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■पुस्तक समीक्षा : ‘आगे से फटा जूता’ [रोजमर्रा के जीवन से मुठभेड़ करती कहानियां]
♀ ‘आगे से फटा जूता’
♀ लेखक : रामनगीना मौर्य
♀ समीक्षक : श्यामल बिहारी महतो
किसी लेखक की कृति पर कलम चलाना, इतना आसान नहीं होता,खासकर तब जब उस लेखक से आप कभी मिले न हों, उसके बारे पूर्व से कोई जानकारी न हो, वह किस विचारधारा के लेखक हैं, समाजिक जीवन में उनका ओढ़ना-बिछौना कैसा रहा है । मंचीय लेखक है या मजलूमों के बीच का है। ऐसी तमाम बातें मानस-पटल पर उठनी शुरू हो जाती हैं। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ । वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय रामनगीना मौर्य जी की किताब ” आगे से फटा जूता ” निबंधित डाक से मिली । यह उनका छठवां कहानी संग्रह है । जाहिर है किताब पढ़ने के लिए भेंट या भेजी जाती है
मैंने हर दिन एक कहानी पढ़ने का क्रम बनाया । जैसे-जैसे कहानियां पढ़ता गया, रामनगीना मौर्य जी का कथाकार व्यक्तित्व मेरे सामने उभरता गया। किताब पढ़कर जिस दिन समाप्त हुई, एक सशक्त कहानीकार के रूप में रामनगीना मौर्य मेरे सामने खड़े हो गए ।
जैसा कि परिचय से पता चला कि वह उतर प्रदेश सचिववालय, लखनऊ में विशेष सचिव के पद पर कार्यरत है । जहां काम करते हुए हर दिन आते-जाते लोगों के जीवन के कई रूपों से उनका साबका पड़ता होगा। जैसा कि मुझे ही कोलियरी आफिस में काम करते हुए दर्जनों मजदूरों से हर दिन मुलाकात होती है, यह अनुभव मेरे पास है। वही अनुभव, उनकी कहानियों में साफ परिलक्षित होता दिखाई पड़ता है ।
चाहे “ग्राहक देवता” हो, जिसमें सुखद समाजिक चित्रण है, धार्मिक न होने और प्रेम-भाव को महत्व दिया गया है, तो दूसरी ओर “पंचराहे पर” है, जिसमें मानव की भागम-भाग और ट्रैफिक का बढ़ता दबाव है। “लिखने का सुख” का जीवन में अपना महत्व है, जिसे खारिज नहीं किया जा सकता है। रूठने-मनाने का अपना ही एक मजा है । प्रेम का स्वाद हमेशा मीठा होता है ।
“उठ मेरी जान !” एक स्त्री का जीवन संघर्ष है, इच्छा है, चाहत है और अभिलाषा भी। अगर यह सब कुछ न हो, तो जीवन का होना न होने के बराबर है ।
इसी तरह “सांझ सवेरा”, संबंधों में मीठापन से मजबूती आ सकती है । कथ्य में मजबूती है।
“ढाक के वही तीन पात” यह एक कहावत है पर आज कल उच्च पदों पर बैठा व्यक्ति अपना रौब जमाने के लिए उल्टा-सीधा करते रहता है । यह हर आफिस में साफ देखने को मिल जाएगा।
आखिरी कहानी “आगे से फटा जूता” इसी नाम से संग्रह भी है, यह एक लम्बी कहानी है, और चर्चा की मांग करती है। कारण बीच-बीच में कहानी लड़खड़ाती भी है, पर अंततः संभल जाती है।
कुल मिलाकर देखा जाए तो संग्रह की सभी कहानियां समय के साथ मुठभेड़ करती दिखती है। आशा की जा सकती है कि सुधी समीक्षकों के बीच यह संग्रह भी सम्मान, स्थान पाएगी।
■श्यामल बिहारी महतो
■संपर्क-
■62041 31994
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