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■मैं और मेरी लाइब्रेरी : आज़ मेरी लाइब्रेरी से – ‘कमीज के अंदर का आदमी’.
[ ●बांग्ला के सुप्रसिद्ध कवि दुलाल समाद्दार ने विगत दिनों उनकी हिंदी काव्य संग्रह ‘कमीज के अंदर का आदमी’ मुझे भेंट करने आये. ●काव्य संग्रह का शीर्षक मुझे प्रभावित किया और संग्रह मैंने पूरी पढ़ी. ●बांग्ला के कवि दुलाल समाद्दार की हिंदी में लिखी कविताओं को पढ़कर ये नहीं लगता कि वे बांग्ला के कवि हैं. ●हिंदी कविता संसार में दुलाल समाद्दार का नाम नया जरूर है, मगर कविताओं को पढ़कर मुझे ये लगा ही नहीं कि इस प्रतिष्ठित बांग्ला कवि की यह पहली संग्रह है. ●दुलाल समाद्दार की 4 बांग्ला कविता संग्रह[ ‘आमी बृष्टि भलोबासी’,’कवितार काछे नतजानु’,’फर्नेस के जागिये राखो दोस्त’,’भालोबासा र वर्णमाला’] के बाद ये पहली हिंदी कविता संग्रह ‘ कमीज के अंदर का आदमी’,न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन नई दिल्ली से छपकर आई है. ●19 जनवरी 1955 को जन्में दुलाल समाद्दार भिलाई इस्पात संयंत्र से सेवानिवृत्त होकर वर्तमान में भिलाई में निवासरत हैं. ●दुलाल समाद्दार ‘मुक्तकंठ साहित्य समिति’ की साहित्यिक पत्रिका ‘मुक्तकंठ’ और ‘बंगीय साहित्य संस्था’ की बांग्ला साहित्यिक पत्रिका ‘मध्यवलय’ के संपादक हैं. ●’कमीज के अंदर का आदमी’ संग्रह से ‘छत्तीसगढ़ आसपास’ वेब पोर्टल में दो कविताएं अपने पाठकों के लिए प्रकाशित कर रहे हैं, पढ़ें और अपनी राय से अवगत कराएं. ●कवि संपर्क- 9406329988 ]
♀ कमीज के अंदर का आदमी
कमीज के अंदर का आदमी
हमेशा अकेला पाता है अपने आपको
कमीज के बाहर
उसके चेहरे पर टंगी
नकली मुस्कान
लोगों में घुलमिल जाती है
रस्मो-रिवाज,
दिखावे की मेहमान नवाजी
पालिश की हुई बोलचाल
सब कुछ बाहर छोड़
जब कमीज के अंदर होता है
अकेला हो जाता है वह
नवजात शिशु की तरह
बिलकुल
निष्कपट और पवित्र
कमीज के बाहर का आदमी जूझता है
झूठे अहं से,
विफलताओं से
शामिल हो जाता है
साँप-सीढ़ी के खेल में,
मुट्ठी में बांधना चाहता है सूरज को
भीड़ से आगे निकलने के उतावले पन में
भीड़ का ही अंग बन जाता है
जब कि कमीज के अंदर
कोई भीड़,
कोई शोरगुल नहीं
कमीज के अंदर का आदमी
तपस्वी बन अपने ही अंदर
तलाशता रहता है
एक आदमी को
एक सम्पूर्ण आदमी
निरपेक्ष और भयहीन●
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♀ आदमी और चिड़िया का गणित
आदमी चिड़िया नहीं बन सकता
होते तो हैं पर इनके भी
अभिलाषाओं के
घोंसले भी
यहाँ तक कि
आकाश में उड़ान भरने का
हौसला भी
आदमी फिर भी चिड़िया नहीं बन सकता.
क्योंकि उसने खो दिये हैं
अपनत्व से
ओतप्रोत हरे भरे जंगल
अपनी सहज जीवन शैली
बोली की मिठास
और आकाश ओढ़ कर
निश्चित सोने की
गरिमा पूर्ण दिनचर्या.
खो चुका है आदमी
सच्चे आदमी बनने की
कीमियागरी
और
एक सामान्य यंत्र बन कर
रह गया है
जो सिर्फ जीने के लिए
बन सकता है कुछ भी.
गगन चूमती विशाल इमारतों में
कैद आदमी
चाहे जो भी बने
चिड़िया कभी नहीं बन सकता●
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【 ■’मैं और मेरी लाइब्रेरी’ में फिर कभी एक रचनाकार से मुलाकात करेंगे. ■मेरी लाइब्रेरी में लगभग 1000 से अधिक रचनाकारों की कविता संग्रह संग्रहित है, जिसे फुर्सत के क्षणों में पढ़ता हूँ क्योंकि लिखने से ज्यादा मुझे पढ़ना अच्छा लगता है. ■देश प्रदेश और मेरे आसपास के रचनाकारों कवियों का ह्रदय से आभार,जो मुझे मेरी लाइब्रेरी संग्रहालय के लिए पुस्तक की एक प्रति भेंट करते हैं.
-प्रदीप भट्टाचार्य, संपादक 】
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