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■’काव्य प्रभात’ : सरस्वती धानेश्वर [भिलाई-छत्तीसगढ़].
■श्री नर्मदा प्रकाशन की प्रस्तुति
■साझा काव्य संकलन
■काव्य प्रभात
■संपादक : डॉ. हसीन खान,सत्यम सिंह बघेल.
♀ ‘काव्य प्रभात’ में प्रकाशित सरस्वती धानेश्वर की तीन कविताएं.
♀ तुम्हारे इंतज़ार में
तुम्हें जाने तो नहीं देना चाहती थी, तुमसे मिलने के बाद!
पर वक्त को किसने थामा है आजतक।
हर कदम तुम्हारे साथ ही रखा था जमीं पर, बहुत दूर तक चलने के लिए,पर बेदर्द रास्ते भी बेवफा निकले।
तुम्हारी यादों का काफिला, देता रहा मन को आकार।
कभी भीगती रही, कभी उड़ती रही, रेतीली धूल बनकर।
पर उड़ते हुए भी भीगने का एहसास रहा बाकी।
जानती हूं, कहीं किसी मोड़ पर हम मिलेंगे जरुर।
उस दिन बांध लूंगी, तुम्हारी जिंदगी का हर सिरा, कभी न छोड़ने के लिए।
मैं बन जाऊंगी आवाज तुम्हारे खामोश लबों की, और छिपा लूंगी तुम्हारा दीर्घ मौन, अपनी सांसों के आर-पार!
जानती हूं प्रेम के इस व्यवहार में, रेगिस्तानी प्यास की कीमत मुझे ही चुकानी पड़ेगी हर-बार।
फिर भी सौंप रही हूं, अपनी सारी आशाएं और विश्वास।
क्योंकि एतबार है मुझे तुम पर अपार,
पूरी तरह रीतने के बाद भी मेरी यादों में
हमेशा रहोगे आस-पास””
एक ख्वाहिश रहेगी बाकी,
मिलने की आस रहेगी बाकी,
सांसें भी थमीं रहेंगी,
तुम्हारे इंतज़ार में,।।
♀ रहनुमा
अथाह पीड़ाओं का दंश
अश्कों की गागर
हृदय का गहरा तल
छिपे हुए कयी बीते पल
अदृश्य सा उसका वजूद
ओझल राहों का जुगनू भर उजाला,
लंबी स्याह रातों के पल।
उसकी धड़कन का विस्तार
हर सांसों के आर-पार
दर्द पगे हालात,
दग्ध हृदय जज्बात।
निष्ठावान हृदय उसका,
गर्माहट लिए धड़कता है,
वो रहनुमा है यारों का
पर अपने दर्द से अंजान।
खुद से बेगाना वो,
दुनिया की बेखुदी से बेखबर,
अपने सुरूर में सराबोर,
अनहद नाद सा पवित्र,
स्वभाव से समर्पित,
उसके ख्यालों में खलिश।
यूं कलम की धार अब रुक- रुक कर चलती है,
दर्द वही पहचाना सा,
इन शब्दों की संजीदगी,
भीगी पलकों की बेचारगी,
दर्द की इंतेहा, कौन सुने गुजारिशों के अंश
ओह हमनवां मेरे__
वक्त की सरगोशियों ने थाम लिया अब जिम्मेदारियों का दामन,
अब तेरी दीदारियों का एहसास कहां हो पाता है,
यूं रूह में समाया है तू धड़कन बनकर बस यही एहसास जीने की वजह बन जाता है।
♀ बेटियां
समुद्र मंथन से निकली अमरत्व बरसाती है अंजुली में समा जाती हैं गंगाजल की तरह, जहां कहीं भी छलक जाती हैं, तीर्थ बना जाती हैं।
ये बेटियां_
भोर की उजास, और रक्तिम लालिमा लिए,सांझ का दीपक बन जाती है, जहां भी प्रकाशमान होती है, दोनों जहां को रौशन कर जाती है।
ये बेटियां_
साथ होती है तो नयी उमंगों को सजाकर,नयी संभावनाओं को जन्म देती है,राह में दीपक रख देती है।
ये बेटियां_
अमरबेल होती है, दुख में बांहे फैलाए, खुशियों को पनाह देती है, पतझड़ हो या मधुमास हर- पल साथ निभातीं है।
ये बेटियां__
मधुर संगीत बन छू जाती है अंतर्मन,बिखरा जाती है खुशबू,महका जाती है घर उपवन।
ये बेटियां__
हर घर की रौनक बन, मां पिता का गुमान होती है
जब घर से विदा होती है, वर्षों तक याद आती है,
ये बेटियां भी सचमुच अभिमान होती है।
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