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■पुस्तक समीक्षा : ‘बदल रहा है हिंदुस्तान’ [काव्य संग्रह].

3 years ago
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♀ कविता संग्रह ‘बदल रहा है हिंदुस्तान’
♀ रचनाकार : नर्मदा प्रसाद साहू’नब्बू’
♀ संपादन : डॉ. विभा रानी साहू
♀ समीक्षक : डॉ. बलदाऊ राम साहू

कविता संग्रह “बदल रहा है हिंदुस्तान” नर्मदा प्रसाद जी साहू नब्बू की रचना समाज से बातें करती है. उनकी प्रत्येक रचना में एक तेवर दिखता है । सीधे सपाट बयानी, उनकी कविता की विशेषता है ।  एक शासकीय कर्मचारी होकर उन्होंने कविता के साथ पूरी ईमानदारी दिखलाई है। वे अपनी बात पूरे साहस,  निष्ठा और ईमानदारी के साथ कहते हैं। वास्तव में रचनाकार वही है जो समाज को निरपेक्ष भाव से देखता है और अपनी बातें कह देता है । मेरा मानना है कि रचनाकार को कबीर होना चाहिए । हम प्रायः देखते हैं कि बहुतायत रचनाकार आज भाट हो गए हैं। वे सत्ता के गलियारों के आसपास चक्कर लगाने में ही अपना समय जाया करते हैं और सत्ता और सत्तासीन लोगों की वीरदावली गाने में ही उन्हें मजा आता है। ऐसे रचनाकार राजाश्रय पाकर पुरस्कार तो पा सकते हैं, लेकिन लोक का मान कभी नहीं पा सकते। नर्मदा प्रसाद साहू जी की रचनाएं राष्ट्रप्रेम और आत्म गौरव का भाव लिए हुए हैं।  व्यवस्थाओं पर उन्होंने कड़ा प्रहार किया है, सामाजिक विसंगतियों पर भी अपनी कलम चलाई है और समाज को दिशा देने का प्रयास किया है। इसीलिए इस संग्रह की कविताएं समय सापेक्ष लगती हैं। बदल रहा है हिंदुस्तान शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियां मैं आपके समक्ष रखता हूं-
केवल निर्धन के खातिर अब हवन सजाए जाते हैं
कुटियों की नीलाम चढ़ाकर भवन बनाए जाते हैं
बचपन भूतों का शहजादा दूध बिना घनश्याम है
और अयोध्या की गलियों में भूखे फिरते राम है
दर दर फिरता आज बुढ़पा बना फकीरी  वेश है
भूखे  बेबस लाचारों की बस्ती सारे देश है
रिश्वतखोरी न्याय यहाँ पर घन सबका निर्णायक है
केवल कुछ सिक्कों के कारण बिकता यहां विधायक है

नर्मदा प्रसाद साहू की रचनाएं भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्थाओं की पोल खोलती दिखाई देती हैं।  वे अपनी रचनाओं में व्यवस्थाओं पर आक्रमण करते हैं, भ्रष्टाचार, दोगली मानसिकता, राजनीतिक षड्यंत्र, जैसी बातों को भी बड़ी बेबाकी से कहते हैं। उनकी कविता वास्तव में जनता की पीड़ा है। आम जनता आज जिस ढंग से रिश्वतखोरी और कुव्यवस्थाओं की शिकार है, वह रचनाकार को पीड़ा देती है और इसीलिए वह इन्हीं  भावों को  समाज के समक्ष रखते हैं।
समाजवाद  कविता  के अंश देखिए

काले शब्दों से बनती
जिनकी परिभाषा है
बेईमानी और पक्षपात
जिनकी धर्म भाषा है
तिरछी टोपी मारकर
दनदनाते हुए जो सजे हुए
मंचों पर आते हैं
और भाषण के अग्निबाण फेक जाते हैं
कहते हैं देश की गरीबी को मामूली सी रेखा समझकर
वे मिटायेंगे समाजवाद के बच्चे को
उनके कान पकड़कर
देश में लाएंगे ।
रचनाकार नर्मदा जी दोगले समाजवाद को निर्वस्त्र कर देते हैं आज समाजवाद के नारे लगाने वाले लोग जिस ढंग से सामंती जीवन जी रहे हैं, बात तो वे गरीबों की करते हैं परंतु भीतर अपने गिद्धों की दृष्टी रखते  हैं।
रचनाकार केवल कुव्यवस्थाओं की बात ही नहीं करता, वह आशावादी भी हैं इसीलिए वह लिखते हैं
नवयुग आंखें खोल रहा है

वर्तमान के घर तक चल कर स्वयं भविष्यत कल आएगा
युग का संयम टूट चुका है नवयुग आंखें खोल रहा है ।
नर्मदा प्रसाद साहू की कविताओं में राष्ट्रीयता है, राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावना है, आकांक्षा है, और उदात्त विचार भी हैं। उन्होंने आजादी की जो सपने देखे थे वैसी आजादी नहीं मिली इससे वे दुखी लगते हैं और दुखी होना स्वाभाविक भी है क्योंकि नर्मदा प्रसाद साहू के पिता और पितामह दोनों ही स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे हैं। निश्चय ही परिवार का भाव, विचार और संस्कार आने वाले पीढ़ी को मिलता है। यही कारण है कि वे अपनी आकांक्षाओं को इस तरह व्यक्त करते हैं –

मत करो
राष्ट्र की चादर मैली
सच कहूं
प्रगति के  खेत में
नासमझी के बीज बो रहे हो
जो कुछ हमने युद्ध के मैदान में
उत्सर्ग से पाया था
उसे मेज पर कागजों के
मार्फत खो रहे हो

उनकी कविताओं में समाज की विसंगति इस तरह आई है-
तिलक लगाते हैं माथे पर
माला लेते हैं हाथों पर
पूजा की करते तैयारी
मठ मंदिर के पुजारी
करते हैं पाखंड सभी
पाते मगर न दंड कभी
देवों के यह धर्मपूत हैं
ईश्वर के यह राजदूत हैं
बहुत अपार है इनकी महिमा
वक्त पड़े तो भेजे प्रतिमा ।

नेताओं के चरित्र पर तो वे सीधे-सीधे कह देते हैं –
सत्ताधारी नेता ने
भ्रष्टाचार और देश की
बिगड़ी हुई
अर्थव्यवस्था पर
भाषण दिया
और बदले में
किसी व्यापारी से
दो हजार की थैली का नजराना लिया ।
उनकी छोटी छोटी कविताएं, उनके मुक्तक बड़े ही प्रभावी हैं-वे लिखते हैं
बढ़ती महंगाई से
गरीब जनता यूं ही मर रही है
किंतु शासन
गरीबी हटाने का श्रेय
स्वयं ले रही है । एक मुक्तक
कर्म करो कुछ ऐसे
जग में नाम हो जाए
बजे नगाड़ा चहूँ ओर
हर तरफ नाम हो जाए।

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