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■लघुकथा : विद्या गुप्ता.
♀ गरीब
साड़ियों के विशाल शोरुम में बैठी मिसेस कल्पना कोठारी बे मन से सारी दुकान में नजर घुमाते हुए इशारा कर रही थी वह बताना…. वह नीली, नहीं उसके पास की ऑरेंज , नहीं वह ऊपर की सिल्क, बनारसी, शिफान, वह भी नहीं….. कोई और ऊंची….!!
दरअसल उनका मन कुछ और सोच रहा था… कहीं और भटक रहा था दुकानदार उनके मन की पसंद को पढ़ने की कोशिश करते हुए, अलमारी से साड़ियों के ढेर लगा रहा था… वह जानता था अगर कल्पना जी को साड़ियां पसंद आ जाती है तो लाख 50 हजार की ग्राहक है। मगर कल्पना की बेचेन उबी हुई नजर शो रूम के ठीक सामने फुटपाथ पर गुमटी नुमा दुकान को देख रही थी, जहां मुश्किल से पंद्रह बीस साड़ियां लकड़ी के तख्त पर फैलाएं दुकानदार अपने ग्राहकों साड़ियां बता रहा था ।
एक ग्राहक पति पत्नी बड़े तन्मय होकर साड़ियां देख रहे थे । पति एक एक साड़ी को उठाकर पत्नी के कंधे पर फैलाता उसे हर एंगल से देखता, फिर किसी दूसरी साड़ी को पत्नी के रंग और कद से मैच करता दिखाई जा रहा था । कल्पना बड़ी मुग्धता से पति पत्नी के क्रिया कलाप को देख रही थी और तोल रही थी ,अपने जीवन के रेगिस्तान से उनके मनुहार, अनुराग भरे सच को ।पति ने एक धानी रंग की साड़ी पत्नी के सिर से कंधे तक फैला दी और फिर छोटा सा शीशा जो उस गुमटी का शो केस था ,में पत्नी को चेहरा दिखाया
पत्नी भी खुशी से चहक ऊठी, हां हां जी यही ले लेते हैं बहुत सुंदर लग रही है
कल्पना वर्तमान को ठेलती, जीवन के 25 वर्ष पिछे जा कर खंगाल.. आई ……शायद ही कोई पल इतने करीब से गुजरा हो.. पति लालचंद कोठारी सफल व्यापारी थे पैसों के पहाड़ लगा दिए… लेकिन…..!!
….….लेकिन प्यार मनुहार या अनुराग की कोई खुशबू को कभी महसूस नहीं किया… समझाना चाहा तो जवाब था पैसे से चाहो तो बाजार खरीद लो।
कल्पना कोठारी की मुट्टिया भींच गई आवेश में थरथरा उठी उसे अपनी शक्ल सूख चुके ठूंठ की तरह बेजान और और दयनीय लगी।
कल्पना ने फिर मुड़कर फुटपाथ वाली दुकान की ओर देखा पति पत्नी के साथ सट कर खड़ा हो आईने में अपने सुख के वैभव को देख रहा था जो करोड़ों की मालकिन गरीब कांता के पास नहीं था
■लेखिका संपर्क-
■96170 01222
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