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■कविता आसपास : शरद कोकास.
■शरद कोकास की कविता ‘बस्ता’के एक अंश पर कवि अनिल करमेले द्वारा बनाया कविता पोस्टर
♀ शरद कोकास की लम्बी कविता
[ ‘बस्ता’ लेकर स्कूल जाती हुई बच्चियों को देखकर, कांधे पर पर्स लटकाए ऑफिस जाती हुई युवतियों को देखकर हम खुश होते हैं और फिर अपने परिचितों से कहते हैं.. घर में, दुकान में या ऑफिस में झाड़ू पोछे के लिए कोई कम उम्र की या कम पढ़ी लिखी लड़की मिले तो बताना.
यह लम्बी कविता ‘बस्ता’ ऐसे ही लोगों के लिए ऐसी ही एक लड़की की ओर से है.. अगर आप पूरी पढ़ सकें तो आप कम से कम मन से या भौतिक रूप से न केवल ऐसे लोगों की श्रेणी से ख़ुद को अलग कर सकेंगे बल्कि ऐसी मानसिकता के लोगों का यथार्थ से साक्षात्कार करवा सकेंगे●]
♀ बस्ता
जिस तरह आता है मनुष्य दुनिया में
उसी तरह आई थी मैं गर्भ जल से बाहर
आश्चर्य भरे इस संसार में
खोली थीं मैंने अपनी आँखें
और बरसों बाद खुद को पहचाना था
प्रार्थना से बाहर अपना स्वतंत्र अस्तित्व लिए
पिता के विस्मय में मुस्कुराती थी मैं
मुझे कभी नहीं बताया गया यह रहस्य कि
संतान सप्तमी के व्रत से अर्जित
माँ का पुण्य थी मैं
या अपने माँ बाप के बीच अनायास घटित
किसी आत्मीय क्षण का परिणाम
जीवन की किसी अनिवार्यता के तहत
संतान उत्पत्ति के धर्म का निर्वाह किया था उन्होंने
या मन से चाहा था कि
घर में एक बेटी की पदचाप सुनाई दे
मैंने तो इस दुनिया में आकर जाना
कि मेले में जाने की खुशियों से बड़ी होती हैं
कुछ खुशियाँ और भी
ससुराल जाने के सपनों से ज्यादा मोहक होते हैं
कुछ सपने और भी
मैंने जाना कि आसपास के लोगों के लिए
दुनियावी शब्दकोष में प्रचलित अर्थ से बाहर नहीं है
औलाद के सुख का मतलब
औलाद के लिये जीने का मतलब भी
उनके सहज ज्ञान में शामिल है
वे जो दूध के लिये बेटी के मचलने से पहले
मुँह से लगा देते हैं दूध की बोतल
जिनकी आशा के आंगन में दौड़ती हैं बेटियाँ
पहन कर पाँव में चाँदी की पायल
खेलने की उम्र में जो नए खिलौनों से खेलती हैं
गोद में सुख और प्यार पाती हैं
खुशियों के झूलों में झूलती हैं
ऐसे लोगों से मेरा विनम्र निवेदन है
बेमन से ही सही एक बार खुरच कर देखें
अघोषित यथार्थ का बदरंग चेहरा छुपाती
सफेद झूठ की सुंदर और चिकनी परत
चाहें तो मेरा बयान
अपने न्याय की कसौटी पर रखें
ठीक तरह ठोक बजा लें शब्दों को
प्रस्तुत सच्चाई का कड़वा घूँट चखें
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गर्भ के अन्धेरे से बाहर भी थे अन्धेरे बन्द कमरे
जहाँ न सूरज की रोशनी पहुंचती थी
न उम्मीदों की
पीड़ा लाचारी और अभाव थे मेरे संगी – साथी
सहेलियाँ कपड़ों की चिन्दियों और ठीकरों से खेलती थीं
मौसम की मार फटे कपड़ों के भीतर झेलती थीं
कोई त्योहार हमारे लिए खुशियाँ लेकर नहीं आता था
बस जीना था इसलिये दिन गुज़र जाता था
वर्गभेद की तमाम परम्पराओं से अनभिज्ञ
हम बच्चियों के पास थीं केवल हसरत भरी निगाहें
जिनमें चमकती थी साफ-सुथरी खूबसूरत बस्तियाँ
जिनका भूगोल इतिहास और समाजशास्त्र
हमारे मोहल्ले से बिलकुल अलग था ।
उन बस्तियों की चौड़ी चमचमाती सड़कों से
चमचमाते जूते पहनकर गुजरती थीं
नये कपड़ों में स्कूल जाती बनी-ठनी लड़कियाँ
चिकनी रंगीन किताबों में छपी
खूबसूरत तस्वीर थी वे लड़कियाँ
उन लडकियों के बस्तों में था
आम की खटमिठ्ठी कैरियों का स्वाद
इमली का खट्टापन , चॉकलेट की मिठास
उनके बस्तों में रखी रंगीन पेंसिलों में मौजूद थे
दुनिया के सारे चमकदार रंग
माँ-बाप का प्यार था उनमें
भाइयों का दुलार बहनों की आशाएँ
पर्स लटकाए काम पर जाती युवतियों के स्वप्न थे
एक बेहद खूबसूरत दुनिया थी वहाँ
जो अक्सर विज्ञापनों में दिखाई जाती है
दरअसल जिन बच्चियों के कन्धों पर बस्ते होते हैं
उन्हीं के वर्तमान में झिलमिलाता है
गुज़रे हुए और आने वाले कल का ऐश्वर्य
उनके बस्तों में बस जाती है
झरनों की खिलखिलाहट , नदियों की मस्ती
हवाओं की सरसराहट, फूलों की गुदगुदी
उनके बस्तों में जीवंत हो उठता है
कलियों का खिलना , तितलियों का मंडराना
पेड़ों का झूमना, पर्वतों का गाना
बरसना उमस भरी दोपहरी के बाद बादलों का
खेतों में उगे धान का लहराकर झूमना
उनके बस्तों में साकार होता है
उनके बस्तों में सुनाई देते हैं
काम पर जाती औरतों के गीत
पकते हुए चाँवल की गन्ध वहाँ बसी होती है
उनके बस्तों में होती है वीरांगनाओं की गाथाएँ
मुसीबतों से जूझने का हौसला
सुख के तिलिस्म की कुंजी उनमें होती है
सच पूछा जाए तो
बेटी होने का सही सही मतलब
बेटी के रूप में जन्म लेने का औचित्य
उनके लिये होता है
जिनके नाज़ुक कंधों पर टंगे होते हैं
रंगीन किताबों से भरे खूबसूरत बस्ते
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मेरे कंधे पर बस्ते की जगह लदा है
जिम्मेदारियों का एक बड़ा सा पहाड़
जो मेरे क़द के साथ सतत बढ़ता जाता है
माँ-बाप के काम पर चले जाने के बाद
अभी छोटे भाई- बहनों को सम्भालना है
उनके लौट आने से पहले घर आंगन बुहारना है
खाना पकाना है चौका-चूल्हा लीपकर
धोना है बर्तन – कपड़े फिर घर संवारना है
पृथ्वी के रंगमंच पर
कभी न खत्म होने वाले इस नाटक में
मुझे ही करनी है माँ की भूमिका
अपने छोटे भाई-बहनों के लिये
उन्हें खिलाना- पिलाना थपकी देकर सुलाना
पिता की तरह डाँटना – फटकारना
छोटे भाई को मजबूत मर्द बनाना है
बावज़ूद इसके छोटी सी ग़लती पर
डाँट खाना है पिता से
और भाई के जवान होने पर
उसके आतंक में दिन बिताना है
स्वप्न में भी नहीं उपलब्ध होगा मुझे
बचपन के अनिवार्य सुखों से भरा बस्ता
कोई उड़ने वाला घोड़ा किताबों से निकल कर
मेरे बचपन की गलियों में नहीं आयेगा
कोई परी मेरी नीन्द में मुझे लुभाकर
टॉफियों के बगीचे में नहीं ले जायेगी
कभी शामिल न हो सकूंगी मैं सिन्दबाद के साथ
दूर देश ले जाने वाली समुद्री यात्राओं में
न कभी कोई हैरी पॉटर सा दोस्त
मुझे जादू की दुनिया में ले जायेगा
आकाश के सूनेपन में खोई मेरी आँखों के सामने
यूँ ही फड़फड़ायेंगे किताबों के पन्ने
मैं उनसे कोई सम्वाद नहीं कर पाउंगी
नंगे पाँव तय करना होगा मुझे
अज्ञान के बीहड़ में काँटों भरा रास्ता
सहना होगा अपमान
झेलनी होगी प्रताड़ना
चुपचाप सुबकना होगा
फूटकर रोना भी नहीं होगा मेरे बस में
लड़की होने का दुख वे नहीं जान सकते
जिनकी बेटियाँ कन्धे पर बस्ता लटकाए
फुदकती हुई स्कूल जाती हैं
रोती हैं मचलती हैं हर ज़िद पूरी करवाती हैं
बस्ते में रखी किताबों की तरह
बेटियों पर भी वे चढ़ाते हैं एक खूबसूरत ज़िल्द
और उन्हें बेहतर भविष्य की सुरक्षा दे देते हैं
मेरी इच्छाओं पर भी एक ज़िल्द चढ़ी है
जिससे बाहर निकल आने की आज़ादी उन्हें नहीं है
एक ज़िल्द मेरे माता – पिता के दिमाग़ों पर भी है
जो उन्हें पढ़े -लिखों के आतंक से बचाती है
दुनिया वालों के सवालों का
सीधा सा जवाब है उनके पास
लड़की पढ़-लिख कर बिगड़ जायेगी
हालाँकि उन्हें पता है बनने – बिगड़ने का मतलब
वे जानते हैं लड़की पढ़-लिख कर क्या करेगी
बिना पढ़ी -लिखी लड़की
एक पैबन्द की तरह छुपा लेगी
उनकी ग़रीबी और आत्मग्लानि का नंगापन
बड़ी होगी काम में हाथ बँटायेगी
लड़की का क्या है
पढ़-लिख कर आखिर ससुराल ही तो जाएगी
नए ज़माने की सच्चाइयों से वाकिफ़ हैं वे
उन्हें पता है किताबें और डिग्रियाँ
बेटियों के जीवन में सुख नहीं जुटा सकतीं
उनकी इज़्ज़त के परिधान में
सुरक्षा की मुहर नहीं लगा सकतीं
तीर से भी तेज़ तर्क हैं उनके तरकश में
चाकुओं से तेज़ घाव करने वाली सच्चाइयाँ
बहस के अंत तक पहुंचते पहुंचते
वे अपनी फटेहाली उघाड़ कर रख देते हैं
चीथ कर रख देते हैं
नैतिकता के तमाम उपदेश
वे जानते हैं बुरा नहीं है पढ़ना-लिखना
अपनी विवशता पर पर्दा डालने के लिए
उनके पास कपड़ों और किताबों के लिए
पैसे न होने का बहाना है
जो सचमुच बहाना नहीं है
अपनी बेरोजगारी के चलते
बच्चों की परवरिश और
काम में हाथ बँटाने का तर्क है
जिसके आगे निरुत्तर है
यह पढ़ी-लिखी दुनिया
फिर भी उन्हें पता है
एक सपने के लिए
सच को गिरवी रखने का मतलब
उनके सपनों में वह अतीत है जिसमें
ससुराल से लिखी बेटी की एक चिठ्ठी है
जिसे डाकिये से पढ़वाते हुए
वे तमाम कष्ट भूल जाते थे माता पिता
जो बेटी को स्कूल भेजने में उन्होंने सहे थे
उनके सपनों में वह भविष्य है
जिसमें मोबाइल फोन लैपटॉप है
जननायकों द्वारा किये गये वादे हैं
तकनीक के इस युग मे
बेटी द्वारा किये जाने वाले
हिसाब किताब के छोटे मोटे कामकाज हैं
अपनी असहमति के खोखलेपन से वे वाकिफ़ हैं
लेकिन विवशता का दैत्य उनके दरवाज़े पर खड़ा है
ग़रीबी उन्हें मुँह चिढ़ा रही है
और विरासत पाँवों को बेड़ियों में जकड़कर
पीछे खींच रही है
आप चाहें तो मेरे माँ -बाप पर तोहमतें लगा सकते हैं
क्यों पैदा किए इतने बच्चे जब पाल नहीं सकते थे
क्यों लेकर आए उन्हें दुनिया में दुख सहने के लिए
अभावों के साधारणीकरण के इस अभ्यास के आगे
निरुत्तर हो जाएँगे मेरे माँ-बाप
और अचम्भे से देखते रहेंगे
अनपढ़ों की दुनिया में पढ़े -लिखों का हस्तक्षेप
मेरी नियति यही है कि एक प्रश्नचिन्ह की तरह
हरदम बना रहेगा मेरा अस्तित्व
मेरे माँ-बाप के सामने
जब तक वे मेरे हाथ पीले कर मुक्त न हो जाएँ
अपनी माँ, नानी ,दादी की तरह
मैं भी भटकती रहूंगी ताउम्र अज्ञान के बीहड़ में
मेरे वज़ूद से गुजर जाएँगी कई सदियाँ
पीढ़ियों तक चलती रहेगी यह व्यथा- कथा
मुझ जैसी किसी बेटी को कभी हासिल नहीं होगा वह बस्ता
जिसमें हालात से लड़ने का हथियार होगा
आप भी मन से नहीं चाहेंगे
कि आपकी असुरक्षित दुनिया में
झाड़ू-पोछा लगाती मेरी दुनिया का क़द
आपकी दुनिया के बराबर हो जाये
मैं जानती हूँ
कि आपको मेरे दुखों से कोई सरोकार नहीं
इसलिये कि मैं आपकी बेटी नहीं हूँ
मेरे सपनों से आपका कोई वास्ता नहीं
क्योंकि आपने मुझे जन्म नहीं दिया है
जो इठलाती हुई स्कूल जा रही है आपकी बेटी
रिश्ते में मेरी कुछ नहीं लगती है
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फिर भी अपने सहज मानवीय स्वभाव में
मुझे प्रतीक्षा रहेगी
उन पढ़े -लिखों की
जो सचमुच दुनिया की फिक्र करते हैं
जो स्वयं उत्पीड़ित हैं और लिखना चाहते हैं
उत्पीड़ितों का शिक्षाशास्त्र
जो लड़ना चाहते हैं अमानवीयता के खिलाफ
और शामिल करना चाहते हैं
हर मज़लूम को अपनी लड़ाई में
यदि वे चाहेंगे तो मैं भी
उनकी बेटियों की तरह
किसी दीक्षांत समारोह में
कांधे पर सम्मान
हाथों में एक प्रमाण पत्र
और दिमाग़ में पढ़ने से मिली ताकत लेकर
खिंचवा सकूँगी एक तस्वीर
■कवि संपर्क-
■88616 65060
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