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  • ■मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी[माकपा] महाधिवेशन बदला जन-महोत्सव में : जनमत के बल पर बाधाओं को जीतने का चट्टानी संकल्प-बादल सरोज.

■मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी[माकपा] महाधिवेशन बदला जन-महोत्सव में : जनमत के बल पर बाधाओं को जीतने का चट्टानी संकल्प-बादल सरोज.

3 years ago
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केरल के कन्नूर में हुआ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का महाधिवेशन (जिसे पार्टी कांग्रेस कहा जाता है) सिर्फ देश भर से जनसंघर्षों की भट्टी में तपकर आये मैदानी राजनैतिक कार्यकर्ताओं की मौजूदा चुनौतियों से जूझकर आगे बढ़ने का रास्ता तय करने की नियमित अंतराल से की जाने वाली राजनैतिक-सांगठनिक प्रक्रिया भर नहीं थी। यह केरल और खासतौर से कन्नूर के नागरिकों के लिए एक असाधारण जन उत्सव थी। एक ऐसा पर्व और त्यौहार थी, जिसे उन्होंने पूरे उत्साह और आल्हाद के साथ मनाया भी और जीया भी।

दूर शहर के एक कोने में कैंटोन्मेंट इलाके की नयनार अकादमी में हो रहे सम्मेलन परिसर तक जाने वाले रास्ते में सुबह-तड़के से ही हजारों की संख्या में महिला, पुरुष, युवाओं और बच्चों के ठठ के ठठ जमा होना शुरू कर देते थे और देर रात तक, जब तक प्रतिनिधि अपने-अपने ठहरने के स्थानों के लिए बाहर निकलते थे, तब तक वहीँ जमे रहते थे ; सिर्फ उनकी झलक पाने के लिए, उनसे हाथ मिलाने के लिए, उन्हें छूने के लिए। छोटे-बड़े बच्चों के साथ सपरिवार वे उन्हें सिर्फ देखने आते थे, जिन्हे वे जानते तक नहीं थे। इसरार करके उनके साथ सेल्फी और फोटो खिचवाते थे, जिनका नाम तो दूर भाषा तक वे नहीं समझते थे।

यह उत्साह सिर्फ सडकों पर ही नहीं बिछा हुआ था, इस मौके पर लगाई गयी दो प्रदर्शनियों के हर वक़्त ठसाठस भरे मैदानों में भी सजा हुआ था। इनमें बाल संघम के बच्चे-बच्चियां थे, तो युवक-युवतियां और बुजुर्ग भी थे। ऑटो वालों से लेकर हर तरह की मेहनत करने वाले थे, तो मध्यम वर्ग और अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति वाले उच्च-मध्यम वर्ग के स्त्री-पुरुष भी थे ; केरल की गर्मी में सडकों पर खड़े पसीना बहाते, देश भर से आये राजनैतिक नेतृत्व के सम्मान में हाथ उठाते। माकपा की 23वीं पार्टी कांग्रेस में आये प्रतिनिधि सिर्फ कन्नूर ही नहीं, पूरी केरल की जनता के मेहमान थे। उनकी मेहमाननवाजी करने में न भाषा आड़े आयी, न मौसम की दुश्वारियों ने जोशो-खरोश में कोई कमी लाई।

राजनीति सिर्फ और केवल चुनाव जीतने या राज करने का जरिया नहीं होती, राजनीति एक नए तरह का सभ्य, सुसंस्कृत, सदव्यवहारी मनुष्य और विकसित चेतना वाला समाज ढालती है। इस तरह बेहतर राजनीति बेहतर और बदतर राजनीति बुरे मनुष्य गढ़ती है।

कम्युनिस्ट राजनीति और उसकी विचारधारा इसके लिए क्रान्ति हो जाने का इंतज़ार नहीं करती, वह पूरी शिद्दत और योजना के साथ क्रांतिकारी संघर्षों के दौरान ही मनुष्य को सजग इंसान बनाने का काम करती जाती है। वह मनुष्यता के अब तक के सारे सकारात्मक हासिल के जोड़ को निखारते हुए एक नयी संस्कृति, सभ्यता और तहजीब का निर्माण करती है। ठीक यही वजह है कि केरल में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) सिर्फ चुनावी पार्टी या प्रचलित अर्थों वाली बुर्जुआ राजनैतिक पार्टी नहीं है ; एक संस्कृति है — जीवन जीने का अंदाज है।

इस स्थिति को सहज ही हासिल नहीं किया गया। केरल ऐसे ही अचानक ही केरल नहीं बना। पिछली सदी के शुरुआती दशकों में मलाबार और त्रावणकोर कोचीन में अंग्रेजों सहित उपनिवेशवादियों की अलग-अलग किस्मों और सामंतवाद की भारत की सबसे क्रूर प्रजाति वाले जमींदारों, रजवाड़ों, दीवानों के आर्थिक और मध्ययुगीन पोंगापंडितों-कठमुल्लों के सामाजिक, इस तरह दोनों तरह के शोषण के खिलाफ लड़ते हुए इसे रोपा गया है, कय्यूर से क्वोटुमपरम्बा तक शहादतें और कुर्बानियां देते हुए इसे सींचा गया है। इस नयी तहजीब की ईंट दर ईंट चिनी गयी है, उसे विचारों से तराशा और संगठन के श्रम साध्य काम से चमचमाया गया है। आर्थिक और वैचारिक मोर्चे पर तीखे वर्ग संघर्ष की यही मुहिम तथा उसके लिए हर संभव त्याग और योगदान देने का सिलसिला आज भी जारी है।

जिस जिले में पहली बार यह पार्टी कांग्रेस हो रही थी, वह कन्नूर अपनी 18 एरिया कमेटियों, 243 लोकल कमेटियों और 4245 पार्टी शाखाओं (ब्रांचेज) में संगठित 61,668 पार्टी सदस्यता के साथ इस कुर्बानी और समर्पण में सबसे आगे है।

यही जनभागीदारी और समर्पण है, जिसके कारण 1957 में बनी पहली कम्युनिस्ट सरकार को गिराने के लिए इकट्ठा हुए प्रतिक्रियावादियों की गिरोहबंदी, तथा देसी और अमरीकी मदद से 1959 में ईएमएस सरकार की बर्खास्तगी के बावजूद कोई शिथिलता नहीं आयी। इनकी साजिशों से काम नहीं बना, तो साठ के दशक में बीड़ी मजदूरों के आंदोलन को कुचलने के लिए गणेश बीड़ी के मालिकों द्वारा मंगलोर से गुंडों की खेप भेज कर आरएसएस बनाया गया। मगर सारे धनबल और सैकड़ों कामरेडों की हत्याएं करने के बावजूद आरएसएस अपनी विषबेल पनपा नहीं पाया।

वामपंथ ने आमतौर से और माकपा ने खासतौर से जनता की चेतना को इतना समृद्ध और मजबूत किया है कि किसी भी तरह का विषाणु उसे अब तक प्रभावित नहीं कर सका। पार्टी कांग्रेस के दौरान हुए सेमिनारों में दसियों हजार स्त्री-पुरुषों की भागीदारी यह बता रही थी कि भविष्य में भी ऐसा होना नामुमकिन है।

केरल देश का एकमात्र प्रदेश है, जहां छोटे से गाँव-टोले से लेकर शहर की हर छोटी-बड़ी दूकान पर उनके अपने सामान के साथ अखबार और पत्रिकायें भी मिलती और बिकती हैं, जहां देश-दुनिया के हर ताजे मसले पर हजारों की तादाद में किताबें छपती और बिकती हैं, जहां हर उम्र के नागरिकों का दो-तिहाई हिस्सा संगठित और सक्रिय है। यही इम्यूनाइजेशन है, जिसके चलते आरएसएस गुजरात, कर्नाटक और यूपी से भी ज्यादा संख्या में शाखाएं लगाने के बावजूद अपनी राजनीति का खाता तक नहीं खोल पाता है।

केरल आज भारत का – हर मामले में – सबसे अधिक विकसित प्रदेश है। निस्संदेह इसकी भूमिका 1957 में ईएमएस नम्बूदिरीपाद की अगुआई में बनी पहली सरकार ने रखी और बाद में समय-समय पर बनी वामपंथी सरकारों ने इसे आगे बढ़ाया। मौजूदा एलडीएफ सरकार ने इसे और गति प्रदान की, जिसे खुद जनता ने सराहा और स्वीकारा। नतीजा यह निकला कि इस प्रदेश के राजनीतिक इतिहास में पहली बार कोई सरकार लगातार दुबारा निर्वाचित होकर आयी। मगर यह सब काम सिर्फ सरकार के बूते पर.प्रशासन के जरिये नहीं किया गया।

जनता की पहलें भी इसके पीछे हैं, जिनका एक उदाहरण ठीक पार्टी कांग्रेस के दौरान बनाये गए 23 मकानों की चाबी सौंपने के रूप में दिखा। ये वे मकान थे, जिनका निर्माण सरकार ने नहीं, माकपा ने अपने कार्यकर्ताओं, सदस्यों, शुभचिंतकों, समर्थकों और जनता से पैसा इकट्ठा करके उन नागरिकों के लिए किया था, जिनके पास अपना घर नहीं है। पिछले साल पार्टी की अलग-अलग कमेटियों ने 1200 मकान बनवाये और गरीबों को दिए हैं। इस वर्ष 1000 मकान बनवाये जाएंगे।

केरल की कुल आबादी में 1% से भी कम लोग ऐसे हैं, जो अति गरीब की श्रेणी में आते हैं। इन्हे भी मानवीय जीवन देने के लिए माकपा ने सरकार में रहते हुए इन सहित पूरे केरल के लिए अनेक कदम उठाये हैं — मगर सिर्फ सरकारी कदमों पर ही पूरी तरह से निर्भर रहने की बजाय माकपा ने अपनी कतारों को भी इस काम से जोड़ा है। उन्हें प्रेरित किया जा रहा है कि वे निजी सुखद समारोहों और पर्वों, उत्सवों, त्यौहारों के खर्च का एक हिस्सा इन कामों के लिए सुरक्षित कर जमा करें, ताकि इस तरह के और भी मकान बनाकर सबको घर मुहैया कराया जा सके। सिर्फ भारत ही नहीं दुनिया की राजनीतिक पार्टियों के लिहाज से भी यह एक असम्भव सा लगने वाला असाधारण काम है। इन मकानों की चाबी सौंपने के लिए हुए समारोह में बोलते हुए केरल के राज्य सचिव कोडियारी बालाकृष्णन ने ठीक ही कहा था कि माकपा के लिए कुछ भी असंभव नहीं है।

माकपा और वामपंथ की यही ताकत है, जिससे पूँजी पिशाच और उनकी प्रेतमण्डली डरती है। यह डर इस पार्टी महाधिवेशन के मीडिया कवरेज में साफ़ दिख रहा था। वामपंथ भारतीय राजनीति की एक महत्वपूर्ण, विशिष्ट और प्रमुख धारा है। नीतिगत सवालों पर इसकी राय तथा देश, समाज और जन की ज्यादातर प्रमुख समस्याओं के निदान और समाधान को लेकर इसकी समझदारी दूसरी राजनीतिक धाराओं से गुणात्मक और निर्णायक रूप से भिन्न तथा अलहदा है। इस लिहाज से माकपा की यह पार्टी कांग्रेस सहज ही सभी की दिलचस्पी का विषय था — इसे समाचार माध्यमों में चर्चा में होना चाहिए था। पत्रकारिता की भाषा में कहें तो सहमति-असहमति से इतर और परे इसकी एक न्यूज वैल्यू भी थी। इसलिए भी कि यहाँ अगले तीन वर्षों के लिए देश की राजनीति में खासतौर पर मेकप और आमतौर पर वाम की भूमिका निर्धारित की जा रही थी। देश की वाम-धर्मनिरपेक्ष शक्तियों की एकता और मजबूत बनायी जा रही थी।

ऐसा नहीं कि यह सब उन्हें मालूम नहीं था। उन्हें पता था। मगर इससे ज्यादा उन्हें यह भी पता था कि माकपा और वाम की वैचारिक-सांगठनिक एकता का सन्देश नीचे तक जाना उनके राज के लिए कितना खतरनाक हो सकता है। उन्हें पता था कि इस बार परिस्थितियों के आँकलन, संभावनाओं के मूल्यांकन और आगे के रास्ते पर बढ़ने के मामलों पर माकपा में किसी भी तरह की मतभिन्नता नहीं है — कोई दो राय नहीं है, कहीं कुछ इधर-उधर नहीं है। ठीक यही वजह है कि इस बार माकपा का महाधिवेशन (पार्टी कांग्रेस) उनके लिए खबर नहीं रही।

अक्सर बड़ी पूँजी की अँगुलियों में कसी डोरी से नियंत्रित और इन दिनों देसी-विदेशी कारपोरेट से सीधे-सीधे संचालित मीडिया यह भूल जाता है कि जनउभार के तूफ़ान से आँख मूँद लेने के उसके शुतुरमुर्गी स्वांग से लोग निराश होकर घरों में बैठने वाले नहीं हैं, कि पूँजी के तहखाने में क़ैद मुर्गे को बांग देने से रोक देने से सूरज का उगना रुकेगा नहीं — सुबह की आमद टलेगी नहीं। पिछले चार वर्षों में यही हुआ है। शुतुरमुर्गी अनदेखी के रहते और उसके विरोध के बावजूद हिन्दुस्तान के मेहनतकशों के संघर्षों ने उम्मीदों का प्रभात लाया है। आगे भी ऐसा ही होना तय है।

एकजुट संकल्प और हौंसले के इस पार्टी महाधिवेशन ने ऐसी अनेक सुबहों की आगाज़ के मंसूबे बनाये हैं। एलान किया है कि ग्रहण लगने से सूरज उगना बंद नहीं करता। इस महाधिवेशन से लौटे देश भर के प्रतिनिधि आगामी दिनों में जब इन मंसूबों को लागू करेंगे, घोषणाओं को यथार्थ में बदलेंगे, तब नयनार अकादमी के बाहर खड़े, जवाहर स्टेडियम के रास्ते में सड़क के दोनों ओर खड़ी विराट भीड़ की आँखों में चमकती उम्मीद और सभा में बार-बार गूंजता भरोसा उनका हौसला बढ़ाता रहेगा।

【 बादल सरोज ‘लोकजतन’ के संपादक हैं 】

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