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■शोधपरख व्यक्तित्व और मानवीय मूल्यों के पक्षधर साहित्यकार डॉ. बलदेव साव.
■जन्मदिवस : 27 मई 1942
■निर्वाण दिवस : 6 अक्टूबर 2018
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■80 वीं जयंती 27 मई पर विशेष.
■आलेख,गणेश कछवाहा
[ सचिव छत्तीसगढ़ सांस्कृतिक केंद्र,जिला-रायगढ़, छत्तीसगढ़ ]
प्राकृतिक संसाधनों और विलक्षण प्रतिभाओं से समृद्ध छत्तीसगढ़ अंचल के गाँव ‘नरियरा’ जिला बिलासपुर (अब जिला जांजगीर चांपा हो गया है) का एक शख़्स जो सांस्कृतिक और पुरातात्विक विषयों पर अपनी शोधपरख विवेचनाओं , समीक्षाओं और विशद लेखों से राष्ट्रीय स्तर पर केवल प्रश्न ही खड़ा नहीं करता है वरन उस पर राष्ट्रीय बहस और विमर्श खड़ा कर उन तथ्यों को प्रमाणित प्रतिष्ठित और स्थापित भी करता है।जिसने राष्ट्रीय स्तर पर सांस्कृतिक वैभव के साथ छत्तीसगढ़ को स्थापित , सम्मानित व गौरवान्वित कराने में अपने संपूर्ण जीवन को कला,साहित्य और पुरातत्व की शोधपरख साधना में समर्पित कर दिया उस शख़्सियत का नाम है डॉ. बलदेव साव । जन्मदिवस – 27 मई 1942 निर्वाण दिवस 06 ऑक्टोबर 2018 .
ऐसे व्यक्तित्व के विरासत और धरोहर को समाज और सरकार को सहज कर उसे और अधिक समृद्ध करने की जरुरत है । समाजशास्त्रियों का यह स्पष्ट मानना है कि “ संस्कृति,सभ्यता, कला और साहित्य किसी भी समाज व राष्ट्र की आत्मा होती है । अगर यह नष्ट हो गया तो समझो वह समाज या राष्ट्र भी समाप्त हो जाएगा। उसकी अस्मिता और पहचान पूरी तरह से ख़त्म हो जाएगी।” सबसे बड़ा सवाल और चिंता इस बात की है कि डॉ. बलदेव साव की विरासत और धरोहर को संरक्षित और स्मृति को अक्षुण बनाने के लिए सरकार द्वारा अभी तक कुछ क्यों नहीं किया गया? आख़िर आने वाली पीढ़ी को हम क्याऔर कौन सा संस्कार या विरासत सौंपेंगे ?
एक सामान्य शिक्षक जो अपने अंचल की मिट्टी के एक एक कण की खोज करता , ढूँढता उसे जानने समझने की कोशिश करता , छोटा – बड़ा , ऊँच – नीच, जाति- धर्म, क्षेत्र, भाषा का कोई भेदभाव नहीं, केवल एक ही भाव होता एक ही दृष्टि होती “ मानव और उसकी प्रतिभा।” वे प्रतिभा की पहचान कर उसे तराशते और एक बेहतर शिल्प या प्रतिभा का निर्माण करते।एक अद्भुत विलक्षण प्रतिभा और कुछ करने की जिजीविषा डॉ. बलदेव साव को साहित्य ,कला , संस्कृति के मर्मज्ञ और पुरातत्वविद् के रूप में एक विशिष्ट स्थान पर पूरे सम्मान के साथ स्थापित करता है ।
देश की शायद ही कोई ऐसी प्रतिष्ठित साहित्यक पत्रिका या अख़बार होगा जो डॉ. बलदेवसाव के लेख , रिपोर्टताज, समीक्षा ,कविता या निबंध को प्रमुखता से स्थान देकर उनसे पत्र व्यवहार न किया करता रहा हो। स्थानीय स्तर के नवसृजित साहित्यकार से लेकर राष्ट्रीयस्तर के मुर्धन्य नामचीन साहित्यकारों सबके साथ वार्तालाप,आचरण और पत्र व्यवहार किया करते थे। देश के ख्यतिलब्ध मुर्धन्यसाहित्यकारों में प्रमुख रूप से हीरानंद सच्चिदानंद वात्सायन अज्ञेय,रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’, शिव मंगलसिंह ‘सुमन’ ,रामकुमार वर्मा, आचार्य विनयमोहन शर्मा,रामविलासशर्मा, नामवर सिंह,बालकवि वैरागी, गोपाल दास नीरज,विद्यनिवासमिश्र,रामनारायण शुक्ल, भीष्मसाहनी,नीरजप्रभाकर क्षोत्रिय, बनारसीदास चतुर्वेदी,धर्मवीरभारती,प्रमोद वर्मा,रमेश चंद्रशाह,कपिला वात्सायन अज्ञेय, प्रतिष्ठित चित्रकार भाऊ समर्थ,डॉ. प्रेम शंकर, भारतरत्न शहनाईनवाज़ उस्ताद बिस्मिल्ला खां साहब, कथक सम्राट पद्मविभूषण पंडित बिरजु महराज जी, मशहूर चरित्र अभिनेता ए के हंगल,आदि विभूतियों से अच्छा सम्बंध रहा।
सबसे पहले राष्ट्रीय पटल पर तब राष्ट्रीय बहस और विमर्श के केंद्र बिंदु पर आये जब डॉ. बलदेव पद्मश्री पंडित मुकुटधर पांडेय के काव्यसाधना पर काम कर रहे थे और मुकुटधर पांडेय को उन्होंने पहली बार छायावादके प्रवर्तक की संज्ञा से विभूषित किये और उनके शोधपरख लेख स्थानीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर के पत्रपत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित हुए । जबकि उस दौर में छाया वाद के कवियों की एक लम्बी सूची थी जिसमें प्रमुख नाम थे -जय शंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला,सुमित्रानंदनपंथ और महादेवीवर्मा ।
डॉ. बलदेव के सम्पादकीय से प्रकाशित पद्मश्री मुकुटधर पांडेय जी सबसे महत्वपूर्ण काव्य संग्रह “ विश्व बोध” को ही एक प्रतिनिधि काव्यसंग्रह मानी जाती है।
रायगढ़ कथक घराने तथा ऐतिहासिक गणेशमेला चक्रधर समारोह को राष्ट्रीय ख्याति दिलवाने में डॉ. बलदेव के लेखों का विशेष योगदान रहा। शास्त्रों और परम्परानुसार कथक के दो ही घराने माने जाते थे लखनऊ और बनारस लेकिन डॉ बलदेव के रायगढ़ कथक घराने पर विशद लेख ने संगीत जगत में काफ़ी बहस और विमर्श पैदा किया।प्रतिष्ठित संस्कृतिकर्मी और उच्च आइएएस अधिकारी श्री अशोक बाचपेयी, कथक सम्राट पद्मविभूषण पंडित बिरजु महराज,तथा तत्कालीन केंद्रीय संस्कृति सचिव कपिलावात्सायन जी सहित देश के कई ख्यतिलब्ध कथकाचार्यों ने भी काफ़ी सवाल बहस विचार विमर्श उत्पन्न किये।लेकिन डॉ बलदेव अपने लेख और तर्कों पर अडिग रहे। आज भी राष्ट्रीय अंतराष्ट्रीय मंचो पर कई कथक नृत्यंगनाओं व कथकाचार्यों द्वारा रायगढ़ कथक घराने के नाम से सफल कला प्रदर्शन किये जा रहे है।
साहित्य व संगीत के क्षेत्र के प्रारंभिक प्रतिभाओं से लेकर बड़े और प्रसिद्ध शख्सियतों से मिलकर उन्हें जानना समझना और खुद बहुत कुछ सीखने की कोशिश करना उनके शोध का एक हिस्सा हुआ करता था।छोटे बड़े सबको जोड़कर एक साथ लेकर चलने का काम करते थे जिससे वह परम्परा निरंतरता को प्राप्त करती चली गई। उन्होंने पुरानी सांस्कृतिक विरासत के साथ साथ वर्तमान सांस्कृतिक परम्परा को भी सहेजने का काम किया। छत्तीसगढ़ बनने के बाद छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक और पुरातात्विक महत्व को संग्रहित कर राष्ट्रिय पटल पर रेखांकित करने का सराहनीय काम किया।
सबसे पहले शारदा साहित्य सदन के प्रकाशन पर बहुत से साहित्यकारों को साहित्य जगत से परिचित कराया फिर सृजन सम्मान समिति और वैभव प्रकाशन के माध्यम से नए,पुराने और प्रतिष्ठित साहित्यकारों का पूरी ऊर्जा के साथ साहित्य की प्रथम पंक्ति में स्थापित किया। आज छत्तीसगढ़ के बहुत से साहित्यकार,संस्कृति कर्मियों,को हम डॉ बलदेव की भूमिका,संपादन, रचनाओं के संग्रहण, एवं प्रकाशन की विरासत से जान और समझ सकते हैं।उनकी प्रमुख रचनाएं है “वृक्ष में तब्दील हो गई औरत”, “विश्व बोध ”, “छायावाद और मुकुटधर पांडेय”, “रायगढ़ का सांस्कृतिक वैभव “ जनकवि आनंदी सहाय शुक्ल के व्यक्तित्तव और कृतित्व पर आधारित पुस्तक “ढाई आख़र”। इसके अतरिक्त उनके संपादन में प्रकाशित पुस्तकों की एक सुदीर्घ सूची है।
प्राप्त सम्मानों की भी एक समृद्ध और सुदीर्घ सूची है। वस्तुत सम्मान व सम्मान देने वाली संस्थाएं स्वयं गौरवान्वित होती थी।साहित्य के साथ साथ पुरातत्व के क्षेत्र में भाई स्व श्री अनुपम दासगुप्ता एवं स्व श्री अमिचंद अग्रवाल के साथ मिलकर काफ़ी काम किये। सिंघनपुर, कबरा पहाड़ के शैलचित्रों और आसपास के क्षेत्रों के पुरातत्व की खोजकर उसे संरक्षित और समृद्ध करने का सराहनीय कार्य किया गया ।
सागर वि. वि. के बी. ए, रविशंकर विश्वविद्यालय की कक्षा ए.एम. पाठ्यक्रमों में डाँ०बलदेव की किताबें रहीं ।गुरू घासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर के बी.ए में सहायक पुस्तक के रूप में(छायावाद और पंडित मुकुटधर पाण्डेय-लेखक डाँ०बलदेव) शामिल हैं।
उन्होंने इंग्लैड, बहरीन, ओमान तथा देश के प्रायः सभी बड़े शहरों की साहित्यकि यात्रायें भी की।
डॉ बलदेव बहुत सहज व सरल थे। राष्ट्रीय साहित्य परिदृश्य में काफी सम्माननीय व्यक्ति थे । उनसे वरिष्ठ और समकालीन साहित्यकारों से सीधे सरोकार था । राष्ट्रीय साहित्यिक एवं सांस्कृतिक मुद्दों पर उनका जिक्र और हस्तक्षेप अवश्य होता था। श्री मनहरण सिंह ठाकुर, जगदीश मेहर और मेरे साथ उनका केवल सांस्कृतिक मित्रवत संबंध ही नहीं था वरन बहुत अच्छे पारिवारिक रिश्ते थे। यदि सप्ताह में एक दो बार मेल मुलाकात या वार्तालाप न हो तो कड़ी शिकायत होती थी।वे स्वयं दफ़्तर या घर आ जाया करते थे । डॉ बलदेव वस्तुतः मानवीय मूल्यों के पक्षधर साहित्यकार थे। जिसमें सामाजिक सारोकार या मानवीय संवेदनाएँ न हो उसे वे साहित्य मानने से सीधे इंकार करते थे।उनकी पहली काव्य संग़्रह का शीर्षक ही बहुत कुछ बयां कर देता है “वृक्ष में तब्दील हो गई औरत” उनकी एक रचना “पंचमढ़ी” की कुछ पंक्तियाँ पाठकों के लिए यहाँ प्रकाशित कर रहा हूँ ~
“पंचमढ़ी : –डॉ बलदेव
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यह आदमी जब
जलती अंगीठी लेकर उठ खड़ा होगा
तब इन आलीशान मकानों का क्या होगा?
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यहाँ जितने लोग नहीं
उससे ज्यादा मकान हैं
अधिंकाश खाली हैं
बाहर पेड़ो के नीचे / सर्द अंधेरे में
हवाई पट्टी साफ करने वाले लोग
ठिठुर रहे हैं।
अँगीठी आग /
जलती आँखें इन्हें जिलाए रक्खी हैं
इस आग को आदमी ने
अपनी हड्डियाँ रगड़कर पैदा किया है।
जब ये लोग नहीं थे,
ये मकान नहीं थे, वह शहर नहीं था
तब भी यह आग थी
यह आग पहले पहाड़ों की सन्ध में
अंधी गुफाओं में सुलगती थी
और नीचे तलहटी में बाघ घूमता था
ताजे रक्त की गन्ध आती थी।
जब भी आदमी गुफा से बाहर होना चाहता
बाघ गरज उठता
आँधी आती और बिजलियाँ टूट पड़ती
बारिश घमासान हो जाती
सर्द अंधेरे की कुण्डली कसने लगती
और आग कंझाने लगती
अपना ताप अपनी चमक खोने लगती
और आदमी अपना लहू निचोड़कर /
फूँक मार कर
फिर उसे प्रज्जवलित कर देता।
इसी आग के सहारे एक दिन यहाँ तक चला आया था
और बाघ ताकता ही रह गया था।
दुनिया इसी आग के सहारे
नक्षत्रों की सैर कर आयी
लेकिन आग पैदा करने वाला आदमी
सर्द अंधेरे में सिकुड़ रहा है/ठिठुर रहा है।
यह आदमी जब
जलती अंगीठी लेकर उठ खड़ा होगा
तब इन आलीशान मकानों का क्या होगा?
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