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- ■बादलों के साथ : विद्या गुप्ता [दुर्ग,छत्तीसगढ़].
■बादलों के साथ : विद्या गुप्ता [दुर्ग,छत्तीसगढ़].
♀ बादलों के साथ
तपी हुई धरती और सघन नीले आकाश में सहसा धीरे-धीरे घीरने लगते हैं…. कारे कारे कजरारे बादल…… हवा सहसा सम्मोहित सी ठंडी होकर बहने लगती है…. चारों दिशाओं मैं गुंजने लगते हैं मादल के माध्यम सुर, मस्त हाथी की तरह झूमते आंधियां उड़ाते पेड़ संदेश दे रहे है…… आषाढ़ आ रहा है….. तपन की गहरी खामोशी के बाद बादलों का सु मधुर गर्जन ध्वनि ऐसा लगता है पैरों में घुंघरू बांध कर दिशाएं वर्षा ऋतु की अगवानी कर रही हैं ।
परिवर्तन जहां मनुष्य मन को एक नई रवानगी, नया अनुभव, नई खुशी देता है वही इसकी आवश्यकता प्रकृति को भी होती है। तपती हुई ग्रीष्म ऋतु के बाद जब काले काले घन ठंडी हवा के साथ आषाढ़ का निमंत्रण लेकर आते हैं, मन परिवर्तन के इस आभास से ही सुकून से भर उठता है पानी की पहली फुहार….. तन से मन, धरती से आकाश और दसों दिशाओं को भींगो कर आश्वासन देती है…… सुकून आ रहा है
लो आ गई झमाझम बारिश ….. धरती आकाश हलचल से भर गये घर की बालकनी से जितनी बारिश मुझे दिखाई दे रही थी ऐसा लग रहा था हम अपनी व्यस्तताओं में ,अपने तनाव और निरर्थक आडंबरी दौड़ धूप में कभी प्रकृति का साहचर्य कर ही नहीं पाए न कभी मौसम से बातचीत की न उनके उत्सव में शरीक हुए … .. जरा बारिश हुई, बस चिंता शुरू- छाता, रेनकोट बारिश में दौड़ते हुए जाना और भागते हुए से आना उफ !!…… इसके अलावा हमने बारिश को देखा ही कितना है …..!! कूप मंडूक की तरह हमने देखी तो सिर्फ अपनी परेशानियां। मैंने अंदर की ओर मुड़ कर देखा…..!! दरो दीवार हैरान-परेशान घर के अंदर से बाहर और बाहर से अंदर तक शिकायत ही शिकायत, ..उलहाने;;;;;,… चिढ़ आक्रोश के मुकदमे चल रहे थे… उफ !! यह बारिश……!! कैसे कोई अपने काम निपटाए….. कैसे बाहर जाए…… कोई कह रहा था मुझे कोर्ट जाना है देर हो रही है..… कोई कह रहा था मुझे ऑफिस में देर हो गई कमबख्त पानी है कि रुकने का नाम नहीं ले रहा है…… बच्चे झुंझला रहे थे, कीचड़ बारिश में स्कूल कैसे जाएं…… बस भी अभी तक नहीं आई….. कामवाली बाई ने बरामदे में चढ़ते हुए पानी को आंचल से निचोड़ कर फेंका जैसे, पानी ने उसका शोषण कर लिया हो…. दूध वाले और पेपर वाले के सर पर भी सलवटे ही सलवटे थी।
झुंझलाहट, शिकायत, गुस्सा, धरपकड़, दौड़ भाग के इस एपिसोड के पूरे होने पर मैंने भी अपने युद्ध के हथियार डाल दिए और बचपन को साथ ले बाहर बालकनी में खड़ी हो बादलों के साथ उनके उत्सव में शरीक हो गई
वह देखो-जाने कहां से घुमड़ घुमड़ कर ऐसे चले आ रहे हैं बादल जैसे कोई राजा महाराजा की सवारी चली आ रही हो… बादलों की गड़गड़ाहट….. नगाड़े बजाते,….. गज गोटिया छोड़ते बादलों का आगमन।….. मस्त झूमते गजराज से भारी भरकम बादल….. कहीं घोड़े, ऊंट.. रथ जैसी आकृतियों में बादलों के बिखरे समूह, तो कहीं छोटे-छोटे पैदल दौड़ते बादलों के समूह…… बिल्कुल ऐसा ही दृश्य लग रहा था जैसे कोई समारोह हो रहा हो…..
तभी बारिश की बूंदों ने स्वागत गीत पढ़कर जैसे बारातियों पर फूलों की वर्षा कर रही हो… चमकती हुई बिजलियां …. जैसे कैमरे से लगातार फोटोग्राफी कर रही हो…हवाएं दिशा में चक्रवाती फुर्ती से घूमती बादलों का स्वागत सत्कार और व्यवस्था करने में दौड़-धूप मचाती हुई है घूम रही है….
बूंदे…. छोटी बड़ी कभी तेज और कभी धीमी होकर लगातार बरस रही है….. शायद सूरज की किरणों की छुट्टी थी, वह सब की सब जाने कहां छुपी आराम फरमा रही थी कि, आज पिछले तीन दिनों से एक भी दिखाई नहीं दी।। रोज-रोज सूरज के उगने से ढलने तक की क्रमबद्धता से ऊबे आकाश को आज सुरमई उजाला बड़ा रास आ रहा था ।पेड़ों की बस्ती में हरियाली का बड़ा त्यौहार मनाया जा रहा था। सारे छोटे-बड़े यहां तक कि गमले की तुलसी से लेकर गगनचुंबी वृक्ष राज तक सभी ऊपर से नीचे तक सजे धजे साफ-सुथरे और खुश नजर आ रहे थे। बड़ी-बड़ी शाखाएं गजराज की सुंड की तरह हवाओं में सूंड उठाकर अपनी खुशी जाहिर कर रही थी…. तो पत्तियों के हहराने से प्रकृति का सारा आंगन ऐसे मध्यम स्वर ध्वनि से गूंज रहा था जैसे द्वार चार के मंगल गीत बज रहे हैं ….. धरती के आंगन में ब्याह का मंडप लगने वाला हो….. मेघों के हरकारे ने खूब अच्छे से पानी छींट कर खूब हरी दूब की कालीन बिछा दी थी….. परजीवी लताएं पेड़ों के मोटे-मोटे तन पर अधिकार जताते हुए ऐसे ऊपर चढ़ उतर मचा रही थी जैसे उन्हें सर्वाधिक जल्दी है….. नीचे की ओर हाथ लटकाए पतली पतली शाखाएं हड़बड़ी मचाती, सबको इधर आइए इधर आइए इशारे करती हुई अत्यंत व्यस्त थी।
स्वयमेव झड़े हुए फूल फल और पत्तों ने ऐसी रंगीन छटा बिखेरी जैसे किसी सफल कलाकार ने रंगों के साथ दीप भी सजा दिये हो…… बिजली के तारों पर दौड़ती हुई बूंद जैसे खो खो खेल रही हो….. छतो के पाइप इस तरह से पानी फेंक रहे थे जैसे हर थोड़ी दूर पर छोटे-छोटे जलप्रपात हो…. पानी से भरी. सड़कों पर पानी की छोटी-छोटी
लहरें जो पानी की बूंदों के कारण फैलकर बड़े दायरों में फैल रही थी।….. गोरैया चोंच से एक दूसरे के पंख सवार कर अपनी खुशी जाहिर कर रही थी…… मजदूर बस्ती के वे बच्चे जिनके सर पर स्कूल नहीं थे…. जलबिहारी पक्षियों की तरह पानी में नाच रहे थे।
पिछले दो घंटों से बालकनी में खड़ी मैं बरखा उत्सव देखती रही….. बचपन फिर मचल उठा…मौसम की मस्ती मन को लुभाने लगी……. मन को बारिश को निमंत्रण मिला…… होठों बारिश का एक नगमा दोहराने लगे …. तन ने अंगड़ाई ली और मन मयूर झूम कर गा उठा….. ओ कारे कारे बादल….मतवारे बादल कहीं मत जा…..!!
■लेखिका संपर्क-
■91313 42684
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