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■कविता संग्रह : सिधवा झन समझव 【 कवि दुर्गा प्रसाद पारकर 】
♀ मौन से मुखर होने का संकेत – ‘सिधवा झन समझव’
दुर्गा प्रसाद पारकर द्वारा लिखित कविता संग्रह ‘सिधवा झन समझव’- छत्तीसगढ़ी में छंदमुक्त कविताओं का सुंदर संकलन है। हिंदी बेल्ट में जनपदीय भाषा में पद रचना तुकांत, गेय या छंद में बांधकर होती है। छंदमुक्त कविता कभी-कभी ही लिखी जाती रही। दुर्गा प्रसाद पारकर का यह सम्पूर्ण कविता संग्रह ही छंदमुक्त कविताओं का संकलन है। छत्तीसगढ़ी भाषा साहित्य में इस कविता संग्रह का स्वागत है।
समय की धारा के साथ कविता की धारा, शैली व शिल्प में भी परिवर्तन होता रहता है। जीवन, रहन-सहन, भौतिक घटनाएं भी परिवर्तित होती रहती है। उसके अनुसार विषय वस्तु भी बदलता है।
छत्तीसगढ़ के कृषि जीवन में अब उद्योग-व्यापार ने प्रवेश कर लिया है। राजनीति हावी हो गयी है। जीवन में दोहरापन आ गया है। छत्तीसगढ़ का सीधा, सहज, सरल व्यक्ति अभी तक शोषित होता रहा है, पर अब शनै: शनै: जागरण की लहर आने लगी है। ऐसी स्थिति में कवि का मनोभाव चुनौती की मुद्रा बना लेता है और कहता है ‘मोला सिधवा झन समझव’! अर्थात ‘मुझे सीधा (बुद्धू) मत समझना’!
अभी तक वह मूक की तरह था, अब मौन से मुखर होने का संकेत करते हुए कवि ने लिखा-‘सिधवा झन समझव’!, काव्य संकलन का शीर्षक ही सब समझा देता है। ‘सिधवा झन समझव’ संकलन में 54 कविताएं संकलित हैं। छत्तीसगढ़ की माटी से जुड़ी कविताएं छत्तीसगढ़ कहां हे?, छत्तीसगढ़ फेर कब आबे?, हरियर छत्तीसगढ़, मोर गंवई गांव-बारम्बार मातृभूमि की याद दिलाती है। यह छत्तीसगढ़ यानी कोसल प्रदेश, भगवान श्रीरामचन्द्र जी का ननिहाल है। वही छत्तीसगढ़ आज शराब की लत से बेहाल है।
कवि की पीड़ा इन पंक्तियों में देखें-
दारू कस जहर ले
मुक्ति देवाय बर
ममा मन ल तारे बर
भांचा के धरम निभाये बर
हे राम!
छत्तीसगढ़ फेर कब आबे?
कवि ने युवा पीढ़ी के भटकाव को लव कुश का उदाहरण देते हुए प्रश्न किया है –
कलयुग के लव कुश मन
पढ़े लिखे के उमर म
रद्दा ले भटके बर धर ले हे
इमन ल संस्कार के पाठ पढ़ाय बर
अश्वमेध यज्ञ के घोड़ा ल
खोजत-खोजत
हे राम!
वाल्मीकि के आश्रम डाहर
तुरतुरिया फेर कब आबे?
कैसा है यह छत्तीसगढ़? आज छत्तीसगढ़ के नाम का शोर विदेश में भी है, पर उसकी पहचान क्या है? जहां गरीबी, अशिक्षा है, वहां छत्तीसगढ़ है।
जैसे –
जउन ल जेन जघा
कांटा गड़ जही
मान लेबे रे बेटा
छत्तीसगढ़ उही पांव म हे!
जिहां जिहां जाबे
तंय मोला पाबे
गरीबी, उपेक्षा अउ अशिक्षा
जिहां-जिहां हे,
मान लेबे रे, मोर दुलरुवा
उही अभागिन के कोख म
छत्तीसगढ़ हे!
कवि पारकर भारत की विशेषता बहुत सुंदर ढंग से परिभाषित करते हैं-अनेकता में एकता की उपमा, सबके गुण धर्म को मिलाकर रंगहीन पानी सा कर देते हैं-
बादर ह घुम घुम के
अलग-अलग प्रान्त म
एके रंग के पानी गिराथे
अपन-अपन भाषा संस्कृति संग
रेला ह
नदिया म संघरथे,
बोहावत-बोहावत नदिया ह
समुंद म समा जाथे
समाय के बाद सबके गुन धर्म ह
हो जथे पानी कस एक
अइसन आय हमर भारत देश!
छत्तीसगढ़ का प्यारा किसान केवल ‘बासी’ खाकर खेत खलिहान में अन्न उपजाने व संजोकर रखने का काम करता है। जिस तरह बूढ़े व्यक्ति को केवल लाठी का सहारा होता है, उसी तरह छत्तीसगढ़ को केवल किसान का ही सहारा है। ‘आसरा’ कविता इसी आशा की रचना है।
‘केवट’ का क्या काम है? विषम परिस्थिति में जीवन रूपी नदी को पार कराना। समुंदर के शब्दकोश में केवट के लिए ‘हार’ जैसा शब्द नहीं लिखा है। कवि पारकर ने बहुत सुंदर व्याख्या की है ‘केवट’ की-
शौर्य अउ भक्ति के
संगे संग
जिनगी के जंग ल लड़ के
जीते बर
दुनिया ल-कवि पारकर ह
‘विजयी भव’ के पाठ पढ़ाथे
दुर्गा प्रसाद पारकर की यह नई दृष्टि केवट को साहस, आत्मविश्वास से भरा पराक्रमी, अजेय योद्धा बना देती है।
अभी तक केवट को हमने केवल सेवक व श्रमिक के रूप में देखा है, गुण ग्राहक भक्त के रूप में देखा है, पर कवि पारकर ने केवट को-‘विजयी भव’ का पाठ पढ़ाने वाला गुरु बना दिया। यह नई दृष्टि कवि का पाथेय है। छत्तीसगढ़ी कविता में नया उन्मेष है। कवि पारकर ने ‘एकलव्य’ को भी फटकारा है-द्रोणाचार्य को कब तक गुरु दक्षिणा में अपना अंगूठा देते रहोगे? अशिक्षा के कालिया नाग को कृष्ण की तरह नाथना पड़ेगा। कथन की नई शैली व नई उपमा। स्वागत है।
फसल चक्र की समाप्ति के पश्चात किसानों का पलायन आम बात है, पर कवि पारकर इस पलायन को शकुनि की चाल बताकर पूछते हैं-खाय कमाय के नाम म, शकुनि के चाल अउ पलायन के तिरी पासा म, सरबस हार के कब तक आंसू ढरकावत रहू?
नई दृष्टि, नई उपमा, नई शैली में मुक्तछंद की कविता हमें आल्हादित करती है।
नारी और वृक्षारोपण पर एक नई सोच के साथ कवि पारकर का विचार है-
नारी तपस्या, भक्ति, सेवा, प्रकृति के समान माता का नाम है, पर वह क्रोधित होने पर महामाया बन जाती है लेकिन वृद्ध होने पर यदि, पति व बेटे ने छोड़ दिया तो वह किसके सहारे जियेगी? एक छांव चाहिए तो वह क्या करे? कवि का कथन-
उमर के आखरी
पड़ाव म बेटा भले संग नइ दिही
फेर लउठी (सहारा) बर
एक ठन रुख घलो लगा लेबे
वृद्धा आश्रम म घलो जघा
नइ मिलही ते
कम से कम
आमा कस बेटा के छइँहा म
छीन भर बर
सुकून के सुख तो पाबे।
वर्तमान स्थिति में बेटा भी दूर चला जाता है, पर अपना लगाया हुआ आम का वृक्ष सदा छांव देता है। यह वृक्षारोपण का कारण व लाभ कवि ने बता दिया।
देशज या जनपदीय भाषा की रचनाओं में आज की स्थिति के अनुकूल विचार कम मिलते हैं, पर कवि पारकर की प्रगतिशीलता, समसामयिक चिंतन उनकी कविताओं में झलकती है।
आज तालाब व नदी के प्रदूषित होते जल पर भी कवि का चिंतन देखें-
पहिली
शिवनाथ के पानी ल
पियत रेहेन
डुबक-डुबक के नहावत रेहेन
ओह
अब कहानी बनगे
समंदर कस जलरंग
पानी तो हे
फेर पानी पीयई तो दूर
ओला छू नई सकन।
शिवनाथ म पानी तो हे
फेर पानी रहिके
प्यासे रहिगेन।
पारकर की कविता-‘रद्दा के पीरा’ राष्ट्रीय एकता का संदेश देती व क्रांति का आव्हान करती कविता है-रद्दा अर्थात सड़क या मार्ग।
सड़क में सब चलते हैं, बिना भेदभाव के। सड़क मूकबधिर की तरह सब सहता है। मनुष्य को भी सड़क की तरह बनना होगा। पारकर का कहना है-
हे मनखे!
मंय निर्जीव होके घलो
सबो ल अपनावत हंव
कौमी एकता के पाठ पढ़ावत हंव,
त तुमन समझदार होके
संसार ल
धर्म, जाति अउ भाषा के नाम ले
काबर बाँटत हव?
सहनशीलता की भी एक सीमा होती है तो कवि आव्हान करता है-
अन्याय के विरोध म
आवाज उठाय बर परही
नही ते
कोंदा मन ल
रद्दा बरोबर
रोज अइसने
पीरा भोगे बर परही।
एक कलाकार/नर्तक की पीड़ा का मर्मान्तक वर्णन कवि ने ‘नचकार’ कविता में किया है। दुनिया को हंसाने वाला ‘नचकार’ रात भर नाचता है ताकि जवान बेटा की रात भर घर में रखी लाश के अंतिम संस्कार के लिए पैसा मिल सके। कफन का इंतजाम हो सके। कलाकार उधार नहीं लेता, अपना बचपन खो देता है।
कलाकार के लिए सच्ची श्रद्धाजंलि तभी होगी,
जे दिन, कलाकार मन अभाव म नई मरही।
कवि ने राजनीति के मसखरेपन का सुंदर नमूना दिखाया है। ‘टोपी’ के प्रतीक बदल गए हैं। ‘टोपी’ आत्म कथात्मक शैली की रोचक कविता है-
मोर नांव टोपी हे
मंय खादी के बनथंव
मोर असली रंग सादा हे
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी ह
चरखा के सूत कातके
मोला सिरजाये हे।
लेकिन आजादी के बाद न जाने कितने रंग के, कितनी पार्टी के, कितनी तरह की टोपियां बन गई? आज ये टोपियां केवल खास मौके पर ही पहनी जाकर तकिए के नीचे रख दी जाती है। टोपी की आत्म पीड़ा यह है-
मंय सोचे रहेंव
कि
एक देश एक रंग के टोपी पहिरही
मंय नई जानत रहेंव
टोपी ह देखे भर बर
बन के रही जहि कही के
टोपी की अंतर्व्यथा-
अवइया पीढ़ी तो
टोपी के त्याग अउ बलिदान ल
जब जानबे नई करही
त कहां ले
सत्य अहिंसा अउ परमो धर्म के
पाठ ल पढ़ाही?
बचपन में पिता व गुरुजी के थप्पड़ ने ही काबिल बनाया, यह मान्यता है कवि पारकर की। बालक इधर-उधर बहक नहीं पाता, सही राह पर चलता है, यह थप्पड़ का महत्व है।
कवि ने झोलाछाप डॉक्टर, लालबत्ती का सपना, जड़, ढेखरा, अमरबेल, डुहड़ू, चतुरा, सत्संग, कागज के डोंगा-जैसी कविताएं आम जिंदगी के व्यवहार को लेकर लिखी हैं, जो चिंतन योग्य है।
संग्रह की अंतिम कविता-‘तंय कान दे के सुन’ बहुत मर्मभेदी है जिसमें कवि की पुकार है –
हे भगवान!
फेर जनम म मोला
गरीब घर जनम झन देबे
काबर कि
सबो दुख के जड़ गरीबी आय।
इस कविता में बिसाहिन के माध्यम से कवि शिक्षा का महत्व बतला रहा है। कविता में लोकोक्ति भी है, सूक्ति भी है-
कुछ करम, कुछ करम गति,
कुछ पूर्वज के भाग
गरीबी ल भगाय बर
तोला मंत्र बतावत हंव आज।
क्या है वह मंत्र?
बड़े बने बर
बड़े सपना देखे बर परही
बड़े सपना ल पूरा करे बर
दुख तकलीफ सहिके
अपन लईका मन ल
बिक्कट पढ़ाय लिखाय बर परही।
लईका मन ल पढ़ाय लिखाय बर
चाहे कतको पानी गिरय
चाहे कतको भोंभरा तिपय
झन बिलमबे छांव म।
जाना हे ते गांव
अभी बिक्कट दूरिहा हे।
उक्त संदेश देती हुई सकारात्मक कविता के साथ संकलन पूरा होता है।
दुर्गा प्रसाद पारकर की ये मुक्तछंद की कविताएं छत्तीसगढ़ी भाषा में अपना विशिष्ट स्थान बनाएंगी, ऐसा विश्वास है। मेरी शुभकामनाएं व आशीष है, दुर्गा प्रसाद पारकर के लिए। वे निरन्तर यश अर्जित करें।
[ ●समीक्षा : डॉ. सत्यभामा आडिल,रायपुर-छत्तीसगढ़ ]
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