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कुछ जमीन से कुछ हवा से : विनोद साव
▪️ हिन्दी व्यंग्य के ओ. हेनरी थे ‘ लतीफ़ घोंघी ‘
पिछले दिनों हिन्दी व्यंग्य के दो धाकड़ व्यक्तित्वों का दुर्ग आगमन हुआ- एक ज्ञान चतुर्वेदी और दूसरे प्रेम जनमेजय. दोनों ने अपने कार्यक्रमों से इतर घर आकर भी अपने अपने ढंग से अपनी उपस्थिति का एहसास कराया. ज्ञान जी के साथ व्यंग्य के कार्यक्रम में बिलासपुर जाना भी हुआ था. प्रेम जी व्यंग्य के कार्यक्रम में भिलाई पधारे थे. उन्ही दिनों ज्ञान चतुर्वेदी का व्यंग्य संग्रह ‘अलग’ को पढ़ रहा था इसमें उनके इंडिया टुडे में छपे स्तम्भ की रचनाओं का संकलन है. इस संग्रह को उन्होंने हिन्दी व्यंग्य के जनप्रिय व्यंग्यकार लतीफ़ घोंघी को भी समर्पित किया है।
उस संग्रह में कृष्ण चराटे और लतीफ़ घोंघी को बहुत आदर पूर्वक समर्पित करते हुए ज्ञान चतुर्वेदी ने यह लिखा है कि “हिन्दी व्यंग्य और हास्य के दो महत्वपूर्ण परन्तु ‘अनसंग हीरोज’ जो इतने भोले रहे कि मानते थे कि मात्र बहुत अच्छा हास्य, व्यंग्य लिखकर ही वे हिंदी व्यंग्य में वह स्थान पा लेंगे जिसके वे हक़दार थे, पर ऐसा कहीं होता है भला.” इन शब्दों में समर्पण से किसी लेखक के मूल्यांकन को लेकर एक आवाज तो उठती है.
प्रेम जनमेजय भी लतीफ़ घोंघी स्मृति प्रसंग में आए थे. यह आयोजन पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी सृजन पीठ-भिलाई ने किया था. बख्शी जी खुद हिंदी के बड़े निबंधकार रहे जिनकी रचनाओं में व्यंग्य-विनोद ध्वनित होते चलता था. उनकी एक व्यंग्यात्मक टिप्पणी है कि “वर्तमान काव्य-साहित्य या कथा-साहित्य ऐसा आधुनिक हो गया है कि उनसे कितने ही आधुनिक लेखक भी पृथक हो गए हैं.” साथ ही छत्तीसगढ़ हिंदी साहित्य सम्मलेन में अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में बख़्शी जी ने किंचित व्यंग्य से यह भी कह दिया था कि “छत्तीसगढ़ के लोगों में साहित्य के प्रति इतना अधिक अनुराग है कि वे सम्मलेन के लिए सदैव व्यग्र रहते हैं.” यह व्यग्रता प्रेम जनमेजय को भी दिखी और निजी तौर पर मुझसे भी उन्होंने कहा कि ‘यहां लोगों में आपके प्रति बड़ा मान और प्रेम दीखता है.”
व्यंग्य के प्रति यह मान और प्रेम बख्शी सृजनपीठ के अध्यक्षों में दिखा. पीठ के पहले अध्यक्ष प्रख्यात आलोचक प्रमोद वर्मा ने तो १९९९ के पहले आयोजन के निमंत्रण पत्र में ही व्यंग्य की क्षमता को खंगालते हुए यह उद्घोषणा कर दी थी कि “व्यंग्य लेखन इन दिनों हमारे यहां बहुत लोकप्रिय हो चला है. परम्परानुमोदित साहित्य रूपों में उसे अलग और स्वतंत्र विधा ठहराया जाए या मान्यता प्राप्त साहित्य-रूपों में उसे परिगणित किया जाए? व्यंग्य क्या हास्य की संतान है? यदि हाँ तो औरस या दत्तक? या संतान न होकर वह हास्य का प्रतिवेशी है? वह स्पिरिट है या विधा? यदि स्पिरिट है तो क्या वह एकदम ही अव्याख्येय है और यदि उसने इस बीच विधा का दर्जा हासिल कर लिया है तो किन लक्षणों के आधार पर अन्य साहित्य-रूपों से उसकी अलग पहचान बनती है? अब हमारे यहां व्यंग्य नाम से पर्याप्त रचनाएँ प्रकाशित हो गई हैं इसलिए हम समझते हैं इन और ऐसे प्रश्नों पर विचार करने का समय आ गया है. शास्त्र रचना का अनुगमन करते हैं रचनाएँ शास्त्र का नहीं. शास्त्रज्ञ अपनी सुविधा के अनुसार और अपने ढंग से यह काम चाहे जब करें यह सृजनपथ सृजनरत व्यंग्य-लेखकों को व्यंग्य के आलोचना-शास्त्र पर रचना-केन्द्रित दृष्टि से विचार करने हेतु आमंत्रित कर रहा है.”
अमूमन अकादमी, परिषद या सृजनपीठ जैसी साहित्यिक संस्थाएं व्यंग्य पर कार्यक्रम नहीं करवातीं पर बख्शी सृजनपीठ ने दो बार व्यंग्य पर बड़ा आयोजन करवाया. पीठ के पहले अध्यक्ष प्रमोद वर्मा ने १० जनवरी १९९९ को ‘व्यंग्यालोचन’ कार्यक्रम करवाया था ‘हरिशंकर परसाई की स्मृति में’ और वर्तमान अध्यक्ष ललित वर्मा ने इस बार ‘व्यंग्यालोचन’ करवाया ‘लतीफ़ घोंघी को याद करते हुए.’ इस पर मुख्य आतिथि की आसंदी से बोलते हुए प्रेम जनमेजय ने कहा कि “व्यंग्य लिखा बहुत जा रहा है पर कैसा लिखा जा रहा है इस पर चर्चा नहीं होती. लतीफ़ घोंघी जैसे विपुल लेखन करने वाले लेखकों पर चर्चा नहीं होती. यह भी हमारी जिम्मेदारी है. हमें ‘व्यंग्य-यात्रा’ का विशेषांक लतीफ़ साहब पर चाहिए पर यह आप सबके सहयोग से ही संभव हो पावेगा.”
अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में मैंने कहा कि “व्यंग्यकार के भीतर से लोक बोलता है, लोक का ह्यूमर बोलता है और ह्यूमर के भीतर से लतीफ़ घोंघी बोलता है. वे वाचिक परंपरा से भरे अलहदा लेखक थे. वे हास्य-व्यंग्य की परिधि में ही रहे उन्होंने व्यंग्य से बाहर जाकर नहीं लिखा. वे हिन्दी व्यंग्य के एक खेतिहर श्रमिक थे. उनकी कितनी ही रचनाओं के पात्र रोजी-मजूरी से जीवन चलाने वाले इन्सान थे. उनके साथ रचनाओं में हुए संवादों से हास्य के छींटे निकला करते थे. अपने रोजमर्रा की मजबूरियों के बीच उनके श्रमजीवी वर्ग के पात्रों का ‘विट’ देखते बनता था. लतीफ़ घोंघी इन बदरंग स्थितियों से व्यंग्य निकालते ही नहीं बल्कि जी-तोड़ श्रम करके व्यंग्य निचोड़ते थे. अपने पात्रों में वे इतना रच बस जाते थे कि लतीफ़ घोंघी खुद भी अपनी रचना के एक जीवंत चरित्र बन जाते थे. उनकी रचनाओं में अमरीकी कथाकार ओ.हेनरी की कहानियों की तरह ‘ब्लू-कॉलर’ श्रमजीवी हुआ करते थे. वे अपना शोषण करने वाले मालिक-सामंतों पूंजीपतियों का सार्वजनिक उपहास उड़ाकर उनके अभिजात और शराफ़त के ओढ़े चोले को निकाल फेंका करते थे. कुछ ऐसा ही भाव लतीफ़ घोंघी की रचनाओं के पात्रों- मोची, रिक्शावाला, फर्राश या जो भी हों, उनके हास-परिहास में दिखा करता था. हम कह सकते हैं कि ‘लतीफ़ घोंघी हिन्दी व्यंग्य के ओ.हेनरी थे’ इस मायने में वे अनूठे व्यंग्यकार थे जिनके पाठकों का अपार संसार था.”
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आभार व्यक्त ‘ छत्तीसगढ़ आसपास ‘ के संपादक प्रदीप भट्टाचार्य ने किया.
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