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नरेंद्र नाथ तो याद रहे, लेकिन हरिनाथ ❓ स्मारक बनता डे भवन और हरिनाथ डे

2 years ago
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[ रायपुर के बूढ़ापारा के जिस घर में 1877 से 1879 तक विवेकानंद रहे वह अब स्मारक का रूप लेने जा रहा है। देर से ही सही शासन ने सुध ली है तो सराहना के साथ वह बधाई की अधिकारी भी है। हमारी धारणा है कि किशोर नरेंद्र को विवेकानंद बनाने में रायपुर के संस्कारों की भी भूमिका रही है। वह घर ‘डे भवन’सिर्फ इसलिए ही ऐतिहासिक नहीं कहा जा सकता कि वहां विवेकानंद रहे, बल्कि इसलिए भी क्योंकि वह हरिनाथ डे का पैतृक निवास था। लेकिन ये हरिनाथ डे थे कौन?-आशीष सिंह)
रायपुर को इस बात का गर्व है कि उसने उन्नीसवीं शताब्दी में विश्व को एक ऐसा बहुभाषाविद् दिया जिसने 34 वर्ष के अपने संक्षिप्त जीवनकाल में अठारह भाषाओं का न केवल ज्ञान अर्जित किया वरन् उन भाषाओं में सफलतापूर्वक लेखन भी किया। हरिनाथ डे ऐसी ही विलक्षण बौद्धिक सम्पदा के स्वामी थे।

पिता रायबहादुर, माता विदुषी

हरिनाथ डे के पिता भूतनाथ डे रायपुर के प्रतिष्ठित वकील थे। वे रायपुर म्युनिसिपल कमेटी के उपाध्यक्ष भी रहे। उन्होंने ही राजनांदगांव के राजा महंत बलराम दास को रायपुर में नलघर बनाने के लिए दान करने को प्रेरित किया था। समाज सेवा और रचनात्मक कार्यों के लिए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘रायबहादुर’ की पदवी प्रदान की थी। 12 अगस्त 1877 को नाना के घर चौबीस परगना के आरियादाबा गांव में हरिनाथ का जन्म हुआ था। उनकी माता माता एलोकेशी को बंगला, हिंदी, मराठी तथा अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान था। विविध भाषाओं के ज्ञान की पिपासा हरिनाथ को अपनी माता से ही प्राप्त हुई थी।

स्कॉलरशिप और पुरस्कारों का तांता

हरिनाथ की प्राथमिक शिक्षा मिशन स्कूल रायपुर में सन् 1887 में सम्पन्न हुई। उन्होंने मिडिल की शिक्षा गवर्नमेंट हाईस्कूल रायपुर से प्राप्त की। वे प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए तथा उन्हें स्कॉलरशिप प्राप्त हुआ। इन्हीं दिनों वे एक ईसाई संगठन के सम्पर्क में आये और उन्होंने बाइबिल का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद किया। इसी समय उन्होंने लैटिन भाषा भी सीख ली। आगे चलकर उनकी गणना लैटिन भाषा के विद्वानों में की जाने लगी।

मिडिल स्कूल की शिक्षा समाप्त कर हरिनाथ आगे की पढ़ाई के लिये कलकत्ता गए। वहां उन्होंने सेंट जेवियर्स कॉलेज में प्रवेश लिया। सन् 1892 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में इंटरमीडियेट की परीक्षा पास तथा अंग्रेजी और लैटिन भाषाओं में श्रेष्ठता प्रदर्शित की। इस वर्ष प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने वाले वे अकेले छात्र थे। उन्हें स्कॉलरशिप भी प्राप्त हुई।

इंटरमीडियेट के पश्चात उन्होंने प्रेसिडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया। सन् 1896 में उन्होंने प्रथम श्रेणी में स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की। उनका चयन आगे की पढ़ाई के लिये इंग्लैंड जाने के लिए हुआ।

सन् 1896 में स्वाध्यायी छात्र के रूप में उन्होंने लैटिन में एम. ए. की परीक्षा में प्रावीण्य सूची में प्रथम स्थान प्राप्त किया। उन्हें स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ। सन् 1897 में उन्होंने इटैलियन कवि दांते के काव्य पर शोध पत्र प्रस्तुत किया। इंग्लैंड में हरिनाथ क्राइस्ट कॉलेज कैम्ब्रिज में प्रवेश लिया था। कॉलेज की पढ़ाई के साथ-साथ उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से ग्रीक भाषा में एम. ए. की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली। इस भाषा में एम. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण होने वाले वे प्रथम छात्र थे।

जब वे क्राइस्ट कॉलेज कैम्ब्रिज में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तब सन् 1989 में उन्होंने ‘दक्षिण अफ्रीका’ पर ग्रीक तथा लैटिन भाषा में कविताएं लिखी जिसके लिये उन्हें पुरस्कृत किया गया। सन् 1899 में उनका चयन ‘सीनियर क्लासिकल स्कॉलर’ के रूप में किया गया सन् 1990 में उन्होंने क्राइस्ट कॉलेज कैम्ब्रिज के स्नातक की उपाधि अर्जित की। आनर्स कोर्स उत्तीर्ण करने वाले वे दूसरे भारतीय छात्र थे। उनके पहले प्रथम भारतीय छात्र अरविंदो घोष थे जिन्होंने 1892 में यह कोर्स पास किया था। सन् 1900 में हरिनाथ ने आई. सी. एस. की परीक्षा उत्तीर्ण की। उन्हें ब्रिटिश शासन ने उच्च पद पर पदस्थ करने की पेशकश भी की थी। किंतु उन्होंने उसे ठुकरा दिया।

प्रख्यात विद्वान मोहित थे उन पर

सन् 1901 में हरिनाथ ने मध्यकालीन तथा आधुनिक भाषाओं में कैम्ब्रिज से आनर्स का कोर्स उत्तीर्ण किया। उसी वर्ष उन्हें शेक्सपीयर तथा चौसर के काव्यगत विशेषताओं में प्रवीणता प्राप्त करने के लिये क्राइस्ट कॉलेज के ‘स्कीट पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। इसके तुरंत पश्चात् उन्हें ‘एलेन रिसर्च स्कॉलरशिप’ के लिये चयनित कर लिया गया। कैम्ब्रिज में शिक्षा प्राप्त करते समय वे छुट्टियों में फ्रांस तथा जर्मनी चले जाया करते थे। सन् 1898 में उन्होंने संस्कृत का शास्त्रीय अध्ययन किया। उसी वर्ष उन्होंने इन दोनों देशों की लोकभाषाओं तथा साहित्यिक भाषाओं का भी अध्ययन किया। उसी वर्ष उन्होंने अरबी भाषा की शिक्षा के लिए इजिप्ट की भी यात्रा की। प्रख्यात विद्वान एडवर्ड बाइल्स कावेल तो हरिनाथ के ऋग्वेद ज्ञान पर मुग्ध थे तो एडवर्ड सीमर व थामसन उनके ग्रीक तथा लैटिन के छंदबद्ध काव्य पर मोहित थे।

प्रेसिडेंसी कॉलेज में प्राध्यापक

कैम्ब्रिज से शिक्षा प्राप्त कर हरिनाथ डे प्रेसिडेंसी कॉलेज में प्राध्यापक नियुक्त हुए। परंतु भाषाएं सीखने की उनकी महत्वाकांक्षा कम नहीं हुई। उन्होंने सन् 1905 में संस्कृत, अरबी और उडिय़ा में परीक्षाएं उत्तीर्ण की। इन परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने पर उन्हें तीन हजार रुपये पुरस्कार प्राप्त हुए।

हुगली कॉलेज के प्राचार्य

सन् 1906 में उन्हें हुगली कॉलेज के प्राचार्य के पद पर नियुक्त किया गया। इस पद पर कार्य करते हुए उन्होंने पाली भाषा में एम. ए. की परीक्षा पास की। उल्लेखनीय है कि पाली भाषा की परीक्षा में उन्होंने ‘धनिया सुधा’ का अनुवाद छंदबद्ध काव्य में किया जो किसी भी छात्र के लिये असंभव था। उन्हें स्वर्ण पदक से पुरस्कृत किया गया।

इम्पीरियल लायब्रेरी के लायब्रेरियन

सन् 1907 में हरिनाथ डे कलकत्ता के इम्पीरियल लायब्रेरी के लायब्रेरियन नियुक्त किये गये। उनके पूर्व इस पद पर केवल अंग्रेज अफसर ही नियुक्त किए जाते थे। इस पद पर कार्य करते हुए उन्होंने अरबी भाषा में भी प्रथम श्रेणी में डिग्री प्राप्त की जिसके लिये उन्हें पांच हजार रुपये पुरस्कार प्राप्त हुए। सन् 1908 में उन्होंने संस्कृत में भी डिग्री प्राप्त की जिसके लिये उन्हें स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया। संस्कृत में ही उन्होंने ऑनर्स उत्तीर्ण किया और पुन: पांच हजार रुपये का पुरस्कार प्राप्त किया। सन् 1910 में उन्होंने चीनी भाषा का अध्ययन किया।

भाषाएं सीखने का जुनून

हरिनाथ डे को भाषाएं सीखने का पागलपन की सीमा तक शौक था। किसी भी भाषा को सीखने में उन्हें कुछ महीनों से अधिक समय नहीं लगता था। जिन भाषाओं को उन्होंने सीखा, उनके साहित्य का गहन अध्ययन भी उन्होंने किया। हरिनाथ को इंग्लिश, ग्रीक, लैटिन, पोर्तुगीज, इटैलियन, स्पेनिश, फ्रेंच, रूमानियन, डच, जर्मन, एंग्लो सेक्शन आदि योरोपीय तथा संस्कृत, पाली, तिब्बती, चीनी, तुर्की, हिब्रु, अरबी, फारसी, हिंदी, बंगला आदि भारतीय तथा एशियाई भाषाओं पर विशेष दक्षता प्राप्त थी।

धुरंधर लेखक भी

हरिनाथ डे जितने बड़े भाषाशास्त्री थे, भाषाविद् थे, विभिन्न भाषाओं के साहित्य के जानकार थे, उतने ही बड़े वे चिंतक और धुरंधर लेखक भी थे। अपने संक्षिप्त जीवनकाल में उन्होंने पचास से भी अधिक कृतियों का सफलतापूर्वक सृजन कर अपनी अद्भुत क्षमता और दक्षता का परिचय दिया।

प्रकाशित कृतियां

राखालदास की जीवनी तथा उनकी कृतियां (1903), इब्न बतूता की पुस्तक बंगला का विवरण का अनुवाद (1904), मोहम्मदि हफीज द्वारा सुल्तान गयासुद्दीन पर लिखे काव्य का अरबी से अंग्रेजी में अनुवाद (1905), कलतुम इब्न उमर अल अतबी, अहमद इब्न अल हुसैन अल मुतनबी, इम्र अल कैस, अल बिलिदबिन अब्दुल मलिक तथा याजिद इब्न मुआवैयाह की अरबी कविताओं का छंदबद्ध अनुवाद (1905), बंकिमचंद्र के उपन्यासों की समीक्षा (1905), मौलवी रजा अली वहसत की फारसी कविताओं का अंग्रेजी में छंदबद्ध अनुवाद (1905), पंकजनी बसु के सूर्यमुखी तथा रानी मृणालिनी के डेके छे केनो का अंग्रेजी में छंदबद्ध अनुवाद (1906), देवेन्द्रचंद्र द्वारा अनुदित चंद्रशेखर की आलोचना तथा अंग्रेजी में अनुवाद (1906), आनंद मठ तथा वंदेमातरम् कविता का अंग्रेजी तथा लैटिन में अनुवाद (1906), पाणिनी तथा बुद्ध घोष पर व्याख्यात्मक समीक्षा (1906), अंग्रेजों द्वारा बौद्ध ग्रंथों के अंग्रेजी में त्रुटिपूर्ण अनुवादों की आलोचना तथा उनका समुचित संशोधन, महाकवि कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतल के दो अंकों का अंग्रेजी में अनुवाद, (उन्होंने इस ग्रंथ की इतालवी में लिखे नए ग्रंथों अमिन्ता तथा द ट्रस्टेड शेफर्ड के साथ अभिज्ञान शाकुंतल के योरोपीय भाषाओं के लिये किये गये विभिन्न अनुवादों की तुलनात्मक समीक्षा भी प्रस्तुत की-1907), तारीख-ए-नुसरत जंगी (लेखक-नुसरत जंग) नामक इतिहास ग्रंथ का फारसी से अनुवाद (1907), ताज महल के निर्माता (द बिल्डर्स ऑफ ताज) पर शोध निबंध (1908), ताज, मोती मस्जिद, आगरे का किला, फतेहपुर सीकरी पर शोध निबंध, इन निबंधों में मुस्लिम स्थापत्य शिल्प पर प्रकाश डाला गया है (1908) दानियासुत (सुत्तानिपात) पाली ग्रंथ का छंदबद्ध अनुवाद (1908), सुबंधु का समय (द डेट ऑफ सुबंधु) पर कोपेन हेगन में आयोजित ओरियंटल कांफ्रेंस में पठित शोध पत्र, राजेन्द्रनाथ विद्याभूषण कृत कालिदास (1908) की भूमिका। इस भूमिका में उन्होंने योरोप तथा एशिया के विद्वानों द्वारा विभिन्न भाषाओं में कालिदास पर लिखी समालोचनाओं की समीक्षा की है (1909), वासवदत्ता का अंग्रेजी में अनुवाद (यह किसी भी भाषा में किया गया प्रथम अनुवाद है) (1909) निर्वाण व्याख्यान शास्त्रम् (बौद्ध दर्शन शास्त्र) का संपादन (1909), लंकावतार सूत्र (बौद्ध ग्रंथ) का सम्पादन (1909), तिब्बती लैटिन शब्दकोष (अप्रकाशित) पर शोध पत्र जो एशियाटिक सोसायटी के अधिवेशन में पढ़ा गया (1910), हेराल्ड नामक अंग्रेजी मासिक पत्रिका में प्रकाशित पांच लेखों का संकलन (1911)।

अनुवाद

बोधिसत्व नागार्जुन के माध्यमिक कारिका के 16 अध्यायों का चीनी भाषा से अंग्रेजी में अनुवाद (1911), तिब्बती इतिहासकार तारानाथ द्वारा लिखित बौद्ध धर्म का इतिहास का तिब्बती से अंग्रेजी में अनुवाद (1911), बौद्ध दार्शनिक और उनके दर्शन (1911), बंकिमचंद्र के कृष्णकांत का वसीयतनामा मुचीराम गुर की जीवनी तथा देने गिल की फ्रांसिसी कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद (1911), चेतन तथा अचेतन के प्रति बोधिसत्व नागार्जुन के विचार, विद्यापति के कुछ पदों का अनुवाद तथा मिखाइल यूरोचिव लार्मोन्तोव की कविताओं का रूसी में अनुवाद (1911)। हरिनाथ स्वयं की बंगला कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद सहित (1911), नागार्जुन कृत माध्यमिक शा के 27 वें अध्याय का अनुवाद (1911) आत्मा पर नागार्जुन के विचार (1911), येरगाथा की कुछ कविताओं का पाली से अंग्रेजी अनुवाद (1911) पुश्किन के दे कफिन मेकर का रूसी से अंग्रेजी अनुवाद (1911), विद्यापति, प्रियंवदा देवी, गिरीशचंद्र घोष तथा लियोपार्डी की कविताएं का अनुवाद अमृतलाल बसु के बाबू का अनुवाद (1911), शाह आलमनामा का फारसी अनुवाद (1911) जीन लॉ की स्मृतियां का फ्रेंच से अनुवाद (1911), अरबी भाषा का व्याकरण सन् (1911), संस्कृत शब्द कोष (1911), अंग्रेजी फारसी शब्दकोश (1911), अरबी में लिखी अलफख्री का अंग्रेजी अनुवाद (1913), अनेक ताम्रपत्रों तथा अरबी शिलालेखों का पाठोद्धार, नैषध चरित्र का अंग्रेजी अनुवाद, वाल्मीकि रामायण तथा विशाखादत्ता के मुद्राराक्षस का अनुवाद, ऋग्वेद का अनुवाद, गिरिशचंद्र घोष के सिराजुद्दौला तथा अमृतलाल बसु के राजा बहादुर का अनुवाद, तिब्बती, चीनी, फारसी, संस्कृत, पाली, प्राकृत आदि भाषाओं तथा उनके साहित्य पर लिखी उनकी अनेक कृतियां, ग्रीक भाषा की अनेक कविताओं का अंग्रेजी में छंदबद्ध अनुवाद (प्रकाशित)।

दिन रात कठोर परिश्रम और विश्राम के अभाव में दिनांक 15 अगस्त 1917 को हरिनाथ डे मोतीझीरा (Enteric Fever) रोग से ग्रस्त हो गये। डॉक्टरों के अथक प्रयासों के बावजूद उन्हें बचाया न जा सका। दिनांक 30 अगस्त 1911 को प्रात:काल ज्ञान का यह प्रखर सूर्य अस्त हो गया।

[ हरि ठाकुर छत्तीसगढ़ गौरव गाथा से साभार/संपादित अंश – हरि ठाकुर ]

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