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- ■मैं और मेरी लाइब्रेरी में : ‘ख़्वाबों की खुशबू’ [ कवयित्री शुचि ‘भवि’ ].
■मैं और मेरी लाइब्रेरी में : ‘ख़्वाबों की खुशबू’ [ कवयित्री शुचि ‘भवि’ ].
[ ●सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. त्रिलोकीनाथ क्षत्रिय और सुदेश क्षत्रिय की पुत्री हैं : शुचि क्षत्रिय ‘भवि’. ●’बक्शी सृजन पीठ-भिलाई’ द्वारा आयोजित ‘पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी जयंती समारोह’ में शुचि ‘भवि’ ने मुझे अपनी काव्य संग्रह ‘ख़्वाबों की खुश्बू’ आदरपूर्वक भेंट की. ●’मेरी लाइब्रेरी में हज़ारों पुस्तकों का संग्रह है, जो मुझे भेंट स्वरुप मिलते हैं. ●मैं पुस्तकों को सहेज कर तो रखता हूँ और फुर्सत के समय पढ़ता भी हूँ. ●शुचि ‘भवि’ की कृति ‘ख्वाबों की खुशबू’ को पढ़ा. ●इस काव्य संग्रह में 145 कविताएं संग्रहित हैं.
●एमएससी [इलेक्ट्रॉनिक गोल्डमेडलिस्ट] बीएड तक शिक्षा प्राप्त शुचि ‘भवि’ शिक्षण विभाग से जुड़ी रहकर साहित्य में भी निरंतर सक्रिय हैं. ●शुचि ‘भवि’ कहती हैं “जिससे हमें कुछ अच्छा सीखने मिलता है, चाहे एक छोटा बच्चा ही क्यों न हो, वो हमारा उस वक़्त का गुरु होता है”. ●शुचि ‘भवि’ अपने पिताश्री डॉ. त्रिलोकीनाथ क्षत्रिय ‘भापा’ को अपना प्रथम साहित्यिक गुरु,सखा और पथप्रदर्शक मानती है. ●’छत्तीसगढ़ आसपास’ के लिए आज़ ‘मैं और मेरी लाइब्रेरी से’ शुचि ‘भवि’ को पढ़ें -संपादक ]
■प्रदीप भट्टाचार्य को संग्रह भेंट करते हुए शुचि ‘भवि’
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♀ आज सोचा तो था
आज़ सोचा तो था
श्रृंगार लिखूँगी,
मुझे तुमसे है
प्यार लिखूँगी.
पर क्यों
शब्दों की परिधि में
बांध लूँ तुमको-खुदको ?
न तुम पुरुष हो-
न मैं हूँ नारी
क्यों तुम्हें
आवरण पहनाऊँ मैं
सज्जन,प्रेमी,पिता,भाई,दोस्त या
जहां तक सोच जाए
वहाँ तक का ???
क्यों तुम मुझे बाँधोगे
पत्नी,प्रेमिका, माता,बेटी,सखी या
समाज़ के नाम दिए किसी
बंधन में
समाज के लिए ???
हम ‘आत्म’ हैं
मौन पढ़ते हैं एक दूसरे का
सब घेरों से दूर
आकाश गंगावों के पार
अव्याहत गति से तैरते
कितनी ही बार मिल लेते हैं
समाहित हो लेते हैं
एक दूसरे में
पूरक हैं,
एक दूसरे के
वस्ल या हिज़्र का ये घेरा
हमारे लिए हैं ही नहीं…
बोलो न फिर
कैसे मैं भी
श्रृंगार लिख दुँ ???
मुझको तुमसे है
बेहद बेहद प्यार
लिख दुँ….●
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♀ सोचती हूँ कभी
सोचती हूँ एक कारागार बना डालूँ
मीठे लम्हों को आज़ मैं-
कैद कर डालूँ…
सोचती हूँ
एक अस्पताल बना डालूँ.
दुखती रगों का आज़ मैं-
इलाज करा डालूँ…
सोचती हूँ
एक कारखाना बना डालूँ.
तुझसे मिलता आज़ मैं
चेहरा बना डालूँ…
सोचती हूँ
एक पाठशाला बना डालूँ.
तेरी जीवन किताब को आज़ मैं
अक्षरशः पढ़ डालूँ
सोचती हूँ
एक मकान बना डालूँ.
साथ तुझे ले आज मैं-
घर बना डालूँ●
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■कवयित्री संपर्क-
■98268 03394
■shuchileekha@gmail.com
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