन्होंने विश्वसनीय अभिनय किया है। फ़िल्म का एक सबल पक्ष है शांतनु मोइत्रा का शानदार बैकग्राउंड स्कोर। वे इस फ़िल्म से वनराज भाटिया की जगह को रिप्लेस कर रहे हैं। यह फ़िल्म हिंदी सिनेमा का माइलस्टोन है और नजीर है कि पीरियड फिल्में कैसे बनाई जाती हैं या विषय का चुनाव कैसे किया जाता है। बिना गानों की दो घण्टे बयालीस मिनट लम्बी यह फ़िल्म भारत की ओर से ऑस्कर के लिए भेजी जाये और कोई अवार्ड हासिल हो जाये तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
【 ●पीयूष कुमार छत्तीसगढ़ से हैं. ●हिंदी के असिटेंड प्रोफेसर हैं. ●सिनेमा में रूचि रखते हैं और सिनेमा पर लिखते पढ़ते छपते रहते हैं. ●’छत्तीसगढ़ आसपास’ के लिए पहली समीक्षा, पाठकों के लिए. 】
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