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■कुछ ज़मीन से कुछ हवा से : विनोद साव.

3 years ago
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■पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

■ललित कुमार वर्मा

♀ बख्शी जी का मास्टर स्ट्रोक

हिंदी साहित्य में नई कहानी के दौर में कथाकारों की एक तिकड़ी बना ली गई थी. उसी समय में, हिंदी व्यंग्य की एक तिकड़ी घोषित कर दी गई थी. कविता में ऐसी कोई तिकड़ी बनाने की भरसक कोशिश हुई.. पर कविता के विराट संसार में कवियों की कोई तिकड़ी बना पाना दुष्कर काम सिद्ध हुआ इसलिए कई तिकड़ियाँ बनीं. बल्कि इन तिकड़ियों से पहले ही आधुनिक काल में हिन्दी निबंधों के विकास का जब तीसरा युग आया तब अनेक महामनों के बीच इस तीसरे युग में रामचंद शुक्ल, बाबू गुलाबराय और हमारे पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की एक तिकड़ी बन गई थी. यह शुक्ल युग जिसे निबंधों का उत्कर्ष काल माना गया. इस युग में विचार और आलोचना अपने उत्कृष्ट रूप में आई जिनमें विचारों की गंभीरता और भाषा शैली की प्रौढ़ता थी. इस तिकड़ी में निबंध लेखन में स्थान बख्शी जी के मास्टर स्ट्रोक से ही बन पाया था.

■ललित कुमार वर्मा, ईश्वर सिंह ‘दोस्त’,कनक तिवारी,रवि श्रीवास्तव, विनोद साव,डॉ. नलिनी श्रीवास्तव

उनका नाम आते ही लोग बोल पड़ते हैं कि ‘बख्शी जी बड़े सहज सरल इन्सान थे.’ सहजता उनके व्यक्तित्व के साथ ऐसे चस्पा हो गया था जैसे कोई पर्यायवाची शब्द हो. पुराने लोग बताते हैं कि ‘खैरागढ़-राजनांदगांव के इलाके में वे लोगों से सहजता से मिलते थे, सरलता से उपलब्ध हो जाते थे. धोती-बंडी पहने, पैरों में चट्टी पहने, बीडी फूंकते हुए साहित्य चर्चा करते हुए कहीं भी दिख जाते थे.’ यह सहजता इतनी कि वे अबौद्धिक भी करार कर दिए जाते थे. गोया बौद्धिकता किसी एटिट्यूड या टेढ़ेपन से आती है. श्रीलाल शुक्ल कहते हैं कि ‘अंग्रेजी में क्रिएटिव राइटर है यानि सर्जनात्मक लेखक, इंटेलेक्चुअल यानि मनीषी, एकेडमिशियन यानि विद्वान. ये तीनों बातें लाजिमी तौर पर एक नहीं है और ऐसा कोई कायदा भी नहीं कि जो इनमें से एक हो वह यह तीनों भी हो. पर किसी लेखक में ये तीनों बातें हों तो यह बड़ी उम्दा बात होगी. पर ऐसा अगर नहीं है तो मेरे सर्जनात्मक लेखन के नम्बर काटे नहीं जा सकते. मैं बिना मनीषी या विद्वान हुए एक अच्छा सर्जनात्मक लेखक हो सकता हूँ या होने की कोशिश कर सकता हूँ… और बख्शी जी ऐसा कर गए अपने सहज लेखन और रचनात्मक दृष्टि से. कहाँ सौ साल पहले के एक कस्बे खैरागढ़ के गुरूजी को कहाँ देश के सबसे बड़े साहित्य के गढ़ इलाहबाद में साहित्य की सबसे बड़ी पत्रिका ‘सरस्वती’ के संपादन के लिए बुलाया गया और उन्होंने वर्ष १९२० से १९२८ तक संपादन किया. इलाहबाद के अखाड़े में पंत, निराला जैसे कई धाकड़ लोगों के बीच अपनी क्षमता का लोहा मनवाया. यह खैरागढ़ के मास्टर बख्शी का साहित्य की पिच पर एक मास्टर स्ट्रोक था. सहजता ऊनकी शक्ति थी.

■उपस्थित बुद्धिजीवी श्रोता

उनकी भाषा बड़ी सहज थी. अपने समकालीनों के बीच उनकी खड़ी बोली एकदम मंजी हुई थी. प्रांजल और प्रसाद गुणों से युक्त उनकी भाषा पूरी तरह से पठनीय और संप्रेषणीय. मतभेदों के बावजूद भी हरिशंकर परसाई कहते थे कि “बख्शी जी को विश्व कथा साहित्य का बड़ा अध्ययन था.” अंग्रेजी रचनाओं का हिंदी में अनुवाद कर लेने के बाद भी उनकी हिंदी रचनाओं में अंग्रेजी के शब्द लगभग नहीं आते थे. हिंदी में उनकी भाषा प्रेमचंद जैसी निश्छल और साफगोई से भरी भाषा होती थी. दरअसल, आज हम प्रेमचंद और बख्शी जैसी आधुनिक खड़ी बोली में ही लिखना स्वीकारे हुए हैं.

उन्होंने साहित्य की कई विधाओं में लिखा पर निर्विवाद रूप से वे एक श्रेष्ठ निबंधकार माने गए. यह निबंध कौशल उनमें इतना प्रबल था कि वे जो कुछ भी लिखते थे वह अंततः निबंध का रूप ले लेता था. इसलिए उनके निबंधों को कई श्रेणियों में शामिल किया गया है, जैसे; कथात्मक निबंध, संस्मरणात्मक निबंध, विवरणात्मक निबंध या वैचारिक-सांस्कृतिक निबंध. यह प्रमाणित भी हुआ जब उनके समग्र लेखन को वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किया गया. उनके आठ खण्डों में पांच खंड निबंधों के हैं. इन्हें बख्शी जी की पोती डॉ.नलिनीं श्रीवास्तव ने सम्पादित किया है. इन निबंधों के बीच उनका एक संस्मरणात्मक निबंध है ‘रामलाल पंडित’ यह पहले-से उनके निबंध संग्रह ‘पंचपात्र’ में संगृहित है. इस निबंध में गाँव के मंदिर के एक ऐसे पुजारी का चरित्र है जिसे भक्तिकाल के अनाम गुमनाम ब्रज कवियों के गीतों, दोहों का दुर्लभ ज्ञान है. इनमें काव्य अंशों के अनेक अद्भुत उद्धरण हैं. पुजारी महराज अपने आसपास उभरते कवियों को इस विरासत से विमुख देखकर अवसाद से भर उठते हैं. बख्शी जी लिखते हैं कि “पंडित जी ब्रजभाषा के पक्षपाती थे. खड़ी बोली की कर्कशता उन्हें असह्य थी. पर मैं तो नवीनता का समर्थक था. काव्य साहित्य का ज्ञान न होने पर भी मैं खड़ी बोली की कविताओं को किसी प्रकार हीन मानने के लिए तैयार न था.” यह रचना एक युवा कवि और पुजारी के मध्य काव्यमय शास्त्रार्थ का शीतयुद्ध है जो निबंध के रूप में ‘क्लासिक’ श्रेणी में आ खड़ा हुआ है. अपनी युवावस्था में व्यंग्यकार रवीन्द्रनाथ त्यागी इलाहाबाद में बख्शी के संपादन कार्यकाल के साक्षी रहे हैं. वे लिखते हैं कि ”वे हिंदी के महानतम निबंधकार हैं. गुलेरी जी की ‘उसने कहा था’ कहानी की भांति, बख्शी जी का ‘रामलाल पंडित’ नामक निबंध उन्हें अमर रखने के लिए काफी है.” इस निबंध में लेखक की भावुकता, आत्मीयता तथा व्यंग्यपूर्ण प्रतिक्रिया का सुन्दर समन्वय है. यह निबंध के मैदान में बख्शी जी का क्लासिक स्ट्रोक है.

अपनी रचनाओं के निबंध में तब्दील हो जाने की कैफियत को बख्शी जी नि:संकोच देते हैं अपने भिन्न भिन्न आलेखों में, एक जगह वे कहते हैं “मैं स्वयं आख्यायिका लिखने की योग्यता नहीं रखता, तो भी मैंने कितने ही लेखकों को कथा का रहस्य समझाया है.” अपनी विनोदप्रिय शैली में वे यह बताते हुए स्वीकारते हैं कि “एक विज्ञ आलोचक का मानना है कि हिंदी को पाठकों की बड़ी आवश्यकता है.. उनकी यह युक्ति मेरे लिए प्रसन्नता की बात है कि कोई मुझे लेखक भले न माने पर मेरे पाठक होने के अधिकार को कोई छीन नहीं सकता. मेरे अच्छे पाठक होने के गौरव से मुझे वंचित नहीं कर सकता. मैंने लिखा भी पाठकों की तरह है.”

आज ‘सबले बढ़िया छत्तीसगढ़िया’ का नारा गूंजता है. बख्शी जी सौ साल पहले सबले बढ़िया हो गए थे. उनके ऐसे भाव भरे चिंतन और उनकी क्षेत्रीय सजगता को ध्वनित करते हैं उनके सामयिक आलेखों के ये शीर्षक- “छत्तीसगढ़ के कहानीकार, छत्तीसगढ़ के साहित्य सम्मलेन, छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी और छत्तीसगढ़ की आत्मा.” यह समय से पहले वैचारिक बौद्धिक धरातल पर उनका छत्तीसगढ़िया स्ट्रोक था. याद रहोगे मास्टर जी. (२७ मई’२०२२ को बख्शी सृजन पीठ, भिलाई द्वारा आयोजित बख्शी जयंती समारोह में दिए गए मेरे व्याख्यान का एक अंश).
०००
लेखक संपर्क मो. 9009884014

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