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महाशिवरात्रि विशेष : छत्तीसगढ़ में शैव परंपरा – प्रो. अश्विनी केशरवानी
प्राचीन छत्तीसगढ़ पर दृष्टिपात करें तो हमें इस क्षेत्र में जहां वैष्णव मंदिर, देवी मंदिर जहां बहुतायत में मिलते हैं, वहीं शैव मंदिर अपनी गौरव गाथा कहते नहीं अघाते। छत्तीसगढ़ प्राचीन काल से आज तक अनेक धार्मिक आयोजनों का समन्वय स्थल रहा है। गांवों में स्कूल-कालेज न हो, हाट बाजार न हो, तो कोई बात नहीं, लेकिन नदी-नाले का किनारा हो या तालाब का पार, मंदिर चाहे छोटे रूप में हों, अवश्य देखने को मिलता है। ऐसे मंदिरों में शिव, हनुमान, राधाकृष्ण और रामलक्ष्मणजानकी के मंदिर प्रमुख होते हैं। प्राचीन काल से ही यहां शैव परम्परा बहुत समृद्ध थी। कलचुरि राजाओं ने विभिन्न स्थानों में शिव मंदिर का निर्माण कराया जिनमें चंद्रचूड़ महादेव (शिवरीनारायण), बुद्धेश्वर महादेव (रतनपुर), पातालेश्वर महादेव (अमरकंटक), पलारी, पुजारीपाली, गंडई-पंडरिया के शिव मंदिर प्रमुख हैं। इसकेे समकालीन कुछ शिव मंदिर और बने जिनमें पीथमपुर का कालेश्वरनाथ, शिवरीनारायण में महेश्वरनाथ प्रमुख हैं।
छत्तीसगढ़ के अधिकांश शिव मंदिर सृजन और कल्याण के प्रतीक स्वरूप निर्मित हुए हैं। लिंग रहस्य और लिंगोपासना के बारे में स्कंद पुराण में वर्णन मिलता है, उसके अनुसार भगवान महेश्वर अलिंग हैं, प्रकृति प्रधान लिंग है –
आकाशं लिंगमित्याहु पृथिवी तस्य पीठिका।
आलयः सर्व देवानां लयनाल्लिंग मुच्यते।।
अर्थात् आकाश लिंग और पृथ्वी उसकी पीठिका है। सब देवताओं का आलय में लय होता है, इसीलिये इसे लिंग कहते हैं। हिन्दू धर्म में शिव का स्वरूप अत्यंत उदात्त रहा है। पल में रूष्ट और पल में प्रसन्न होने वाले और मनोवाँछित वर देने वाले औघड़दानी महादेव ही हैं।
छत्तीसगढ़ में राजा-महाराजा, जमींदार और मालगुजारों द्वारा निर्मित अनेक गढ़, हवेली, किला और मंदिर आज भी उस काल के मूक साक्षी है। कई लोगों के वंश खत्म हो गये और कुछ राजनीति, व्यापार आदि में संलग्न होकर अपनी वंश परम्परा को बनाये हुए हैं। वंश परम्परा को जीवित रखने के लिए क्या कुछ नहीं करना पड़ता ? राजा हो या रंक, सभी वंश वृद्धि के लिए मनौती मानने, तीर्थयात्रा और पूजा-यज्ञादि करने का उल्लेख तात्कालीन साहित्य में मिलता हैं। देव संयोग से उनकी मनौतियां पूरी होती रहीं और देवी-देवताओं के मंदिर इन्ही मनौतियों की पूर्णता पर बनाये जाते रहे हंै, जो कालान्तर में उनके ‘‘कुलदेव’’ के रूप में पूजित होते हैं। छत्तीसगढ़ में औघड़दानी महादेव को वंशधर के रूप में पूजा जाता है। खरौद के लक्ष्मणेश्वर महादेव को वंशधर के रूप में पूजा जाता है। यहां लखेसर चढ़ाया जाता है। हसदो नदी के तट पर प्रतिष्ठित कालेश्वरनाथ महादेव वंशवृद्धि के लिए सुविख्यात् है। इसी प्रकार माखन साव के वंश को महेश्वर महादेव ने बढ़ाया। इन्ही के पुण्य प्रताप से बिलाईगढ़-कटगी के जमींदार की वंशबेल बढ़ी और जमींदार श्री प्रानसिंह बहादुर ने नवापारा गांव माघ सुदी 01 संवत् 1894 में महेश्वर महादेव के भोग-रागादि के लिए चढ़ाकर पुण्य कार्य किया।
भगवान शिव अक्षर, अव्यक्त, असीम, अनंत और परात्पर ब्रह्म हैं। उनका देव स्वरूप सबके लिए वंदनीय है। शिवपुराण के अनुसार सभी प्राणियों के कल्याण के लिए भगवान शंकर लिंग रूप में विभिन्न नगरों में निवास करते हैं। उपासकों की भावना के अनुसार भगवान शंकर विभिन्न रूपों में दर्शन देते हैं। वे कहीं ज्योतिर्लिंग रूप में, कहीं नंदीश्वर, कहीं नटराज, कहीं अर्द्धनारीश्वर, कहीं अष्टतत्वात्मक, कहीं गौरीशंकर, कहीं पंचमुखी महादेव, कहीं दक्षिणामूर्ति तो कहीं पार्थिव रूप में प्रतिष्ठित होकर पूजित होते हैं। शिवपुराण में द्वादश ज्योतिर्लिंग के स्थान निर्देश के साथ-साथ कहा गया है कि जो इन 12 नामों का प्रातःकाल उच्चारण करेगा उसके सात जन्मों के पाप धुल जाते हैं। लिंग रहस्य और लिंगोपासना के बारे में स्कंदपुराण में वर्णन है कि भगवान महेश्वरनाथ अलिंग हैं, प्रकृति ही प्रधान लिंग है। महेश्वर निर्गुण हैं, प्रकृति सगुण है। प्रकृति या लिंग के ही विकास और विस्तार से ही विश्व की सृष्टि होती है। अखिल ब्रह्मांड लिंग के ही अनुरूप बनता है। सारी सृष्टि लिंग के ही अंतर्गत है, लिंगमय है और अंत में लिंग में ही सारी सृष्टि का लय भी हो जाता है। ईशान, तत्पुरूष, अघोर, वामदेव और सद्योजात ये पांच शिव जी की विशिष्ट मूर्तियां हैं। इन्हें ही इनका पांच मुख कहा जाता है। शिवपुराण के अनुसार शिव की प्रथम मूर्ति क्रीडा, दूसरी तपस्या, तीसरी लोकसंहार, चैथी अहंकार और पांचवीं ज्ञान प्रधान होती है। छŸाीसगढ़ में शिव जी के प्रायः सभी रूपों के दर्शन होते हैं। आइये इन्हें जानें:-
लक्ष्मणेश्वर महादेव
जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जिला मुख्यालय जांजगीर से 60 कि. मी., बिलासपुर से 64 कि. मी., कोरबा से 110 कि. मी., रायगढ़ से 106 कि. मी. और राजधानी रायपुर से 125 कि. मी. व्हाया बलौदाबाजार, और छŸाीसगढ़ का सांस्कृतिक तीर्थ शिवरीनारयण से दो-ढाई कि. मी. की दूरी पर स्थित खरौद शिवाकांक्षी होने के कारण ‘‘छत्तीसगढ़ की काशी‘‘ कहलाता है। यहां के प्रमुख आराध्य देव लक्ष्मणेश्वर महादेव हैं जो उन्नत किस्म के ‘‘लक्ष्य लिंग‘‘ के पार्थिव रूप में पश्चिम दिशा में पूर्वाभिमुख स्थित हैं। मंदिर के चारों ओर पत्थर की मजबूत दीवार है। इस दीवार के भीतर 110 फीट लंबा और 48 फीट चैड़ा चबुतरा है जिसके उपर 48 फीट ऊंचा और 30 फीट गोलाई लिए भव्य मंदिर स्थित है। मंदिर के गर्भगृह में ‘‘लक्ष्यलिंग‘‘ स्थित है। इसे ‘‘लखेश्वर महादेव‘‘ भी कहा जाता है क्योंकि इसमें एक लाख शिवलिंग है। बीच में एक पातालगामी अक्षय छिद्र है जिसका संबंध मंदिर के बाहर स्थित कुंड से है। शबरीनारायण महात्म्य के अनुसार इस महादेव की स्थापना श्रीराम ने लक्ष्मण की विनती करने पर लंका विजय के निमित्त की थी। इस नगर को ‘‘छत्तीसगढ़ की काशी‘‘ कहा जाता है। इनकी महिमा अवर्णनीय है। महाशिवरात्री को यहां दर्शनार्थियों की अपार भीढ़ होती है। कवि श्री बटुकसिंह चैहान इसकी महिमा गाते हैं:-
जो जाये स्नान करि, महानदी गंग के तीर।
लखनेश्वर दर्शन करि, कंचन होत शरीर।।
सिंदूरगिरि के बीच में लखनेश्वर भगवान।
दर्शन तिनको जो करे, पावे परम पद धाम।।
मूल मंदिर के प्रवेश द्वार के उभय पाश्र्व में कलाकृति से सुसज्जित दो पाषाण स्तम्भ है। इनमें से एक स्तम्भ में रावण द्वारा कैलासोत्तालन तथा अर्द्धनारीश्वर के दृश्य खुदे हैं। इसी प्रकार दृसरे स्तम्भ में राम चरित्र से सम्बंधित दृश्य जैसे राम-सुग्रीव मित्रता, बाली का वध, शिव तांडव और सामान्य जीवन से सम्बंधित एक बालक के साथ स्त्री-पुरूष और दंडधरी पुरूष खुदे हैं। प्रवेश द्वार पर गंगा-यमुना की मूर्ति स्थित है। मुर्तियों में मकर और कच्छप वाहन स्पष्ट दिखाई देता है। उनके पाश्र्व में दो नारी प्रतिमा है। इसके नीचे प्रत्येक पाश्र्व में द्वारपाल जय और विजय की मुर्ति है। महामहोपाध्याय गोपीनाथ राव द्वारा लिखित ‘‘आक्नोग्राफी आफ इंडिया‘‘ तथा आर. आर. मजुमदार की ‘‘प्राचीन भारत‘‘ में इस दृश्य का चित्रण मिलता है।
पंडित मालिकराम भोगहा कृत ‘‘श्री शबरीनारायण माहात्म्य‘‘ के पांचवें अध्याय के 95-96 श्लोक में लक्ष्मण जी श्रीरामचंद्रजी से कहते हैं:- हे नाथ ! मेरी एक इच्छा है उसे आप पूरी करें तो बड़ी कृपा होगी। रावण को मारने के लिये हम अनेक प्रयोग किये। यह एक शेष है कि इहां ‘‘लक्ष्मणेश्वर महादेव‘‘ थापना आप अपने हाथ कर देते तो उत्तम होता –
रावण के वध हेतु करि चहे चलन रघुनाथ
वीर लखन बोले भई मैं चलिहौं तुव साथ।।
वह रावण के मारन कारन किये प्रयोग यथाविधि हम।
सो अब इहां थापि लखनेश्वर करें जाइ वध दुश्ट अधम।।
यह सुन श्रीरामचंद्रजी ने बड़े 2 मुनियों को बुलवाकर शबरीनारायण के ईशान कोण में वेद विहित संस्कार कर लक्ष्मणेश्वर महादेव की थापना की:-
यह सुनि रामचंद्रजी बड़े 2 मुनि लिये बुलाय।
लखनेश्वर ईशान कोण में वेद विहित थापे तहां जाय।। 97 ।।
….और अनंतर अपर लिंग रघुनाथ। थापना किये अपने हाथ।
पाइके मुनिगण के आदेश। चले लक्ष्मण ले दूसर देश।।
अर्थात एक दूसरा लिंग श्रीरामचंद्रजी अपने नाम से अपने ही हाथ स्थापित किये, जो अब तक गर्भगृह के बाहर पूजित हैं। तभी तो आंचलिक कवि श्री तुलाराम गोपाल अपनी पुस्तक ‘‘शिवरीनारायण और सात देवालय‘‘ में इस मंदिर की महिमा का बखान किया हैः-
सदा आज की तिथि में आकर यहां जो मुझे गाये।
लाख बेल के पत्र, लाख चांवल जो मुझे चढ़ाये।।
एवमस्तु! तेरे कृतित्वके क्रम को रखे जारी।
दूर करूंगा उनके दुख, भय, क्लेश, शोक संसारी।।
खरौद में छत्तीसगढ़ का अत्यंत प्राचीन शैव मठ है। इस मठ के महंत निहंग बैरागी लोग थे। इसी प्रकार दूसरा शैव मठ पीथमपुर में था। छत्तीसगढ़ में अनेक राजा महाराजा और मालगुजार बैरागी लोग हुए हैं।
कालेश्वर महादेव
जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर से 10 कि. मी., चांपा से 8 कि. मी. और बिलासपुर से 80 कि. मी. की दूरी पर हसदो नदी के तट पर पीथमपुर स्थित है। यह नगर यहां स्थित ‘‘कालेश्वर महादेव‘‘ के कारण सुविख्यात् है। चांपा के पंडित छविनाथ द्विवेदी ने ‘‘कलिश्वरनाथ महात्म्य स्त्रोत्रम‘‘ संवत् 1987 के लिखा था। उसके अनुसार पीथमपुर के इस शिवलिंग का उद्भव चैत कृष्ण प्रतिपदा संवत् 1940 को हुआ। मंदिर का निर्माण संवत् 1949 में आरंभ हुआ और 1953 में पूरा हुआ। खरियार के राजा वीर विक्रम सिंहदेव ने कालेश्वर महादेव की पूजा अर्चना कर वंश वृद्धि का लाभ प्राप्त किया था। खरियार के युवराज डाॅ. जे. पी. सिंहदेव ने मुझे सूचित किया है-‘‘मेरे दादा स्व. राजा वीर विक्रम सिंहदेव ने वास्तव में वंश वृद्धि के लिए पीथमपुर जाकर कालेश्वर महादेव की पूजा और मनौती की थी। उनके आशीर्वाद से दो पुत्र क्रमशः आरतातनदेव, विजयभैरवदेव और दो पुत्री कनक मंजरी देवी और शोभज्ञा मंजरी देवी हुई और हमारा वंश बढ़ गया।‘‘ यहां महाशिवरात्री को एक दिवसीय और फाल्गुन पूर्णिमा से 15 दिवसीय मेला लगता है। धूल पंचमी को यहां प्रतिवर्ष परम्परागत शिव जी की बारात निकलती है जिसमें नागा साधुओं की उपस्थिति उसे जीवंत बना देती है। कवि बटुकसिंह चैहान गाते हैं-
हंसदो नदी के तीर में, कलेश्वर नाथ भगवान।
दर्शन तिनको जो करे, पावही पद निर्वाण।।
फागुन मास के पूर्णिमा, होवत तहं स्नान।
काशी समान फल पावहीं, गावत वेद पुराण।।
चंद्रचूड़ महादेव
जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर से 67 कि. मी., बिलासपुर से 67 कि. मी. की दूरी पर छत्तीसगढ़ की पुण्यतोया नदी महानदी के तट पर शिवरीनारायण स्थित है। जोंक, शिवनाथ और महानदी का त्रिवेणी संगम होने के कारण इसे ‘‘प्रयाग‘‘ की मान्यता है। यहां भगवान नारायण के मंदिर के सामने पश्चिमाभिमुख चंद्रचूड़ महादेव स्थित हैं। मंदिर के द्वार पर एक विशाल नंदी की मूर्ति है। बगल में एक जटाधारी किसी राज पुरूष की मूर्ति है। गर्भगृह में चंद्रचूड़ महादेव और हाथ जोड़े कलचुरि राजा-रानी की प्रतिमा है। मंदिर के बाहर संवत् 919 का एक शिलालेख हैं। इसके अनुसार कुमारपाल नामक कवि ने इस मंदिर का निर्माण कराया और भोजनादि की व्यवस्था के लिए चिचोली नामक गांव दान में दिया। इस शिलालेख में रतनपुर के कलचुरि राजाओं की वंशावली दी गयी है। यहां का माहात्म्य बटुकसिंह चैहान के मुख से सुनिए:-
महानदी गंग के संगम में, जो किन्हे पिंड कर दान।
सो जैहै बैकुंठ को, कही बटुकसिंह चैहान ।।
महेश्वर महादेव
शिवरीनारायण में ही महानदी के तट पर छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध मालगुजार श्री माखनसाव के कुलदेव महेश्वर महादेव और कुलदेवी शीतला माता का भव्य मंदिर, बरमबाबा की मूर्ति और सुन्दर घाट है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा द्वारा लिखित श्रीशबरीनारायण माहात्म्य के अनुसार इस मंदिर का निर्माण संवत् 1890 में माखन साव के पिता श्री मयाराम साव और चाचा श्री मनसाराम और सरधाराम साव ने कराया है। माखन साव भी धार्मिक, सामाजिक और साधु व्यक्ति थे। ठाकुर जगमोहनसिंह ने ‘सज्जनाष्टक‘ में उनके बारे में लिखा है:-
माखन साहु राहु दारिद कहं अहै महाजन भारी।
दीन्हो घर माखन अरू रोटी बहुबिधि तिनहिं मुरारी।।२४।।
लच्छ पती सुद शरन जनन को टारत सकल कलेशा।
द्रब्य हीन कहं है कुबेर सम रहत न दुख को लेशा।।२५।।
दुओ धाम प्रथमहिं करि निज पग कांवर आप चढ़ाई।
सेतुबन्ध रामेसुर को लहि गंगा जल अन्हवाई।।२६।।
चार बीस शरदहुं के बीते रीते गोलक नैना।
लखि असार संसार पार कहं मूंदे दृग तजि चैना।।२७।।
महेश्वरनाथ के वरदान से ही माखन साव के वंश की वृद्धि हुई और आज विशाल वठ वृक्ष की भांति फैला हुआ है। महेश्वरनाथ के आशीर्वाद से बिलाईगढ़-कटगी के जमींदार के वंश की वृद्धि हुई जिससे प्रसन्न होकर बिलाईगढ़ के जमींदार श्री प्रानसिंह ने माघ सुदी 01 संवत् 1894 मे नवापारा गांव इस मंदिर के व्यवस्था और भोगराग आदि के लिए चढ़ाया था। शिवरीनारायण के अलावा हसुवा, टाटा और लखुर्री में महेश्वर महादेव और झुमका में बजरंगबली का भव्य मंदिर है। हसुवा के महेश्वर महादेव के मंदिर को माखन साव के भतीजा और गोपाल साव के पुत्र बैजनाथ साव, लखुर्री के महेश्वरनाथ मंदिर को सरधाराम साव के प्रपौत्र प्रयाग साव ने और झुमका के बजरंगबली के मदिर को बहोरन साव ने बनवाया। इसी प्रकार टाटा के घर में अंडोल साव ने शिवलिंग स्थापित करायी थी। माखन वंश द्वारा निर्मित सभी मंदिरों के भोगराग की व्यवस्था के लिए कृषि भूमि निकाली गयी थी। इससे प्राप्त अनाज से मंदिरों में भोगराग की व्यवस्था होती थी। आज भी ये सभी मंदिर बहुत अच्छी स्थिति में है और उनके वंशजों के द्वारा सावन मास में श्रावणी पूजा और महाशिवरात्रि में अभिषेक किया जाता है। शिवरीनारायण के इस महेश्वरनाथ मंदिर के प्रथम पुजारी के रूप में श्री माखन साव ने पंडित रमानाथ को नियुक्त किया था। पंडित रमानाथ ठाकुर जगमोहनसिंह द्वारा सन् 1884 में लिखित तथा प्रकाशित पुस्तक ‘‘सज्जनाष्टक‘‘ के एक सज्जन थे। उनके मृत्यूपरांत उनके पुत्र श्री शिवगुलाम इस मंदिर के पुजारी हुए। फिर यह परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी इस मंदिर का पुजारी हुआ। इस परिवार के अंतिम पुजारी पंडित देवी महाराज थे जिन्होंने जीवित रहते इस मंदिर में पूजा-अर्चना की, बाद में उनके पुत्रों ने इस मंदिर का पुजारी बनना अस्वीकार कर दिया। सम्प्रति इस मंदिर में पंडित कार्तिक महाराज के पुत्र श्री सुशील दुबे पुजारी के रूप में कार्यरत हैं।
पातालेश्वर महादेव
बिलासपुर जिला मुख्यालय से 32 कि. मी. की दूरी पर बिलासपुर-शिवरीनारायण मार्ग में मस्तुरी से जोंधरा जाने वाली सड़क के पाश्र्व में स्थित प्राचीन ललित कला केंद्र मल्हार प्राचीन काल में 10 कि. मी. तक फैला था। यहां दूसरी सदी की विष्णु की प्रतिमा मिली है और ईसा पूर्व छटवीं से तेरहवीं शताब्दी तक क्रमबद्ध इतिहास मिलता है। यहां का पातालेश्वर महादेव जग प्रसिद्ध है। प्राप्त जानकारी के अनुसार कलचुरि राजा जाज्वल्यदेव द्वितीय के शासनकाल में संवत 1919 में पंडित गंगाधर के पुत्र सोमराज ने इस मंदिर का निर्माण कराया है। भूमिज शैली के इस मंदिर में पातालगामी छिद्र युक्त पातालेश्वर महादेव स्थित हैं। इस मंदिर की आधार पीठिका 108 कोणों वाली है और नौ सीढ़ी उतरना पड़ता है। प्रवेश द्वार की पट्टिकाओं में दाहिनी ओर शिव-पार्वती, ब्रह्मा-ब्रह्माणी, गजासुर संहारक शिव, चैसर खेलते शिव-पार्वती, ललितासन में प्रेमासक्त विनायक और विनायिका और नटराज प्रदर्शित हैं।
बुढ़ेश्वर महादेव
बिलासपुर जिला मुख्यालय से 22 कि. मी. की दूरी पर प्राचीन छत्तीसगढ़ की राजधानी रतनपुर स्थित है। यहां कलचुरि राजाओं का वर्षो तक एकछत्र शासन था। यहां उनके कुलदेव बुढ़ेश्वर महादेव और कुलदेवी महामाया थी। डाॅ. प्यारेलाल गुप्त के अनुसार तुम्माण के बंकेश्वर महादेव की कृपा से कलचुरि राजाओं को दक्षिण कोसल का राज्य मिला था। उनके वंशज राजा पृथ्वीदेव ने यहां बुढ़ेश्वर महादेव की स्थापना की थी। इसकी महिमा अपार है। मंदिर के सामने एक विशाल कंुड है।
पाली का शिव मंदिर
बिलासपुर जिला मुख्यालय से अम्बिकापुर रोड में 50 कि. मी. की दूरी पर पाली स्थित है। ऐसा उल्लेख मिलता है कि प्राचीन रतनपुर का विस्तार दक्षिण-पूर्व में 12 मील दूर पाली तक था, जहां एक अष्टकोणीय शिल्पकला युक्त प्राचीन शिव मंदिर एक सरोवर के किनारे है। मंदिर का बाहरी भाग नीचे से उपर तक कलाकार की छिनी से अछूता नहीं बचा है। चारों ओर अनेक कलात्मक मूर्तियां इस चतुराई से अंकित है, मानो वे बोल रही हों-देखो अब तक हमने कला की साधना की है, तुम पूजा के फूल चढ़ाओ। मध्य युगीन कला की शुरूवात इस क्षेत्र में इसी मंदिर से हुई प्रतीत होती है। खजुराहो, कोणार्क और भोरमदेव के मंदिरों की तरह यहां भी काम कला का चित्रण मिलता है।
रूद्रेश्वर महादेव
बिलासपुर से 27 कि. मी. की दूरी पर रायपुर राजमार्ग पर भोजपुर ग्र्राम से 7 कि. मी. की दूरी पर और बिलासपुर-रायपुर रेल लाइन पर दगौरी स्टेशन से मात्र एक-डेढ़ कि. मी. दूर अमेरीकापा ग्राम के समीप मनियारी और शिवनाथ नदी के संगम के तट पर ताला स्थित है जहां शिव जी की अद्भूत रूद्र शिव की 9 फीट ऊंची और पांच टन वजनी विशाल आकृति की उद्र्ववरेतस प्रतिमा है जो अब तक ज्ञात समस्त प्रतिमाओं में उच्चकोटि की प्रतिमा है। जीव-जन्तुओं को बड़ी सूक्ष्मता से उकेरकर संभवतः उसके गुणों के सहधर्मी प्रतिमा का अंग बनाया गया है।
गंधेश्वर महादेव
रायपुर जिलान्तर्गत प्राचीन नगर सिरपुर महानदी के तट पर स्थित है। यह नगर प्राचीन ललित कला के पांच केंद्रों में से एक है। यहां गंधेश्वर महादेव का भव्य मंदिर है, जो आठवीं शताब्दी का है। माघ पूर्णिमा को यहां प्रतिवर्ष मेला लगता है।
कुलेश्वर महादेव
रायपुर जिला मुख्यालय से दक्षिण-पूर्वी दिशा में 50 कि. मी. की दूरी पर महानदी के तट पर राजिम स्थित है। यहां भगवान राजीव लोचन, साक्षी गोपाल, कुलेश्वर और पंचमेश्वर महादेव सोढुल, पैरी और महानदी के संगम के कारण पवित्र, पुण्यदायी और मोक्षदायी है। यहां प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा से 15 दिवसीय मेला लगता है। इस नगर को छत्तीसगढ़ शासन पर्यटन स्थल घोषित किया है।
इसके अलावा पलारी, पुजारीपाली, गंडई-पंडरिया, बेलपान, सेमरसल, नवागढ़, देवबलौदा, महादेवघाट (रायपुर), चांटीडीह (बिलासपुर), और भोरमदेव आदि में भी शिव जी के मंदिर हैं जो श्रद्धा और भक्ति के प्रतीक हैं। इन मंदिरों में श्रावण मास और महाशिवरात्री में पूजा-अर्चना होती है।
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