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साहित्य वाचस्पति पं. लोचनप्रसाद पांडेय, पुरखा के सुरता : 4 जनवरी जयंती – आशीष सिंह
प.लोचन प्रसाद पांडेय हर किसी को आश्चर्यचकित कर देते हैं। हम उन्हें किस तरह प्रस्तुत करें, यह कठिनाई सामने आती है। वे साहित्यकारों के जितने प्रिय हैं उतने ही इतिहास और पुरातत्व के अध्येताओं के लिए भी हैं। वे गद्यकार थे, पद्यकार भी, निबंध उन्होंने लिखा और नाटक भी। हिन्दी, छत्तीसगढ़ी, अंग्रेजी, उडिय़ा, संस्कृत के भी समान अधिकारी। लेखक थे, संपादक भी थे। दंग रह जाना पड़ता है कि कोई हाड़-मांस का पुतला स्वयं को इतने आयामों के साथ प्रस्तुत कर सकता है। अद्भुत, विलक्षण और अतुलनीय जैसे शब्द लोचन प्रसाद जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के लिए छोटे लगते हैं। कोई ऐसा शब्द नहीं मिल पाता जिसके मात्र उच्चारण से ही लोचन प्रसाद जी का बहुविध व्यक्तित्व प्रकट हो।
परिवार के संस्कार और साहित्य सेवा
जेखर जइसन दाई-ददा, तेखर वइसन लइका छत्तीसगढ़ी में ऐसा ही कहा जाता है। पं. लोचन प्रसाद जी का जन्म 4 जनवरी 1886 को हुआ था। परिवार के संस्कारों ने उन्हें सुयोग्य बनाया। उच्च कोटि की शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था थी। उनके पिता पं. चिंतामणि पांडेय ने बालपुर में अपनी माताजी की स्मृति में एक पुस्तकालय की स्थापना की थी। जहां भारत जीवन जैसी साहित्यिक पत्रिका मंगवाई जाती। धर्म और साहित्य के ग्रेथों का विशाल संकलन था। उन्होंने बालपुर में ही एक पाठशाला स्थापित की थी। पार्वती पुस्तकालय और पाठशाला का पूरा लाभ लोचनप्रसाद ने उठाया। संबलपुर से मिडिल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर उच्च शिक्षा के लिए वे काशी गए, किंतु पितामही के आग्रह के कारण उन्हें बालपुर लौटना पड़ा। विद्यानुरागी पिता के सानिध्य ने उन्हें भी विद्या व्यसनी बना दिया। उनकी रचनाओं का प्रकाशन 1904 से ही पत्र-पत्रिकाओं में होने लगा था। केवल वे ही नहीं, वरन् उनके अग्रज पं. पुरुषोत्तम प्रसाद पांडेय, अनुज विद्याधर जी, बंशीधरजी और मुकुटधरजी ये सभी धुरंधर साहित्य सेवी हुए। उनके अग्रज पुरुषोत्तम प्रसाद छत्तीसगढ़ मित्र के नियमित लेखक थे। उनकी ही प्रेरणा से लोचनप्रसाद की रुचि इस ओर हुई। पद्मश्री मुकुटधरजी स्वीकार करते हैं कि उनके अग्रज द्वय पुरुषोत्तम प्रसाद और लोचन प्रसादजी उनके प्रेरक थे। 1904 सरस्वती में लोचन प्रसादजी की एक छोटी सी कविता छपी। इसी साल हिन्दी मास्टर ने भी उनका एक गीत छापा। इसी पत्रिका में अगले साल छत्तीसगढ़ी नाटक कलिकाल के दो अंक छापे गए। इसे छत्तीसगढ़ी का प्रथम नाटक कहा जाता है। 1907 में प्रथम उपन्यास दो मित्र भी छपा। 1909 में प्रवासी, नीति कविता और बालिका विनोद नामक तीन किताबें छपीं और इसी साल उन्होंने नागपुर से प्रकाशित मारवाड़ी पत्रिका का संपादन भी किया। अगले साल कविता कुसुम माला नामक कविताओं के संकलन का संपादन किया। यह पुस्तक माध्यमिक शालाओं के पाठ्यक्रम में शामिल की गई थी। अर्थात् मात्र 24 वर्ष की आयु में ही उन्होंने गद्य-पद्य, संपादन, नाटक और उपन्यास आदि साहित्य की विद्याओं में अपना डंका बजा दिया। सिर्फ छ: वर्षों की साहित्य साधना में उन्होंने नाटक, उपन्यास और तीन कविता संग्रहों की रचना कर डाली। इसे विलक्षणता के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है?
1910 से ही वे काशीप्रसाद जायसवाल के पाटलीपुत्र के नियमित लेखक बन गए थे, इसी साल देवनागर का भी प्रकाशन शुरू हुआ, वे उसके भी नियमित लेखक बन गए। पांडेय जी की उडिय़ा रचनाएं देवनागर में छपती थीं। दरअसल, देवनागर का प्रकाशन जिस खास उद्देश्य को लेकर जस्टिस शारदाचरण मित्र ने किया वह था देश की सभी भाषाएं देवनागरी में लिखी जाएं। इससे सभी भाषाएं एक-दूसरे के करीब आयेंगी और उनमें समझदारी तथा सद्भाव बढ़ेगा। पांडेयजी तो देवनागरी और हिन्दी के कट्टर समर्थक थे ही। हिन्दी नागरी लिपि शीर्षक से उनका एक विस्तृत लेख श्री व्यंकटेश्वर समाचार में 1905 में ही छप चुका था। हिन्दी में वैज्ञानिक शब्दों की कमी की ओर उन्होंने विद्वानों को आकर्षित किया था। वे नागरी को राष्ट्रीय लिपि के रूप में प्रतिष्ठित देखना चाहते थे। हिन्दी में उडिय़ा में हिन्दी विनय लिखकर अहिन्दी भाषियों के बीच हिन्दी का प्रचार करने का महत्वपूर्ण भी उन्होंने किया। कुछ पंक्तियां देखें-
आहे प्रियवर भारत संतान। विनय मोहर सुन देई काम॥
मातृभूमि तब अहे हिन्दुस्तान।
तहित मुहिं हिन्दी भाषा प्रधान॥
नाहिं हेंव मोर यावत प्रचार।
तावत न हेब भारत उद्धार॥
हिन्दी ऐसे साधक को पाकर कैसे धन्य न होगी!!
अनुवाद में सिद्धहस्त
अनुवाद में भी वे सिद्धहस्त थे। उडिय़ा कवि राधानाथ और रायबहादुर मधुसूदन, गुजराती संत कवि नरसिंह मेहता के अलावा विदेशी कवियों ग्रे, वर्ड्सवर्थ और पोप की रचनाओं का पद्यबद्ध अनुवाद हिन्दी में किया, महावीर प्रसाद द्विवेदी की कविता का उन्होंने उडिय़ा में अनुवाद भी किया। भर्तृहरि के नीति शतक का हिन्दी और अंग्रेजी, वेद की ऋचाओं का भी पद्यानुवाद किया। भारतीय साहित्यकारों का अंग्रेजी जगत से परिचय करवाने में भी उनका अग्रणी स्थान रहा। अंग्रेजी में उन्होंने लैटर टू माई ब्रदर्स, फोक टोक्स आफ छत्तीसगढ़, हाऊ टू बी हैपंड में, राधानाथ: द नेशनल पोयट आफ उड़ीसा जैसी किताबें लिखीं। हिन्दी और अन्य भाषाओं के बीच वे सेतु की तरह थे। राधानाथ तथा फकीर मोहन सेनापति सदृश्य उडिय़ा साहित्यकारों से उन्होंने हिन्दी जगत को परिचित कराया।
छत्तीसगढ़ के लोक साहित्य के विपुल भंडार को खंगाल कर पंवारों और लोकगीतों का संग्रह उन्होंने किया। 1909-10 में फोक टेल्स आफ छत्तीसगढ़ नाम पुस्तक उन्होंने तैयार की थी, जिसमें इन गीतों को संग्रहित किया गया था।
किसानों की दुर्दशा से व्यथित
साहित्याराधक पांडेयजी ने स्वतंत्रता संग्राम में भी हिस्सा लिया। छात्र जीवन से ही उन्होंने स्वदेशी का व्रत ले लिया था। 1907 में वे कलकत्ता अधिवेशन में शामिल हुए थे। ब्रिटिश सरकार द्वारा जप्तशुदा प्लासीर युद्ध, आनंद मठ और देशेर कथा उनके पुस्तकालय में थीं। किसानों और गरीबों की दुर्दशा से वे व्यथित थे। उनकी प्रेरणा से उनके अनुज मुरलीधर जी ने ग्राम सहाय समिति गठित की। गांव के प्रत्येक किसानों को एक पात्र में प्रतिदिन एक मु_ी अनाज डालने को कहा गया। इस अनाज को जरूरतमंद लोगों को वितरीत किया जाता। कृषक-सखा में किसानों के लिए कविताएं उन्होंने लिखी। रोपा पद्धति पर उन्होंने कई सुझाव दिये, माहो से संबंधित लेख पर्चे के रूप में छपवा कर किसानों के मध्य वितरित करवाया। 1920 में सप्रेजी ने राजिम में किसान सभा का गठन किया पांडेयजी ने भी अपना योगदान इस कार्य में दिया था। पंजाब के अकालग्रस्त किसानों के लिए उन्होंने पंजाब अकाल निवारण सहाय्य समिति गठित की और संग्रह कर बड़ी राशि भेजी। 1920 के निर्वाचन में चन्द्रपुर, मालखरौद और पद्मपुर के ऋणी किसानों को मताधिकार से वंचित कर दिया गया था। इसके विरोध में उन्होंने गवर्नर को पत्र लिखा। इस कार्य में पं. लोचन प्रसाद पांडेय को सफलता मिली। चांपा के कुष्ठ आश्रम के संचालन के लिए भी उन्होंने धन संग्रह किया। यह उनके मानवीय पक्ष को उद्घाटित करता है।
इतिहास और पुरातत्व की ओर
1920 तक वे साहित्य के प्रत्येक पक्ष पर अपनी छाप छोड़ चुके थे। फिर उनकी रुचि इतिहास और पुरातत्व की ओर हो गई। उन्होंने इसी वर्ष छत्तीसगढ़ गौरव प्रचारक मंडली की स्थापना की जीवन ज्योति और प्यारेलाल गुप्त की बिलासपुर वैभव इसी संस्था ने प्रकाशित की थी। छत्तीसगढ़ के प्राचीन कवियों की पांडुलिपियों का उद्धार भी संस्था के माध्यम से किया गया। भक्ति चिंतामणि, रामप्रताप, खूब तमाशा, सुयश चंद्रिका, चिकित्सा मंजरी प्रमुख है। 1925 में उन्होंने संस्था का नाम परिवर्तित कर महाकोशल इतिहास परिषद रखा।
पुरातत्वविद के रूप में उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये। रत्नदेव, जाजल्लदेव, पृथ्वी देव, प्रतापमल्ल की ताम्र तथा स्वर्ण मुद्राओं के अन्वेषण का श्रेय उन्हीं को है। प्रतापमल्ल का नाम तो सर्वथा अज्ञात था। अपीलक की मुद्रा की खोज ने तो पुरातत्व के क्षेत्र में तलहका ही मचा दिया। ये नरेश रतनपुर के कलचुरि थे। किंतु कलिंग के अनंत शर्मा, चोड़ गग, प्रसन्न आदि की मुद्राओं का पहली बार पता पांडेयजी ने लगाया था। कोसगई शिलालेख का पाठोद्धार भी आपने ही किया था।
पं. लोचन प्रसाद जी ने पूर्व बौद्ध काल की ब्राह्मी लिपि, मध्य बौद्ध कालीन सम्पुट शिखा लिपि, उत्तर बुद्ध काल की कुटिल लिपि तथा कलचुरि कालीन नागरी लिपि के प्रारंभिक स्वरूप की खोज कर पुरातत्व के क्षेत्र में अपनी धाक जमा ली। उनके अनुसंधान यहीं खत्म नहीं हुए। उन्होंने विक्रम खोल के शैल लेख, रामगिरि की नाट्यशाला और उत्कीर्ण लेख, किरारी यज्ञ स्तूप, ऋषभ तीर्थ, तुरतुरियाशिला लेख, सेमर सेल का ब्राह्मी लेख, महेन्द्र के सिक्के, तीवर देव का लेख, सुखदेवराज का लेख, महाशिवगुप्त बालार्जुन का लेख, भवगुप्त जन्मेजय के लेख, भीमसेन का ताम्रपत्र आदि की खोज ने अनेक नई स्थापनाओं को जन्म दिया। महाकोसल विषय पर उनका शोध पत्र ऐतिहासिक है। ऐसे अद्भुत व्यक्ति का जन्म छत्तीसगढ़ में हुआ यह हम छत्तीसगढिय़ों के लिए असीम गौरव का विषय है।
विद्वानों की मित्र मंडली
लोचन प्रसाद जी की मित्र मंडली में उस युग के दिग्गजों का समावेश था। उनके साहित्य मित्रों में महामहोपाध्याय जगन्नाथ प्रसाद भानु, सैयद मीर अली मीर, अयोध्या प्रसाद हरिऔध, पं. माधवराव सप्रे, पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी, भाषाविद् जार्ज ग्रियर्सन, पं. कामता प्रसाद गुरु, पं. रामदयाल तिवारी, मैथिलीशरण गुप्त, पद्म सिंह शर्मा, पं. माखन लाल चतुर्वेदी, पं. झाबरमल शर्मा, प्रयागदत्त शुक्ल, आचार्य विनय मोहन शर्मा, सेठ गोविंददास, नई पीढ़ी के डा. रामकुमार वर्मा, व्योहार राजेंद्र सिंह, भवानी प्रसाद तिवारी, इतिहास और पुरातत्व के विद्वतगणों में रायबहादुर हीरालाल, काशीप्रसाद जायसवाल, महामहोपाध्याय मिराशी, डा. वारमेट ( लंदन), डी.सी. सरकार जैसे धुरंधर थे, वहीं श्रीमती एनी बिसेंट, ठा. प्यारेलाल सिंह, रविशंकर शुक्ल आदि अनेक घनिष्ठ राजनैतिक मित्रों में थे। व्यक्ति की पहचान उसकी संगति से भी होती है। उपरोक्त विद्वान अपने विषय-क्षेत्र के महारथियों में गिने जाते थे। पांडेय जी से उनकी मित्रता यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि वे साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, राजनीति, स्वतंत्रता संग्राम, समाजसेवा के क्षेत्र में पांडित्यपूर्ण दखल रखते थे।
उनके आचरण और व्यवहार में ग्राम्य सुलभ सरलता और सहजता थी। वे आडंबरहीन और मृदु स्वभाव के थे। उन्होंने जीवन भर अर्जित ज्ञान को बांटने का ही कार्य किया। उनके अवदानों से साहित्य की झोली भरी, इतिहास का भंडार बढ़ा साथ ही पुरातत्व की कोठी भरती रही। ऐसे महापंडित के जीवन यज्ञ की पूर्णाहुति 18 नवंबर 1959 को 75 वर्ष की आयु में रायगढ़ में हुई।
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