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■7 जुलाई जयंती पर विशेष : रायगढ़ कत्थक घराना की अंतिम कड़ी पंडित फिरतूदास वैष्णव.

3 years ago
491

■आलेख-
■प्रो.अश्विनी केशरवानी

हमारे यहां संगीत के लिए सक्षम, संवेदनशील और सम्प्रेषणीय आलोचना भाषा अभी तक विकसित नहीं हो पायी है। संगीत और संगीतकारों पर गंभीर विचारणीय सामग्री का बेहद अभाव है। यद्यपि इधर बड़ी संख्या में संगीत के श्रोता बढ़े हैं जो समझ और जानकारी के साथ रसास्वादन करना चाहते हैं। छत्तीसगढ़ के उत्तर पूर्वी भाग में पूर्व रायगढ़ रियासत और स्व. राजा चक्रधर सिंह का नाम भारतीय संगीत और कत्थक नृत्य के क्षेत्र में विशिष्ट स्थान रखता है। राजसी ऐश्वर्य, भोग विलास और झूठी प्रतिष्ठा की लालसा से दूर उन्होंने अपना जीवन संगीत, कला और साहित्य को समर्पित कर दिया। फलस्वरूप 20 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में रायगढ़ दरबार की ख्याति कत्थक नृत्य के क्षेत्र में समूचे भारत में विख्यात है। ऐसी बात नहीं है कि चक्रधर सिंह के पहले यहां संगीत और कला के प्रति झुकाव नहीं था ? राजा मदनसिंह और राजा घनश्यामसिंह संगीत के केवल प्रेमी ही नहीं बल्कि अच्छे जानकार भी थे।वे एक अच्छे मृदंग वादक भी थे। उन्होंने अपने तीसरे पुत्र को बनारस भेजकर मृदंग और पखावज की ऊंची शिक्षा दिलायी थी। उनके दूसरे पुत्र लाला नारायण सिंह मृदंग और तबला के अच्छे जानकार थे। राजा भूपदेवसिंह जिस तरह योग्य शासक और प्रजा वत्सल थे, वैसे ही संगीत के प्रति रूचि भी रखते थे। यों तो रायगढ़ दरबार में संगीत की प्राचीन परंपरा रही है लेकिन उसका पूर्ण विकास राजा चक्रधरसिंह के राज्य काल हुआ। उन्हें संगीत विरासत में मिला था। उनके चाचा लाला नारायणसिंह उनके प्रेरणास्रोत थे।
कहा जाता है कि राजा जुझारसिंह ने अपने शौर्य और पराक्रम से राज्य को सुदृढ़ किया और राजा भूपदेवसिंह ने उसे श्री सम्पन्न किया लेकिन राजा चक्रधरसिंह ने उसे संगीत, नृत्य कला और साहित्य के क्षेत्र में प्रसिद्धि दिलायी और आज लखनऊ, बनारस और जयपुर जैसे कत्थक घराने के साथ ‘‘रायगढ़ घराने‘‘ का नाम भी जुड़ गया। सन् 1924 में बड़े भाई राजा नटवरसिंह के असामयिक निधन से उन्हें राजगद्दी पर बैठना पड़ा। इसके बाद उनका ज्यादातर समय संगीत, नृत्य कला और साहित्य में व्यतीत होने लगा। वे प्रदेश के प्रतिभावान कलाकारों को रायगढ़ बुलवाकर उत्कृष्ट संगीतकारों से शिक्षा दिलाते थे। अपनी कला की इज्जत देकर कलाकार स्वयं रायगढ़ खींचे चले आते थे। उस समय जिन चार कलाकारों को रायगढ़ दरबार में रखकर नृत्य संगीत की शिक्षा दीक्षा हुई और जिन्होंने अपनी नृत्य कला के प्रदर्शन से रायगढ़ घराना को राष्ट्रीय पटल पर प्रसिद्धि दिलायी। उनमें फिरतूदास वैष्णव भी थे। अन्य तीन कलाकारों में कार्तिक महाराज, प्रो. कल्याणदास और बर्मनलाल थे। संयोग है कि चारों कलाकार नवगठित जांजगर चांपा जिले के थे।
बचपन से नृत्य के प्रति झुकाव होने के कारण गांव की नाटक मंडली और गम्मत मंडलियों में बालक फिरतूदास नृत्य किया करते थे। वे तत्कालीन बिलासपुर (वर्तमान जांजगीर चांपा) जिलान्तर्गत बुंदेला ग्राम के श्री त्रिभुवनदास के पुत्र थे। वे गांव के मंदिर में पुजारी थे। 07 जुलाई 1921 को जन्में फिरतूदास को ऐसे ही एक गम्मत में नृत्य करते देख राजा चक्रधरसिंह 1929 में उन्हें रायगढ़ ले आये और आगे की शिक्षा दीक्षा रायगढ़ में उत्कृष्ट संगीत और नृत्य गुरूओं के बीच हुई। 1933 में पहली बार इलाहाबाद म्यूजिक कान्फ्रेन्स में भाग लिया और उत्कृष्ट प्रदर्शन करके रातों रात प्रसिद्ध हो गये। वे नृत्य अंग अर्थात् बोल परन के निष्णात कलाकार के रूप में जाने गये।

छत्तीसगढ़ के पूर्वांचल जिला मुख्यालय और तत्कालीन फयूडेटरी स्टेट रायगढ़ के महल के पास एक टपरे जैसे मकान जिसमें रायगढ़ दरबार में अपनी नृत्य कला का प्रस्तुति के लिए आने वाले कलाकार रूका करते थे जिसे सराय कहा जाता था, में रह रहे कत्थकाचार्य पंडित फिरतू महाराज की कहानी बड़ी अजीबोगरीब है। अस्वस्थ रहकर भी अपने गुरूओं के ऋण से उऋण होने तथा अभिनय संसार में नई पीढ़ी को तैयार करने में लीन हैं। इस कार्य में पुत्र राममूर्ति वैष्णव, पुत्री बासंती वैष्णव और पौत्र सुनील वैष्णव सहयोक कर रहे हैं। किशोरवय बच्चे उनसे कत्थक नृत्य की शिक्षा ग्रहण करके देश विदेश में रच बसकर प्रचार प्रसार में लगे हैं। मगर स्वयं अपने अतीत की मधुर स्मृतियों को संजोये हुए हें। इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि ऐसी महान विभूति का हम उपयोग नहीं कर सके। यह अलग बात है कि हर साल आयोजित होने वाले चक्रधर समारोह में उन्हें स्मरण कर लिया जाता है। एक समय ऐसा भी था जब रायगढ़ के इस कला साधक को अनेक देशी राज दरबारों में विशेष तौर पर आमंत्रित किया जाता था। एक बार का वाकिया वे बताते हैं-‘‘मैने नेपाल दरबार में अपनी कत्थक नृत्य प्रस्तुत किया। मेरा नृत्य देखकर नेपाल के महाराजा इतने प्रसन्न हुए और मुझे अपने दरबार में रख लिए। इस बात की जानकारी जब राजा चक्रधरसिंह को हुई तो उन्होंने तत्काल पत्र लिखकर मुझे रायगढ़ बुलवा लिए।‘‘ वे अक्सर कहा भी करते थे कि ‘‘कार्तिक-कल्याण मेरी आंखें हैं और फिरतू-बर्मन मेरी भुजाएं। इन्हें मैं किसी भी कीमत पर अपने से अलग नहीं कर सकता।‘‘ उनके इस कथन से कलाकारों के प्रति राजा चक्रधरसिंह की कला प्रियता प्रदर्शित होती है।
राजापारा स्थित राजदेवी मां समलेश्वरी देवी मंदिर के समीप केलो नदी के तट पर कलाकारों के लिए बने सराय के एक छोटे से कमरे में मेरी उनसे मुलाकात होती है। ठंड का मौसम फिर भी पसीने की बूंदें अपने चेहरे से पोंछते हुए मेरा स्वागत करते हैं। दो छोटे छोटे कमरे, छोटा सा आंगन, रसोई से लगा उनके सोने का कमरा। उसी में दो कुर्सी रखी है जिसमें बिठाकर मैंने उनसे बातचीत की। आश्चर्य और प्रश्न सूचक निगाहें जो बार बार मेरी ओर उठकर झुक जाती है, मानों कह रही हो-‘‘क्या चाहिए मुझ गरीब, अस्वस्थ कत्थक आचार्य से …।‘‘
मैंने अपना परिचय एक लेखक के रूप में देकर उनसे उनकी नृत्य शैली के बारे में जानकारी हासिल करने की बात कही। पहले तो वे कुछ भी बताने से साफ इंकार कर दिये। बड़ी मुश्किल से मैंने उन्हें विश्वास में ले सका। उन्होंने मुझे बताया कि एक बार आपके जैसे लेखक मुझसे मेरी नृत्यशैली पर पुस्तक लिखने के बहाने सारी जानकारी ले गये और जब मुस्तक छपी तो उसमंे मेरी नाम तक नहीं था। इसीलिए मुझे बडर लगता है। बहरहाल वे मुझे जानकरी देने के लिए राजी हो गये।
भारत के परम्परागत शास्त्रीय नृत्यों की श्रृंखला में कत्थक नृत्य का महत्वपूर्ण स्थान है। किंतु जैसा कि श्री केशवचंद्र वर्मा ने लिखा है- ‘‘विगत शताब्दियों में यह नृत्य जिस रूप में राज्याश्रय के माध्यम से उभरा, उसमें लोक रंजन पक्ष का प्रतिनिधित्व ही अधिक था जिसके परिणाम स्वरूप धीरे धीरे लोगों की यह धारणा सी बन गई कि यह भारतीय नाचा का निकृष्टतम उदाहरण है जो वैभव सम्पन्न मुस्लिम शासकों के प्रश्रय में पनपा है। इस भ्रामक धारण को बनाने में तत्कालीन नर्तक समाज का बहुत बड़ा योगदान रहा है। वस्तुतः कत्थक नृत्य अपने सम्पूर्ण व्यक्ति बोध के लिये कत्थक शब्द पर ही अवलंबित है। संस्कृत, पाली , नेपाली भाषा साहित्य और शब्दकोष कत्थक शब्द को मुख्यतया तीन विशेषताओं से आबद्ध करती है-कथा, अभिनय और उपदेश। यदि इन तीनों विशेषताओं को ग्रहण किया जाये तो कत्थक शब्द का अर्थ इस रूप में प्रकट होगा कि कत्थक वह व्यक्ति विशेष है जो लोकोपदेश के लिए अभिनय के माध्यम से कथा प्रस्तुत करे।‘‘
एक प्रश्न के उत्तर में फिरतूदास कहते हैं कि कत्थक नृत्य से मेरा आत्मिक संबंध है। जब से मैंने होश संभाला है, तभी से मैं इसमें रच बस गया हंू। मुझे संगीत सम्राट और राजा चक्रधरसिंह ने बहुत स्नेह और दुलार दिया। उनके आशीर्वाद का ही प्रतिफल है कि परम आदरणीय अच्छन महाराज और पंडित जयलाल महाराज से मुझे शिक्षा मिली। इसका मुझे शुरू से ही गर्व रहा है। देश के चोटी के कत्थक नर्तकों ने भी मुझे उच्च शिक्षा दी और जो कुछ भी मेरे पास है, उन्हीं का दिया हुआ है। गुरूओं का ऋण मेरे उपर है, इसका मुझे हमेशा ख्याल रहता है। इसीलिये जहां कहीं भी अवसर मिलता है, मैं उनका दिया अन्यों में बांट देने में सुख मानता हंू।
राजा चक्रधरसिंह बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनके संरक्षण में कत्थक का अदभुत विकास हुआ है। देशभर के श्रेष्ठ कलाकार यहां आये, रहे और अपनी कला का आदान प्रदान किया। कत्थक के आचार्य यहां इसलिये खींचे चले आते थे कि का राजा बड़ा गुणग्राही था और संपर्क-प्रसार से ही उनकी कला का विकास हो सकता था। अच्छन महाराज और जयलाल महाराज जैसे कत्थक नर्तक यहां बरसों रहे। इसके अतिरिक्त जयपुर, लखनऊ और बनारस के प्रायः सभी नर्तक यहां आकर अपनी कला का प्रदर्शन किये। यही कारण है कि राजा चक्रधरसिंह के संरक्षण में एक अभिनव शास्त्रीय नृत्य शैली का विकास हुआ जिसे ‘‘रायगढ़ कत्थक घराना‘‘ के नाम से ख्याति मिली। इस शैली का अनुकरण देश के प्रायः सभी कत्थक नर्तकों ने किया। इसमें राजा चक्रधरसिंह द्वारा प्रणीत बोल परनों का प्रदर्शन विशेष रूप से होता है। यहां के बोल परन काव्यात्मक और ध्वन्यात्मक होता है। वे मात्र तत्कार के बोल नहीं बल्कि तबला से भी उतनी सुगमता से निकाले जा सकते हैं जितने घुघरूओं से। कत्थक नृत्य में तबला और घुघरूओं का बराबर का काम होता है।
कत्थक का वाचिक अर्थ होता है-कथा कहने वाला। कथा शब्द से ही कत्थक की उत्पत्ति हुई है। लेकिन मुगल काल से आज तक कत्थक शब्द नृत्य विशेष के लिये प्रयुक्त होता रहा है। ब्रह्मपुराण और नाट्य शास्त्र में भी कत्ािक शब्द का प्रयोग हुआ है। 13 वीं शताब्दी के ग्रंथ संगीत रत्नाकर के नृत्याध्याय में कत्थक शब्द का उल्लेख है। उनके लिये विधावन्त और प्रियवंद जैसे विशेषण भी प्रयुक्त हुए हैं। वैदिक काल में जो शास्त्रीय नृत्य था और जिसका विकास गुप्तकाल तक होता रहा, उससे कत्ािक नृत्य का सीधा संबंध है। मुगलों के आक्रमण से भारतीय संस्कृति और कलाओं को गहरा धक्का लगा था। पहले कत्थक कहलाने वाले ‘‘भरत‘‘ कहलाते थे। देव मंदिरों में पूजा के बाद वे कथा गान के साथ नृत्य किया करते थे। धार्मिक असहिष्णुता के कारण जब मंदिर भी उजड़ने लगे तो इन भरत लोगों को छोटी जाति के लोगों और गणिकाओं को नृत्य की शिक्षा देने के लिए मजबूर होना पड़ा। इससे वे हिन्दू समाज में भी हेय समझे जाने लगे। 18 वीं शताब्दी के लगभग इनका संपर्क हण्डिया में रहने वाली जाति से हुआ। वे जब इस नृत्य को पेशे के रूप में अपनाने लगे तो इस प्राचीन शास्त्रीय नृत्य का नाम बदलकर ‘‘कत्थक‘‘ हो गया। वास्तव में कत्थक नृत्य ताल और लय पर आधारित है। हाव भाव और मुद्रायें उसे पूर्णता प्रदान करती है। कत्थक की परम्परा कितनी पुरानी है, इसका अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि कत्थक में मृदंग और बीन प्रमुख वाद्य यंत्र है। तांडव और लास्य इसी नृत्य के अंतगत आते हैं जिसका सीधा सम्बंध शिव पार्वती और श्रीकृष्ण से है। महापुराण महाभारत और नाट्यशास्त्र में व्यवहृत कत्थक शब्द भी उसकी प्राचीनता को सिद्ध करते हैं।
नृत्य को स्पष्ट करते हुए फिरतू महाराज कहते हैं कि संगीत में नाट्य, नृत्त और नृत्य तीन शब्द प्रचलित है। भावों को अभिनय के द्वारा प्रस्तुत करना नाट्य है। ताल और लय के साथ पैर हिलाना नृत्त है और नाट्य तथा नृत्त का समावेश अर्थात् जहां हाथ और पांव के संचालनके साथ ही भावाभिनय ताल और लय में आबद्ध हो उसे नृत्य कहते हैं। कला में भावों के महत्व को स्पष्ट करते हुए फिरतू महाराज बताते हैं कि मनुष्य एक भावनाशील प्राणी है। वह अपने आसपास के वातावरण में जो कुछ भी देखता सुनता है, उसकी प्रतिक्रिया उसके हृदय में अवश्य होती है। किसी वस्तु को देखकरया सुनकर मन में उठने वाले विचार ही भाव है। आचार्यो के इन्हीं भावों को ‘कला‘ कहा जाता है। ‘भावाविष्करण कला‘, चित्रकार अपने चित्र द्वारा और संगीतज्ञ अपनी स्वर लहरियों के द्वारा अपनी भावनाओं का ही प्रदर्शन करते हैं। एक प्रश्न के उत्तर में वे कहते हैं-‘कत्थक नृत्य अपने प्रस्तुतिकरण में जितना स्वतंत्र है, कदाचित् उतनी कोई दूसरी नृत्य शैली नहीं कत्थक है। प्रत्येक कत्थक नर्तक अपने अलग अंदाज में नृत्य आरंभ करता है और अपनी रूचि के अनुसार उसका संयोजन करता है।‘
कला और कलाकार की स्थिति के बारे में उनका कहना है कि भारत में कलाओं को सदा श्रद्धा और सम्मान की दृष्टि से देखा गया है। हमारे यहां कलाओं को मात्र मनोरंजन का साधन समझा जाता है भारतीय कला साधकों ने भी कहा है:-
विश्रान्तिर्यस्य सम्भोगे सा कला न कला मता।
लीयते परमानन्दे ययात्मा सा परा कला।।
अर्थात् जिसका उद्देश्य भोग या मनोरंजन है वह कला नहीं है। जो कला परमानंद में लीन कर दे वही सच्ची कला है। मगर आज कला का उपयोग व्यावसायिक रूप में होने लगा है, और मेरी नजर में यह उचित भी है। क्योंकि कल तक राजा महाराजाओं के संरक्षण में कला की साधना होती थी तब परिवार का भरण पोषण राजकोष से होता था। रियासतों के भारतीय गणराज्य में विलीनीकरण के परिणाम स्वरूप कलाकारों को अपनी कला का व्यावसायीकरण करना पड़ा। मगर आज भी हमारे जैसे कुछ ऐसे समर्पित कलाकार मौजूद हैं जिसका परिणाम आज उन्हें भुगतना पड़ रहा है। अपनी अस्वस्थता का जिक्र करते हुए कहते हैं कि मैंने अपने इलाज हेतु कई बार शासन से गुहार लगायी मगर कुछ भी हासिल नहीं हुआ। आज स्थिति यह है कि शासन से जो वजिफा मिलता था वह भी बंद हो गया है। अब तो आंख और कान भी कमजोर हो चले हैं, श्वांस चढ़ जाती है। मैं यही सोचकर संतोष कर लेता हंू कि आज मेरे शिष्य देश विदेश में मेरी नृत्य शैली का प्रचार कर रहें हैं ? … और 29 नवंबर 1992 कोें वे चिर निद्रा में लीन हो गये।

■संपर्क-
■94252 23212

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