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■व्यंग्य : शुचि ‘भवि’.
♀ थक गई हूँ मैं
अचानक शांत हॉल में ज़ोर ज़ोर से आवाज़ आने लगी
बस करो बस
थक गई हूँ मैं
माइक की ओर बढ़ रहा वक्ता ठिठक कर रुक गया और सब तरफ़ देखने लगा कि अभी तो उसने सबके मोबाइल भी साइलेंट करवाए थे फिर अचानक ये कौन चिल्लाया?
कोई नज़र नहीं आया तो वह डाइस पर जाकर माइक एडजस्ट करने लगा।
जैसे ही उसने माइक चालू किया दोबारा वही आवाज़ आयी।प्रथम पंक्ति से आ रही थी आवाज़ मगर सब चुप थे।एक महिला उठ कर कुर्सी बदल रही थी और अपने जानने वालों को पीछे से आगे आने का इशारा मात्र कर रही थी।
इधर उधर क्या देख रहे हो सब लोग
मैं बोल रही हूँ
अभागन कुर्सी, जिसकी क़िस्मत में आज ज्ञान गंगा का स्नान नहीं लिखा।
जब से कार्यक्रम शुरू हुआ है, न मालूम कैसे कैसे ग़ैर श्रोता मुझपर बोझ बन रहे हैं।कभी मोबाइल पर मैसेज करते हैं, कभी फोन पर बात, कभी पड़ोसी से बात, कभी फोटो खींचने के लिए मुझे हिलाते, कभी मुझपर बैग पटक कर जाते हैं, कभी बैग लेने आते हैं, कभी किसी और को पीछे से बुलाकर मुझपर बैठाते हैं, कभी मुझपर बैठने के लिए लड़ जाते हैं। अरे मुझे कोई उठा कर आख़िरी पंक्ति में रख आओ न, कम से कम चैन से विचारों को सुन तो पाऊँगी कि मैं थोड़ी नाश्ता बटोरने और चाय पीने और फ़ोटो खिंचवाने की लालसा से यहाँ आयी हूँ।
■संपर्क-
■98268 03394
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