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■पुस्तक समीक्षा – ‘सदी का सच’. ■लेखक-भगवती प्रसाद द्विवेदी, समीक्षक-विजय कुमार तिवारी.
लघुकथा पर बहस होती रहती है,यह साहित्य की कोई विधा है या नहीं या बिल्कुल कोई नूतन विधा है? श्री भगवती प्रसाद द्विवेदी जी की लघुकथाओं का संग्रह ‘सदी का सच’ मेरे सामने है। ऐसे ही अनेक प्रश्नों की चर्चा उन्होंने अपने आलेख,”लघुकथाःपरम्परा और प्रासंगिकता” में की है। द्विवेदी जी ने विष्णु प्रभाकर जी को उचित ही उद्धृत किया है,”महाकाव्य से मुक्तक तक,बहुअंकीय नाटकों से एकांकी तक,विराट उपन्यासों से लघु उपन्यासों तक और लम्बी कहानी से लघुकथा तक की यात्रा बहुत कुछ समेटे है अपने में। कोई भी विधा हो,उसका अपना एक स्रोत होता है। उस स्रोत से अपने को काटने का प्रयत्न वैसा ही है,जैसे सन्तान अपनी जननी के अस्तित्व को नकार दे।”
भगवती प्रसाद द्विवेदी जी का यह लेख अत्यन्त शोधपरक और लघुकथाओं की पृष्ठभूमि को समझाने में सहायक है। उन्होंने बहुत विस्तार से खोज करके लिखा है। इस बड़े उद्देश्य को लेकर किया गया उनका श्रम प्रणम्य है। उन्हें बार-बार बधाई देता हूँ। उनकी इस बात से सहमत हूँ,”लघुकथा की उपयोगिता सदा से रही है और आज इस विधा के प्रति आकर्षण की वजह यह है कि यह विधा सामाजिक,सांस्कृतिक,राजनीतिक तथा नैतिक अवमूल्यन के इस युग में फालतू लाग-लपेट के बिना कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक मानवीय संवेदना की धारदार बात कहने में सक्षम है।”
द्विवेदी जी की लघुकथाओं के संग्रह पहले भी छप चुके हैं और खूब पढ़े जाते हैं। प्रस्तुत संग्रह में उनकी सर्वाधिक 115 लघुकथाएं हैं। मुझे प्रसन्नता है कि उनकी एक साथ इतनी लघुकथाए पढ़ रहा हूँ। पहली ही लघुकथा ‘आबरू’ में द्विवेदी जी की चेतना और दृष्टि स्पष्ट होती है, धनेश बहू गाँव निकाला की सजा का विरोध करती है,कहती है,”नहीं मुखिया जी,गाँव से बाहर जाकर यह अन्य अबलाओं के साथ खेल सकता है। इसे यहीं रहने दिया जाय।” ‘मोहभंग’ अपने तरह से प्रभावित करती है। आज लोग ऐसे ही होते जा रहे हैं।’आरोप’ तनिक अस्पष्ट कहानी है,किंचित आरोपित भी।’सदी का सच’ कहानी में किसी भावुकता की तलाश,भले ही उद्देश्य हो,तनिक रुककर विचार करने की जरुरत है। बच्ची की बात अपनी जगह सही है। कुछ भी पहनकर निकलने का अर्थ सादा जीवन उच्च विचार नहीं है।’दृष्टि भेद’ और ‘वक्रता’ दोनों मार्मिक रचनाएं हैं और समाज के सोच को दर्शाती हैं। ‘प्रतीक्षा’ लघुकथा प्रेमचंद की याद दिला रही है। ऐसी घटनाएं सच में होती भी हैं? ‘दबदबा’ तो चलता ही है और लोगों को आदत भी पड़ गयी है।
‘तीखा सच’ सच तो है,हम अपनी प्राचीन सनातन संस्कृति और तौर तरीके छोड़ कर नकल करने में लगे हैं। ‘बवण्डर’ सही पीड़ा है,इसका विरोध होना ही चाहिए। ‘विषदंत’ सुन्दर और यथार्थ कटाक्ष है। ‘अंदेशा’ में अपने बच्चे से दूर होने की पीड़ा झलक रही है। द्विवेदी जी ‘न्यूट्रान बम’ का हवाला देकर पढ़-लिखकर संवेदनहीन होते जाते लोगों पर सही कटाक्ष किये हैं। ‘कद’ के माध्यम से आज की गंदी राजनीति का घृणित चेहरा उजागर हुआ है और यह भी कि कोई भी सुरक्षित नहीं है।’थरथराते हुए’ मार्मिक कहानी है। शकीला अपने एकमात्र सही प्रेमी को अपना दागदार शरीर नहीं सौंपना चाहती। ‘न लिखने का कारण’ बहुत सार्थक,तर्कपूर्ण लघुकथा है। द्विवेदी जी सहित प्रायः सभी लेखक ऐसे प्रश्नों से जूझते हैं और लेखन जारी रखते हैं। ‘अन्तिम इच्छा’ में भूख की त्रासदी तो है परन्तु भटकाव के साथ। और भी रास्ते हो सकते हैं जीने के। ‘इडेन एक्सप्रेस’ अच्छी रचना है। ऐसे हालात हो ही जाते हैं परन्तु ऐसे समाधान विरले होते हैं। संदेश बहुत सुन्दर है। ‘सिलसिला’ समाज में रह रहे ऐसे लोगों पर जबरदस्त व्यंग्य है। साहित्यकारों को चाहिए ,कुछ समाधान भी खोजें। द्विवेदी जी की गहरी निगाहों से कुछ भी छूटता नहीं है। समाज के ऐसे पक्षों को पूरी ईमानदारी से उजागर करते हैं। ‘अन्तर’ कहानी झकझोरती हुई प्रश्न खड़ा करती है और विधवा विवाह को जरूरी बताती है। ‘गर्व’ लघुकथा के तर्क अपनी जगह सही हैं। ऐसे प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते। ‘लूट-दर-लूट’ का हस्र यही होता है-सामने एक बाज ने मासूम चिरई पर झपट्टा मारा था। ‘सिक्के का दूसरा पहलू’ सचमुच स्तब्ध करने वाला है। आजकल बहुत से बच्चे मानसिक,शारीरिक रुप से कमजोर,विकलांग पैदा हो रहे हैं। कभी ऐसे किसी घर में उस बच्चे को या उसके मां-बाप या परिजनों को देखिए,बहुत दुख होगा। ‘गुल्ली-डण्डे का खेल’ हमारे समाज में जड़ जमा चुकी सड़ी व्यवस्था और उसके गठजोड़ के रहस्य को उजागर कर रही है। ‘विस्थापित’ लघुकथा का प्रश्न वाजिब है। इसका यथार्थ समझना मुश्किल है।
‘कब तक?’ देश के सभी गरीब ,लाचार लोगों के सामने प्रश्न खड़ा रहता है। इसका उत्तर कोई बताने वाला नहीं है। ‘जिजीविषा के स्वर’ किंचित अस्पष्ट मार्मिक लघुकथा है। दहशत भी है,पीड़ा भी और जिजीविषा के स्वर भी। बैंकिंग व्यवस्था में ग्राहक और बैंक कर्मी के मनोविज्ञान में संवेदनाएं नहीं उभरतीं तो ऐसे दृश्य उभरते हैं। हमारे समाज का ही हिस्सा है वह भी और जो दीवार पर लिखा गया है वह भी। ‘करंट’ जैसी स्थितियाँ जब भी उभरेंगी भूचाल ही आयेगा। तय तो समाज को भी करना होगा। वैसे द्विवेदी जी मुस्कराते हैं तो भी मौन ही रहते हैं,साथ ही निगाहों में सारा मंजर दमकता रहता है। ‘अबला’ कहानी में नारी की दुर्दशा का यथार्थ चित्रण हुआ है। ऐसा ही होता है और कोई देखने-पूछने वाला नहीं है। ‘कुसूर’ मार्मिक कहानी है और हमारी प्रशासन व्यवस्था पर प्रश्न भी। ‘खलल’ जैसी कहानियाँ होती भी हैं या आज भी कोई साजिश चल रही है? ‘मानसिकता’ ऐसी ही होती है। द्विवेदी जी सही पकड़े हैं। ‘ट्रेंड’ कहानी विचार करने पर बाध्य करती है, यदि ऐसा ही है तो बहुत बुरा है। हमारे देश को, समाज को नष्ट होने से फिर कौन बचायेगा? वैसी ही कथा ‘तमाशबीन’ है। यह दुनिया बस, तमाशबीन ही है। विरले ही कोई हो जो मदद करे। सब तमाशा देखते हैं,उपदेश देते हैं। ‘अपाहिज’ कहानी का गणित किसी को अचंभा में डाल सकता है और लोग अपने-अपने तरीके से व्याख्या भी कर सकते हैं। ‘प्रणय’ में द्विवेदी जी ने जिस तरह पटाक्षेप किया है,प्रभावशाली है। किसी को पूछना चाहिए था,यहाँ रोटी की चर्चा तो नहीं हो रही है,जो खड़ा सुन रहा है। ‘पीढ़ी-दर-पीढ़ी’ अति दुखद प्रसंग की कथा है। इसे ही संसार कहते हैं। हमेशा ही अहिल्याएं शिकार होती हैं। ‘अनुत्तरित प्रश्न’ का कभी कोई उत्तर नहीं होता। दुनिया ऐसे ही चलती रहती है। ‘परख’ आज की स्थिति पर तमाचा है। ‘कायरता’ व ‘दक्षिणा’ द्विवेदी जी का साहस मानी जायेगी। दुनिया पता नहीं कब इस तरह सोचना शुरु करेगी? ‘पुण्य’ हमारी सोच पर तमाचा है। ‘दूरियाँ’ कहानी का मनोविज्ञान समझना कठिन नहीं है। आये दिन ऐसे दृश्य देखे जाते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए परन्तु ऐसा ही होता है। ‘सबसे बड़ा सुख’ अच्छी सोच वाली रचना है। द्विवेदी जी अच्छा संदेश दे रहे हैं। “प्यार और कुछ नहीं,एक काँच का महल है,जो कभी भी धराशायी हो सकता है।” कहानी सच्चाई बयान करती है। ‘बख्शीश’ का मनोविज्ञान ऐसा ही होता है। गरीबी,बीमारी,सब में परभुआ जैसे लोग ही मरते हैं। द्विवेदी जी की दृष्टि समाज के हर क्षेत्र में गहरी छानबीन करती है। छोटी सी रचना में अपनी बातें पुरज़ोर तरीके से रखते हैं। पाठक खूब प्रभावित होता है।
‘बन्द दरवाजा’ मार्मिक और हृदयस्पर्शी रचना है। एक बार किसी भी कैद में बंद हो जायें,सब कुछ बंद हो जाता है और जीवन में संकट बढ़ जाते हैं। ‘जुर्म’ हमारी व्यवस्था पर प्रश्न है। ऐसे में किसी का बच पाना मुश्किल है। ‘उपयोगिता’ के आधार पर ही किसी का मान-सम्मान टिका होता है भले गाँधी जी ही क्यों न हों। ‘फर्क’ तो होता ही है आज की व्यवस्था में और इसके अनेकों रास्ते हैं,अनेकों उदाहरण हैं। ‘धरम-करम’ अच्छा व्यंग्य है और हमारे समाज में ऐसी मानसिकता के लोग हैं। ‘कसौटी’ कथा पढ़कर आँखें खुल जायेंगी। यह हमारी सोच और विचार-धारा की स्थिति है। ‘जीवित होने का दुख’ लघुकथा पर जो सोच उभरती है,विचित्र है। हम दिन प्रति दिन पतित होते जा रहे हैं। ‘तालमेल’ की पीड़ा देखिए। आज ऐसा ही हो रहा है। जिस पत्नी ने अपना सब कुछ देकर पढ़ने,आगे बढ़ने में मदद की,उसे ही ठुकरा दिया। ‘नाटक’ में सच्चाई का बयान हुआ है। ‘तब और अब’ रिश्तों की सच्चाई की कहानी है। ऐसी मार्मिक स्थितियाँ आये दिन घरों में देखी जाती है। ‘वापसी’ सार्थक सोच की रचना है। किसी को भी धैर्य नहीं खोना चाहिए और कभी भी आत्महत्या जैसा कुकृत्य नहीं करना चाहिए। ‘प्रजातंत्र’ का तंत्र यही है। मानवता,कर्तव्य कुछ है नहीं। केवल अहंकार है। द्विवेदी जी समाज के इस अन्तर्विरोध को खूब समझते हैं। ‘अंजाम’ कथा उन सभी लड़कियों के लिए सीख है। आधुनिकता ऐसी नहीं कि सब कुछ लुट जाये और अच्छी-भली लड़की बदचलन बन जाये। द्विवेदी जी समाज की हर गतिविधि पर दृष्टि रखते हैं और हानि-लाभ समझाते रहते हैं।
‘बहुरूपिये’ बड़े प्लाट की लघुकथा है। दुनिया ऐसी ही है। बिना उपयोगी हुए किसी की पूछ नहीं होती। मन में व्यंग्य सा है, मानो पैसे से सबका प्यार खरीद लिया हो। ‘विरोधाभास’ में द्विवेदी जी लिखते हैं,”तुम जो लिखते हो, वह करते नहीं और जो करते हो, वह लिखते नहीं। धिक्कार है तुम्हारे जैसे विषधर को।” ऐसा कैसे हो सकता है? इसीलिए तो विरोधाभास है। ‘तृप्ति’ में भरपेट भोजन मिलने के आनन्द तक तो ठीक है परन्तु अगला प्रश्न और मां की स्थिति अबूझ सी है। ‘हदबंदी से परे’ जाति-धर्म पर प्रश्न उठाती रचना है। बच्चा लहूलुहान है और सब लड़ रहे हैं। ‘वक्त आने पर’ हमारे परिवारों की मूल्यहीनता पर व्यंग्य है। ऐसे अनेक अनुभव द्विवेदी जी के पास हैं जो पढ़-लिखकर,अच्छी नौकरी पाकर घर-परिवार से मुँह मोड़ लेते हैं। ‘स्वागत’ जैसी कहानी मानवता के नाम पर कलंक है। ऐसा है,तो नहीं होना चाहिए। ‘आजादी के गीत’ की अलग विडम्बना है। भूख से पीड़ित होकर रघुआ जोगाड़ में लगा है। अच्छा व्यंग्य है। ‘अधिकार-युद्ध’ की पीड़ा देखिए। ‘इंसाफ’ सोचने पर मजबूर करती है। अशिक्षा,अज्ञानता और गठजोड़ का दुष्प्रभाव ऐसा ही होता है। दहेज आधारित ‘दो पाटो के बीच’ बहुत दुखद प्रसंग की मार्मिक कहानी है।’दृष्टिकोण’ कहानी बहुत अच्छा प्रश्न उठाती है। उत्तर शायद किसी के पास नहीं है। ‘हत्यारा’ बुद्धिजीवी
लेखकों,कहानीकारों पर व्यंग्य है। ऐसे ही लोग न जाने कितनों की हत्या नित्य करते हैं और उन्हीं रचनाओं को लिखकर खुद सुखी जीवन जीते हैं। दुर्भाग्य है कि लेखक और कलाकार अपनी रचना का विषय तो बनाते हैं परन्तु उसके जीवन के लिए कुछ नहीं करते। गरीबी,बेरोजगारी और मां के प्यार के बीच बुनी हुई अद्भुत कथा है, “मां का प्यार।’ द्विवेदी जी गरीबी और ऐसी दुखद स्थितियों को बहुत समीप से अनुभव किये हैं। उनके पास अद्भुत बेजोड़ भाव-संवेदनाओं से भरी अनुभूति है।’आँखें’ कहानी में किसी की मृत्यु पर लोगों के द्वारा लगाये जा रहे गणित पर लेखक का मन ठहरा हुआ है। लड़के से बातचीत में उसका उत्तर विचित्र है। वे भी सिनेमा हाल में घुस गये।
‘भविष्यवाणी’ हालांकि बहुत पुराना विषय है, अपने-अपने तरीके से बहुत बार कहा-लिखा गया है। द्विवेदी जी ने अपनी शैली में रोचक बनाया है। भाषा का प्रवाह है और उनकी लेखन क्षमता के अनुकूल है। ‘अपराधी कौन?’ ठेकेदारी प्रथा में व्याप्त भ्रष्टाचार की सच्चाई सामने आयी है। द्विवेदी जी का प्रश्न बिल्कुल सही है। ‘कायापलट’ में मार्मिक चित्रण हुआ है परन्तु आज का पाठक ऐसा नहीं है कि वहाँ कुछ होता रहे और उसे पता ही न हो। द्विवेदी जी की अनेक ऐसी लघुकथाएं हैं जिनकी सच्चाई भिन्न है या मनोविज्ञान अलग है। पढ़ने-सुनने में अच्छा लग सकता है परन्तु साहित्य और खुद उनकी छवि को नुकसान पहुँचा सकता है। ‘विचित्र संयोग’ दुखद लघुकथा है और ऐसे लोगों की संवेदना पर प्रश्न खड़ा करती है। ‘तहजीब’ में कथा अपनी जगह है,रचनाकार की दृष्टि किंचित अयाचित तथ्यों की ओर मुड़ गयी है। बैंक का नाम लेना क्या जरूरी था? ‘भटकती आत्माएं’ अच्छा व्यंग्य है। स्वर्ग-नरक की प्रचलित अवधारणा से भिन्न नया मार्ग खुला है। ‘विकल्पहीन’ जैसी कहानियों के पात्र हमारे समाज में हैं और ऐसे ही शिकार हो रहे हैं। ‘जलावन’ की सच्चाई से मन मुग्ध हो गया। आज समझ पाया कि मेरे नाम भेजी गयी बहुत सी पुस्तकें या पत्रिकाएं क्यों नहीं मिलती। यह सिलसिला अभी भी जारी है। रजिस्टर्ड डाक तो मिल जाती है परन्तु साधारण डाक के मिलने की संभावना संदिग्ध रहती है। 27 नवम्बर 2021 को गुजरात से रजिस्टर्ड डाक से भेजी गयी पुस्तक भुवनेश्वर,उड़ीसा में आज 20 दिसम्बर 2021 तक नहीं मिली है। कोरोना काल में शायद उसे भी कहीं कोरेण्टाइन किया गया हो। ‘अछूतोद्धार’ दुखद प्रसंग की रचना है। ऐसा नहीं होना चाहिए और अब शायद होता भी नहीं’तस्वीर’ भी एक सच्चाई है और हमारे बीच ऐसे लोग हैं जो इसी तरह का दोहरा चरित्र जीते हैं। जो दिखते हैं,वैसा होते नहीं। ‘वक्त का रोना’ बहुत ही मार्मिक रचना है। हमारा समाज कहाँ जा रहा है? संवेदना का अभाव हमारे समाज में कुछ इस तरह व्याप्त हो गया है कि कुछ भी कहना कठिन है। ‘गुंडे’ कहानी मोड़ लेती हुई आश्चर्य में डालती है। लेखक की संवेदना प्रभावित करती है। ‘विसर्जन’ जैसी घटनाएं आम हो गयी हैं। समाज के विचलन पर द्विवेदी जी ने सटीक चित्रण किया है। ‘सम्पत्ति’ न हमारी,न आपकी,बल्कि यह तो टी.टी,बाबुओं की। अच्छा व्यंग्य है। ‘मुखौटे’ कहानी भी जबरदस्त तरीके से वास्तविकता उजागर करती है। ऐसी रचनाओं के लेखन में द्विवेदी जी को महारत हासिल है। ‘अवमूल्यन’ कहानी हमारे सम्बन्धों के बीच के अवमूल्यन को उजागर करती है। जीवन में अर्थतंत्र ने सब कुछ बिगाड़ कर रख दिया है।’जरूरत’ अद्भुत व्यंग्य है। क्या सचमुच ऐसा ही है? ‘तर्क’ वस्तुस्थिति बयान करती रचना है। सही और जरूरतमंद को कोई सुविधा नहीं है, यदि वह किसी आरक्षण कोटे में नहीं है। दुनिया तरक्की करती गयी और हम आरक्षण या सरकारी व्यवस्था के शिकार होते गये।
‘भविष्य का वर्तमान’ भी वैसी ही रचना है। जो पदों पर आसीन हैं, उनकी संवेदनाएँ मर गयी हैं। भीतर कुछ और, बाहर कुछ और। चरित्र, कर्म और व्यवहार सब पतित की तरह हैं।’आज का महात्मा’ आज के समाज पर व्यंग्य ही है। ऐसा होता है भला? ‘हमदर्दी’ के हमदर्द ऐसे ही होते हैं और अंत में विनाश ही दिखता है। हमारी व्यवस्था चरमरा गयी है। लोग कानून अपने हाथ में ले लेते हैं। ‘मान्यता’ लघुकथा हमारे सामने प्रश्न खड़ा करती है । कोई उत्तर नहीं है। आखिर कहाँ गलती है? ‘मानवता’ की स्थिति हमारे समाज पर बदनुमा दाग है। ‘अपने-पराये’ के मनोविज्ञान को समझना सरल नहीं है।’विकल्प’ की सोच बहुत गलत है। यही तरीका नहीं है। शिक्षा की कमी और दूर-दृष्टि का अभाव ही मूल कारण है। यह पलायन है और किसी भी रुप में स्वीकार्य नहीं। ‘इज्जत’ की परिभाषा अद्भुत है। यही तो हमारे देश के पतन का कारण है। ‘धर्मात्मा’ का धर्म-चिन्तन अद्भुत है। यह सोच ही देश को, समाज को डुबा रही है। ‘वजह’ हमारे समाज के घिनौने चेहरे पर कथा है। ‘महिमा’ लघुकथा की हकीकत भी हमारे समाज की ही सच्चाई है। द्विवेदी जी को ऐसी परिस्थितियों,पात्रों की खूब समझ है। उनकी दृष्टि से समाज का नंगा रुप उजागर हुआ है। ‘आदेश’ कहानी के पात्र भी ऐसे ही हैं। यहाँ सब कुछ झोल ही झोल है और चतुर्दिक पतन। ‘पीड़ा’ की पीड़ा खूब बयान हुई है और लेखक के प्रश्न का कौन उत्तर दे सकता है?
‘तरकीब’ जैसी स्थितियों से समाज और लेखक दोनों को बचना चाहिए। ‘सम्बन्ध’ जैसे विषय आते ही हैं। जो आगे बढ़ जाते हैं वे अक्सर पुराने सम्बन्धों को छोड़ देते हैं। ‘हार की जीत’ अति उत्साह की रचना है। मानवीय पक्ष तो है परन्तु संवेदना दम तोड़ रही है। ‘एहसान’ का मनोविज्ञान विचित्र है। भीड़ तो वही करती है। रिक्शे वाले के प्रति ऐसा व्यवहार नहीं होना चाहिए। वैसा ही मनोविज्ञान ‘पागल’ रचना में है। ‘बदबू’ की स्थिति पर हर पाठक अचम्भित हुआ होगा और तय कर पाना मुश्किल हो रहा होगा कि क्या बोलें,क्या सोचें। ‘पढ़ा-लिखा के का होई?’ की त्रासदी दुखद है।’मेहनताना’ की स्थिति भी कम चिन्तनशील नहीं है।’एक और बलात्कार’ संग्रह की और द्विवेदी जी महत्वपूर्ण रचना है। उन्होंने बहुत करीब से ऐसी स्थितियों को जाना-समझा है। पात्रों का मनोविज्ञान खूब चित्रित हुआ है। वैसा ही चित्रण अंतिम लघुकथा ‘उम्मीद की परवरिश’ में हुआ है। पति-पत्नी की बातचीत में संघर्ष भी है और उम्मीद भी।
द्विवेदी जी की लघुकथाओं को पढ़ते हुए महसूस हुआ कि लेखक या रचनाकार को अपने लेखन के सन्दर्भ में चिन्तन करना चाहिए। मैंने उनकी कहानियों और व्यंग्य रचनाओं को भी पढ़ा है। यहाँ वो धार सिमटी हुई सी लगी। भाषा तो उनकी समृद्ध है,भाव भी है परन्तु कतिपय कथाओं में प्रवाह नहीं है। अतिवादी विचार किसी भी रचना को कमजोर बनाते हैं। संवेदना और करुणा बहुत सी रचनाओं में जैसे बाँध तोड़कर पानी बह जाता है,वैसे बह गया है। जाति वादी शब्दों का प्रयोग भले आज का प्रचलन लगे,लम्बे काल में टिकाऊ नहीं होते। बनावटी या आरोपित कथ्य-कथानक हानि पहुँचाते हैं। उनके लेखन में समृद्ध ग्रामीण चित्रांकन अद्भुत है। शहरी जीवन शायद उन्हें रास नहीं आता और मन रमता नहीं। उनकी यह बेजोड़ खूबी है,उनके पात्र हर जगह के हैं,हर वर्ग के हैं और हर तबके के हैं। उनकी चिन्तन दृष्टि बहुत गहराई तक जाती है और रोचक कहानियों का सृजन होता है।
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