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■मेरी लाइब्रेरी से: विश्व रंजन, पूर्व पुलिस महानिदेशक, छत्तीसगढ़ शासन.
【 ‘छत्तीसगढ़ आसपास’ पत्रिका में इस माह से एक नया स्तम्भ ‘मेरी लाइब्रेरी से’ प्रारंभ कर रहे हैं. ‘छत्तीसगढ़ आसपास’ लोकशिक्षण-लोकजागरण की मासिक पत्रिका है जो विगत 15 वर्षों से निरंतर प्रकाशित हो रही है. इन 15 वर्षों में मेरे ‘लाइब्रेरी’ में प्रदेश के उन तमाम कवियों की संग्रह संग्रहित है,जो मुझे भेंट स्वरूप प्राप्त होते रही है और कभी-कभी फुर्सत के क्षणों में उन कविताओं को पढ़ता भी हूँ और सीखता भी हूँ. ‘अंतर्मन’ औऱ ‘मनप्रिय’ कविता को लेकर इस स्तम्भ ‘मेरी लाइब्रेरी से’ प्रारंभ कर रहा हूँ. आज़ मैं विश्व रंजन की काव्य संग्रह ‘एक नई पूरी सुबह’ में से एक कविता को आपसे शेयर कर रहा हूं -संपादक 】
■परिचय : विश्व रंजन
[ ‘एक नई पूरी सुबह’ कृति वैभव प्रकाशन से 2008 में प्रकाशित हुई थी, विश्व रंजन जी तब छत्तीसगढ़ शासन में पुलिस महानिदेशक थे. 1 अप्रैल 1952 में गया बिहार में जन्में विश्व रंजन जी पटना विश्वविद्यालय से बी.ए.[ऑनर्स] करने के बाद 1973 में भारतीय पुलिस सेवा में चयनित हुए. 2 लड़कियों के पिता मशहूर शायर फिराक गोरखपुरी के नाती हैं विश्व रंजन जी. ‘एक नई पूरी सुबह’ का संपादन जय प्रकाश मानस ने किया. वीरेन्द्र सारंग,बद्री नारायण सिंह,वंदना मिश्र,संजय कृष्ण,डॉ. विजय लक्ष्मी शर्मा ने भी इस संग्रह में अपनी बात लिखी है. संग्रह में विश्व रंजन ने अपनी बात का उल्लेख ‘मेरी अधूरी काव्य यात्रा’ से की है, जिसमें एक लाइन मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित कर गई. ‘कविताएं अच्छी हैं पर अभी कविताएं लिखना बंद कर ढेर सारी कविताएं पढ़ना सीखें’ इस बात को विश्व रंजन के नाना फिराक गोरखपुरी को जब संग्रह उन्होंने दिखाई तब कही थी.
अंत में विश्व रंजन ने लिखा- ‘एक अधूरी काव्य यात्रा पर एक अधूरा वक्तव्य ही संभव है…. ]
♀ तुम गलत कहती हो मैं तुम्हारा वही मुन्ना नहीं हूँ माँ.
– विश्व रंजन
जब से
मेरी आँखें जवान हुई हैं
मेरा ह्रदय कुछ छोटा हो गया है
अब कहाँ समा पाता है,
उसमें नीला आकाश
और माँ
तुम कहती हो मैं वैसा ही हूँ
तुम्हारा वही मुन्ना !
मैं वैसा कहाँ हूँ अब
कहाँ है मेरे पास वह बॉक्स कैमरा
जिसमें हर चित्र
मैं साफ-साफ उतार लेता था
अब दृश्यों की पैनी पकड़
सिर्फ लेंस पर ही नहीं
फ़ोकस तथा मन की स्पीड
के बंधनों में जकड़ी हुई है
और निर्भर है
आँखों की तटस्थता पर
और यह सच है बिलकुल
इस बेशकीमती कैमरे का इस्तेमाल
मुझे नहीं आता
हर दृश्य बिगड़ जाता है
हर सत्य
धुंआ-धुंआ हो जाता
माँ तुम गलत कहती हो
मैं तुम्हारा वही मुन्ना नहीं हूँ
ये पेड़, ये तारे
यह आसमान
यह चांद
ये सब
इस बात के गवाह हैं
कि मैंने कभी
इनके सुंदर चित्र उतारे थे
उस गौरैया से पूछो माँ
जिसे घायल देखकर
मरहम पट्टी की थी मैंने
उस नौकर से पूछो माँ
जिसे मैंने पैसे चुराकर दिए थे
और
मेरे पास कोई दलील नहीं थी
कि मैंने ऐसा क्यों किया
लेंस साफ था
जिधर कैमरा किया
साफ चित्र उभरकर सामने आया
पर आज़
जब फोकस का अंदाज़ नहीं
मन की रील की स्पीड बदलती जाती है
आँखें तटस्थ नहीं हो पाती
और लेंस के ऊपर धूल हो जब
चित्र बिगड़ ही जाता है
इन चित्रों को
ठीक-ठाक करने की ललक में
मैं शब्दों से खेलता हूँ
बुनता हूँ उनसे जाल
और ये शब्द-जाल
मेरा आईना बन जाते हैं
बता जाते हैं मेरी औकात
और इसलिए माँ
मैं जानता हूँ
तुम गलत कहती हो
मैं तुम्हारा वही मुन्ना नहीं हूँ माँ
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