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नवरात्रि विशेष : छत्तीसगढ़ में शक्ति परंपरा – प्रो. अश्विनी केशरवानी
नवरात्रि पर्व- नौ दिन तक देवियों की पूजा-अर्चना का सात्विक पर्व, ग्रामदेवी, ईष्टदेवी और कुलदेवी को प्रसन्न करने का पर्व। शक्ति साधक जगत की उत्पŸिा के पीछे ‘‘शक्ति’’ को ही मूल तत्व मानते हैं और माता के रूप में उनकी पूजा करते हैं। समस्त देव मंडल शक्ति के कारण ही बलवान है, उसके बिना वे शक्तिहीन हो जाते हैं। यहां तक कि सृष्टि के निर्माण में शक्ति ईश्वर की प्रमुख सहायिका होती हैं। शक्ति ही समस्त तत्वों का मूल आधार है। शक्ति को समस्त लोक की पालिका-पोषिता माना गया है। वह प्रकृति का स्वरूप है। इस प्रकार शाक्तों अथवा शक्ति पूजकों ने प्रकृति की सृजनात्मक शक्ति को पारलौकिक पवित्रता और ब्रह्मवादिता प्रदान की है। अतः शक्ति सृजन और नियंत्रण की पारलौकिक शक्ति है। वह समस्त विश्व का संचालन भी करती है। इसीकारण वह जगदंबा और जगन्माता है। छत्तीसगढ़ में शिवोपासना के साथ शक्ति उपासना प्राचीन काल से प्रचलित है। कदाचित इसी कारण शिव भी शक्ति के बिना शव या निष्क्रिय बताये गये हैं। योनि पट्ट पर स्थापित शिवलिंग और अर्द्धनारीश्वर स्वरूप की कल्पना वास्तव में शिव-शक्ति या प्रकृति-पुरूष के समन्वय का परिचायक है। मनुष्य की शक्तियों को प्राप्त करने की इच्छा शक्ति ने शक्ति उपासना को व्यापक आयाम दिया है। मनुष्य के भीतर के अंधकार और अज्ञानता या पैशाचिक प्रवृत्तियों से स्वयं के निरंतर संघर्ष और उनके उपर विजय का संदेश छिपा है। परिणामस्वरूप दुर्गा, काली और महिषासुर मर्दिनी आदि देवियों की कल्पना की गयी जो भारतीय समाज के लिए अजस्र शक्ति की प्ररणास्रोत बनीं। शैव धर्म के प्रभाव में वृद्धि के बाद शक्ति की कल्पना को शिव की शक्ति उमा या पार्वती से जोड़ा गया और यह माना गया कि स्वयं उमा, पार्वती या अम्बा समय समय पर अलग अलग रूप ग्रहण करती हैं। शक्ति समुच्चय के विभिन्न रूपों में महालक्ष्मी, महाकाली और महासरस्वती प्रमुख बतायी गयी हैं। देवी माहात्म्य में महालक्ष्मी रूप में देवी को चतुर्भुजी या दशभुजी बताया गया है और उनके हाथों में त्रिशूल, खेटक, खड्ग, शक्ति, शंख, चक्र, धनुष तथा एक हाथ में वरद मुद्रा व्यक्त करने का उल्लेख मिलता है। देवी के वाहन के रूप में सिंह (दुर्गा, महिषमर्दिनी, उमा), गोधा (गौरी, पार्वती), पद्म (लक्ष्मी), हंस (सरस्वती), मयूर (कौमारी), प्रेत या शव (चामुण्डा) गर्दभ (शीतला) होते हैं।
देवी की मूर्तियों को मुख्यतः सौम्य तथा उग्र या संहारक रूपों में बांटा जा सकता है। संहारक रूपों में देवी के हाथों में त्रिशूल, धनुष, बाण, पाश, अंकुश, शंख, चक्र, खड्ग और कपाल जैसे आयुध होते हैं। उनका दूसरा हाथ अभय या वरद मुद्रा में होता है। इसी प्रकार संहारक रूपों में अभय या वरद मुद्रा देवी के सर्वकल्याण और असुरों एवं दुष्टात्माओं के संहार द्वारा भक्तों को अभयदान और इच्छित वरदान देने का भाव व्यक्त होता है। उग्र रूपों में महिषमर्दिनी, दुर्गा, काली, चामुण्डा, भूतमाता, कालरात्रि, रौद्री, शिवदूती, भैरवी, मनसा एवं चैसठ योगिनी मुख्य हैं। देवी के सौम्य रूपों में लक्ष्मी एवं क्षमा (पद्मधारिणी), सरस्वती (वीणाधारिणी), गौर, पार्वती और गंगा-यमुना (कलश और पद्मधारिणी) तथा अन्नपूर्णा प्रमुख हैं। भारतीय शिल्प में लगभग सातवीं शताब्दी के बाद से शक्ति के विविध रूपों का शिल्पांकन मिलता है। इसके उदाहरण खजुराहो, भुवनेश्वर, भेड़ाघाट, हिंगलाजगढ़, हीरापुर, एलोरा, कांचीपुरम्, महाबलीपुरम्, तंजौर, बेलूर, सोमनाथ आदि जगहों में मिलता है। हमारे देश में गंगा, यमुना, नवदुर्गा, द्वादश गौरी, पार्वती, महिषमर्दिनी, सप्तमातृका, सरस्वती एवं लक्ष्मी की मर्तियों की पूजा अर्चना प्रचलित है।
दुर्गासप्तमी एवं पुराणों में दुर्गा के नौ रूपों क्रमशः शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघण्टा, कूष्माण्डी, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धदात्री का उल्लेख मिलता है। भारतीय शिल्प में सभी नौ दुर्गा के अलग अलग उदाहरण नहीं मिलते लेकिन चतुर्भुजा या अधिक भुजाओं वाली सिंहवाहिनी की मूर्ति खजुराहो के लक्ष्मण और विश्वनाथ मंदिर में, एलोरा, हिंगलाजगढ़, महाबलीपुरम् एवं ओसियां में मिले हैं। दुर्गा का एक विशेष रूप चित्तौड़गढ़ में मिला है जो क्षेमकरी के रूप में भारतीय शिल्प में लोकप्रिय था। दक्षिण भारत के मंदिरों में द्वादश गौरी की मूर्ति मिलती है जिनमें प्रमुख रूप से उमा, पार्वती, रम्भा, तोतला और त्रिपुरा उल्लेखनीय है। द्वादश गौरी के नाम और उनके आयुध निम्नानुसार है:-
1. उमा:- अक्षसूत्र, पद्म, दर्पण, कमंडलु।
2. पार्वती:- वाहन सिंह और दोनों पाश्र्वो में अग्निकुण्ड और हाथों में अक्षसूत्र, शिव, गणेश और कमंडलु।
3. गौरी:- अक्षसूत्र, अभय मुद्रा, पद्म और कमण्डलु।
4. ललिता:- शूल, अक्षसूत्र, वीणा तथा कमण्डलु।
5. श्रिया:- अक्षसूत्र, पद्म, अभय मुद्रा, वरद मुद्रा।
6. कृष्णा:- अक्षसूत्र, कमण्डलु, दो हाथ अंजलि मुद्रा में तथा चारों ओर पंचाग्निकुंड।
7. महेश्वरी:- पद्म और दर्पण।
8. रम्भा:- गजारूढ़, करों में कमण्डलु, अक्षमाला, वज्र और अंकुश।
9. सावित्री:- अक्षसूत्र, पुस्तक, पद्म और कमण्डलु।
10. त्रिषण्डा या श्रीखण्डा:- अक्षसूत्र, वज्र, शक्ति और कमण्डलु।
11. तोतला:- अक्षसूत्र, दण्ड, खेटक,चामर।
12. त्रिपुरा:- पाश, अंकुश, अभयपुद्रा और वरदमुद्रा।
द्वादश गौरी के सामूहिक उत्कीर्णन का उदाहरण मोढेरा के सूर्य मंदिर की वाह्यभित्ति की रथिकाओं में देखा जा सकता है। अभी केवल दस आकृतियां ही सुरक्षित हैं। इसी प्रकार हिंगलाजगढ़ में द्वादश रूपों में केवल नौ रूप की दृष्टब्य है। परमार कालीन ये मूर्तियां वर्तमान में इंदौर के संग्रहालय में सुरक्षित हैं। ऐलोरा से पार्वती की 14 मूर्तियां मिली हैं जिनमें रावणनुग्रह, शिव के साथ चैपड़ खेलती पार्वती और स्वतंत्र मूर्तियां मिली हैं। इसीप्रकार भुवनेश्वर में महिषमर्दिनी की 21, ऐलोरा में 10, खजुराहो, वाराणसी और छत्तीसगढ़ के चैतुरगढ़ और मदनपुरगढ़ में मूर्तियां हैं।
देवी पूजन की परंपरा मुख्यतः दो रूपों में मिलती है- एक मातृदेवी के रूप में और दूसरी शक्ति के रूप में। प्रारंभ में देवी की उपासना माता के रूप में अधिक लोकप्रिय थी। पुराणों में दुर्गा स्तुतियों में जगन्माता या जगदम्बा स्वरूप की अवधारणा में देवी के माता स्वरूप का स्पष्ट संकेत मिलता है। भारत, मिस्र, मेसोपोटामिया, यूनान और विश्व की प्राचीन सभ्यताओं में धर्म की अवधारणा के साथ ही मातृपूजन की परंपरा आरंभ हुई। सृष्टि की निरंतरता बनाये रखने में योगदान के कारण ही मातृ देवियों का पूजन प्रारंभ हुआ। माता की प्रजनन शक्ति जो सभ्यता की निरंतरता का मूलाधार है, मातृदेवी के रूप में उनके पूजन का मुख्य कारण रही है। सिंधु सभ्यता के समय से मातृदेवियों की पूजा प्रचलित थी। शक्ति वस्तुतः क्र्रियाशीलता का परिचायक और उसी का मूर्तरूप है। शक्ति पूजन के अंतर्गत विभिन्न देवताओं की क्रियाशीलता उनकी शक्तियों में निहित मायी गयी। तद्नुरूप सभी प्रमुख देवताओं की शक्तियों की कल्पना की गयी। देवताओं की शक्तियों की कलपना सांख्यदर्शन की प्रकृति और पुरूष तथा दोनों के अंतरावलंबन के भाव से संबंधित है। इसी कारण शिव भी शक्ति के बिना शव या निष्क्रिय बताये गये हैं। योनिपट्ट पर स्थापित शिवलिंग और अर्द्धनारीश्वर स्वरूप की परिकल्पना वस्तुतः शिवशक्ति या प्रकृति पुरूष की समन्वय का परिचायक है। मनुष्य की विभिन्न प्रकार की शक्तियों को प्राप्त करने की अनंत इच्छा ने शक्ति की उपासना को व्यापक आयाम दिया है।
छत्तीसगढ़ में देवियां ग्रामदेवी और कुलदेवी के रूप में पूजित हुई। विभिन्न स्थानों में देवियां या तो समलेश्वरी या महामाया देवी के रूप में प्रतिष्ठित होकर पूजित हो रही हैं। राजा-महाराजाओं, जमींदारों और मालगुजार भी शक्ति उपासक हुआ करते थे। वे अपनी राजधानी में देवियों को ‘‘कुलदेवी’’ के रूप में स्थापित किये हैं। देवियों को अन्य राजाओं से मित्रता के प्रतीक के रूप में भी अपने राज्य में प्रतिष्ठित करने का उल्लेख तत्कालीन साहित्य में मिलता है। यहां देवियों की अनेक चमत्कारी किंवदंतियां प्रचलित हैं। ..चलो बुलावा आया है, माता ने बुलाया है। नवरात्रि में देवियों की कृपा प्राप्त करने के लिए देवि दर्शन की जाती हैं। ग्रामीणजनों में देवियों की प्रसन्न करने के लिए ‘‘बलि’’’ दिये जाने और मातासेवा गीत गाकर किये जाने की परंपरा है। उड़ियान राज से जुड़े चंद्रपुर में चंद्रसेनी माता के दरबार में ग्रामीणजनों द्वारा बलि देकर उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। देवी मंदिरों में श्रद्धालुओं की बढ़ती भीढ़ बढ़ती जा रही है और देवी स्थल शक्तिपीठ के रूप में विकसित होते जा रहे हैं।
रतनपुर की महामाया:-
दक्षिण-पूर्वी रेल्वे के बिलासपुर जंक्शन और जिला मुख्यालय से लगभग 22 कि.मी. की दूरी पर महामाया की नगरी रतनपुर स्थित है। यह हैहहवंशी कलचुरी राजाओं की विख्यात् राजधानी रही है। इस वंश के राजा रत्नदेव ने महामाया के निर्देश पर ही रत्नपुर नगर बसाकर महामाया देवी की कृपा से दक्षिण कोसल पर निष्कंटक राज किया। उनके अधीन जितने राजा, जमींदार और मालगुजार रहे, सबने अपनी राजधानी में महामाया देवी की स्थापना की और उन्हें अपनी कुलदेवी मानकर उनकी अधीनता स्वीकार की। उनकी कृपा से अपने कुल-परिवार, राज्य में सुख शांति और वैभव की वृद्धि कर सके। पौराणिक काल से लेकर आज तक रतनपुर में महामाया देवी की सŸाा स्वीकार की जाती रही है। राजा रत्नदेव भटकते हुए जब यहां के घनघोर वन में आये और सांझ होनें के कारण एक पेड़ पर चढ़कर रात्रि गुजारी। पेड़ की डगाल को पकड़कर सोते रहे। अचानक अर्द्धरात्रि में पेड़ के नीचे देवी महामाया की सभा लगी दिखाई दी। उनके निर्देश पर ही उन्होंने यहां अपनी राजधानी स्थापित थी। यही देवी आज जन आस्था का केंद्र बनी हुई है। मंत्र शक्ति से परिपूर्ण दैवीय कण यहां के वायुमंडल में बिखरे हैं जो किसी भी उद्दीग्न व्यक्ति को शांत करने के लिए पर्याप्त हैं। यहां के भग्नावशेष हैहहवंशी कलचुरी राजवंश की गाथा सुनाने के लिए पर्याप्त है। महामाया देवी और बूढ़ेश्वर महादेव की कृपा यहां के लिए कवच बना हुआ है। पंडित गोपालचंद्र ब्रह्मचारी भी यही गाते हैं:-
रक्षको भैरवो याम्यां देवो भीषण शासनः
तत्वार्थिभिःसमासेव्यः पूर्वे बृद्धेश्वरः शिवः।।
नराणां ज्ञान जननी महामाया तु नैर्ऋतै
पुरतो भ्रातृ संयुक्तो राम सीता समन्वितः।।
देवी महामाया मंदिर ट्रस्ट बनाकर अराधकों द्वारा मंदिर का जीर्णोद्धार कराया गया है। दर्शनार्थियों की सुविधा के लिए धर्मशाला, यज्ञशाला, भोगशाला और अस्पताल आदि की व्यवस्था की गयी है। नवरात्र में श्रद्धालुओं की भीड़ ‘‘ चलो बुलावा आया है, माता ने बुलाया है…’’ का गायन करती चली आती है।
सरगुजा की महामाया और समलेश्वरी देवी:-
वनांचल प्रांत झारखंड की सीमा से लगा छत्तीसगढ़ का आदिवासी बाहुल्य वनाच्छादित जिला मुख्यालय अम्बिकापुर चारों ओर से सड़क मार्ग और अनुपपुर से विश्रामपुर तक रेल्वे लाईन से जुड़ा पूर्व फ्यूडेटरी स्टेट्स है। यहां की पवित्र पहाड़ी पर महाकवि कालिदास का आश्रम था। विश्व की प्राचीनतम् नाट्यशाला भी यहां की रामगढ़ पहाड़ी में स्थित है। त्रेतायुग में श्रीराम और लक्ष्मण लंका जाते देवियों की इस भूमि को प्रणाम करने यहां आये थे। यहां आज भी महामाया और समलेश्वरी देवी एक साथ विराजित हैं। तभी तो छत्तीसगढ़ गौरव के कवि पंडित शुकलाल पांडेय गाते हैं:-
यदि लखना चाहते स्वच्छ गंभीर नीर को
क्यों सिधारते नहीं भातृवर ! जांजगीर को ?
काला होना हो पसंद रंग तज निज गोरा
चले जाइये निज झोरा लेकर कटघोरा
दधिकांदो उत्सव देखना हो तो दुरूग सिधारिये
लखना हो शक्ति उपासना तो चले सिरगुजा जाईये।।
कवि की बातों में सच्चाई है तभी तो सरगुजा आज अद्वितीय शक्ति उपासना का केंद्र है। छŸाीसगढ़ ही नहीं बल्कि सुदूर उड़ीसा के संबलपुर तक समलेश्वरी देवी, रतनपुर में महामाया देवी और चंद्रपुर में चंद्रसेनी देवी सरगुजा की भूमि से ही ले जायी गयी। मराठा शासकों के सैनिक और सामंतों द्वारा महामाया को नहीं ले सकने पर उसके सिर को काटकर रतनपुर ले आये लेकिन आगे नहीं ले जा सके और रतनपुर में ही प्रतिष्ठित कर दिये।
चंद्रपुर की चंद्रसेनी देवी:-
महानदी और मांड नदी से घिरा चंद्रपुर, जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत रायगढ़ से लगभग 32 कि.मी., सारंगढ़ से 22 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यहां चंद्रसेनी देवी का वास है। किंवदंति है कि चंद्रसेनी देवी सरगुजा की भूमि को छोड़कर उदयपुर और रायगढ़ होते हुये चंद्रपुर में महानदी के तट पर आ जाती हैं। महानदी की पवित्र शीतल धारा से प्रभावित होकर यहां पर वह विश्राम करने लगती हैं। वर्षों व्यतीत हो जाने पर भी उनकी नींद नहीं खुलती। एक बार संबलपुर के राजा की सवारी यहां से गुजरी और अनजाने में चंद्रसेनी देवी को उनका पैर लग जाता है और उनकी नींद खुल जाती है। फिर स्वप्न में देवी उन्हें यहां मंदिर निर्माण और मूर्ति स्थापना का निर्देश देती हैं। संबलपुर के राजा चंद्रहास द्वारा मंदिर निर्माण और देवी स्थापना का उल्लेख मिलता है। देवी की आकृति चंद्रहास जैसे होने के कारण उन्हें ‘‘चंद्रहासिनी देवी’’ भी कहा जाता है। इस मंदिर की व्यवस्था का भार उन्होंने यहां के जमींदार को सौंप दिया। यहां के जमींदार ने उन्हें अपनी कुलदेवी स्वीकार करके पूजा अर्चना करने लगा। आज पहाड़ी के चारों ओर अनेक धार्मिक प्रसंगों, देवी-देवताओं, वीर बजरंग बली और अर्द्धनारीश्वर की आदमकद प्रतिमा, सर्वधर्म सभा और चारों धाम की आकर्षक झांकी लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र है। कवि तुलाराम गाोपाल की एक बानगी पेश है:-
खड़ी पहाड़ी की सर्वोच्च शिला आसन पर
तुम्हें देख बराह रूप में चंद्राकृति पर
जब मन ही में प्रश्न किया सरगुजहीन बाली
महानदी की बीच धार की धरती डोली।
बस्तर की दंतेश्वरी देवी:-
विशाल भूभाग में फैले बस्तर को यदि देवी-देवताओं की भूमि कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। यहां के हर गांव के अपने देवी-देवता हैं। हर गोव में ‘‘देव गुड़ी’’ होती है, जहां किसी न किसी देवी-देवता का निवास होता है। लकड़ी की पालकी में सिंदूर से सने और रंग बिरंगी फूलों की माला से सजे विभिन्न आकृतियों वाली आकर्षक मूर्तियां प्रत्येक देव गुड़ी में देखने को मिल जायेगी। ये यहां के गांवों के आस्था के केंद्र हैं। सम्पूर्ण बस्तर की अधिष्ठात्री दंतेश्वरी देवी हैं जो यहां के काकतीय वंशीय राजाओं की कुलदेवी है। इन्हें शक्ति का प्रतीक माना जाता है और शंखिनी डंकनी नदी के बीच में दंतेश्वरी देवी का भव्य मंदिर है। भारत के शक्तिपीठों में एक दंतेवाड़ा में शक्ति का दांत गिरने के कारण यहां की देवी दंतेश्वरी देवी के नाम से प्रतिष्ठित हुई, ऐसा विश्वास किया जाता है। देवी के नाम पर दंतेवाड़ा नगर बसायी गयी जो आज दंतेवाड़ा जिला का मुख्यालय है।
बस्तर के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को दृष्टिपात करने से पता चलता है कि राजा प्रताप रूद्रदेव के साथ दंतेश्वरी देवी आंध्र प्रदेश के वारंगल राज्य से यहां आयी। मुगलों से परास्त होकर राजा प्रताप रूद्रदेव वारंगल को छोड़कर इधर उधर भटकने लगे। देवी अराधक तो वे थे ही, वे उन्हीं के शरण में गये। तब देवी मां का निर्देश हुआ कि ‘‘ मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन घोड़े पर सवार होकर तुम अपनी विजय यात्रा आरंभ करो, जहां तक तुम्हारी विजय यात्रा होगी वहां तक तुम्हारा एकछत्र राज्य होगा…।’’ राजा के निवेदन पर देवी मां उनके साथ चलना स्वीकार कर ली। लेकिन शर्त थी कि राजा पीछे मुड़कर नहीं देखेंगे। अगर राजा पीछे मुड़कर देखेंगे, तब देवी मां आगे नहीं बढ़ेंगी। राजा को उनके पैर की घुंघरूओं की आवाज से उनके साथ चलने का आभास होता रहेगा। राजा प्रताप रूद्र्र्रदेव ने विजय यात्रा आरंभ की और देवी मां उनकी विजय यात्रा के साथ चलने लगी। जब राजा की सवारी शंखिनी डंकनी नदी को पार करने लगी तब देवी मां के पैर की घुंघरू सुनायी नहीं देता है तब राजा पीछे मुड़कर देखने लगे जिससे देवी आगे बढ़ने से इंकार कर दी और वहीं प्रतिष्ठित हुई। बाद में राजा ने उनके लिए एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया और उनके नाम पर दंतेवाड़ा नगर बसायी। बस्तर में कोई भी पूजा-अर्चना और त्योहार दंतेश्वरी देवी की पूजा के बिना पूरा नहीं होता। दशहरा के दिन यहां रावण नहीं मरता बल्कि दंतेश्वरी देवी की भव्य शोभायात्रा निकलती है जिसमें बस्तर के सभी देवी-देवता शामिल होते हैं। नवरात्र में बस्तर का राजा दंतेश्वरी देवी के प्रथम पुजारी के रूप में नौ दिन मंदिर में निवास करके पूजा-अर्चना करते थे। इसी प्रकार खैरागढ़ में दंतेश्वरी देवी की काष्ठ प्रतिमा स्थापित है जो खैरागढ़ राज परिवार की कुलदेवी है।
डोंगरगढ़ की बमलेश्वरी देवी:-
राजनांदगांव जिलान्तर्गत 25 कि.मी पर स्थित दक्षिण-पूर्वी रेल्वे के डोंगरगढ़ स्टेशन में ट्रेन से उतरते ही सुन्दर पहाड़ी उसमें छोटी छोटी सीढ़ियां और उसके उपर बमलेश्वरी देवी का भव्य मंदिर का दर्शन कर मन प्रफुल्लित हो श्रद्धा से भर उठता है। प्राचीन काल में यह कामावती नगर के नाम से विख्यात् था। यहां के राजा कामसेन बड़े प्रतापी और संगीत कला के प्रेमी थे। राजा कामसेन के उपर बमलेश्वरी माता की विशेष कृपा थी। उन्हीं की कृपा से वे सवा मन सोना प्रतिदिन दान किया करते थे। उनके राज दरबार में कामकंदला नाम की अति सुन्दर राज नर्तकी थी। कामकंदला वास्तव में एक अप्सरा थी जो शाप के कारण पृथ्वी में अवतरित हुई थी। राजनर्तकी को यहां कुंवारी रहना पड़ता था। इस राज दरबार में माधवानल जैसे कला और संगीतकार भी थे। एक बार राजदरबार में दोनों का अनोखा समन्वय देखने को मिला और राजा कामसेन उनकी संगीत साधना से इतने प्रभावित हुए कि वे माधवानल को अपने गले का हार दे दिये। मगर माधवानल ने इसका श्रेय कामकंदला को देते हुए उस हार को उसे पहना देता है। इससे राजा अपने को अपमानित महसूस किये और गुस्से में आकर माधवानल को देश निकाला दे दिया। इधर कामकंदला उनसे छिप छिपकर मिलती रही। दोनों एक दूसरे को प्रेम करने लगे थे लेकिन राजा के भय से सामने नहीं आ सकते थे। फिर उन्होंने उज्जैन के राजा विक्रमादित्य की शरण में गया और उनका मन जीतकर उनसे पुरस्कार में कामकंदला को राजा कामसेन से मुक्त कराने की बात कही। राजा विक्रमादित्य ने दोनों के प्रेम की परीक्षा ली और दोनों को खरा पाकर कामकंदला की मुक्ति के लिए पहले राजा कामसेन के पास संदेश भिजवाया। उसने कामकंदला को मुक्त करने से इंकार कर दिया। फलस्वरूप दोनों के बीच घमासान युद्ध होने लगा। दोनों वीर योद्धा थे और एक महाकाल के भक्त थे तो दूसरा विमला माता के भक्त। दोनों अपने अपने इष्टदेव का आव्हान करते हैं। तब एक तरफ महाकाल और दूसरी ओर भगवती विमला मां अपने अपने भक्त को सहायता करने पहुंचे। फिर महाकाल विमला माता से राजा विक्रमादित्य को क्षमा करने की बात कहकर कामकंदला और माधवानल को मिला देते हैं और दोनों अंतर्ध्यान हो जाते हैं। बाद में राजा कामसेन की नगरी काल के गर्त में समा जाती है। वही आज बमलेश्वरी देवी के रूप में छत्तीसगढ़ वासियों की अधिष्ठात्री है। अतीत के अनेक तथ्यों को अपने गर्भ में समेटे बमलेश्वरी पहाड़ी अविचल खड़ा है। यह अनादिकाल से जग जननी मां बमलेश्वरी अंतर्ध्यान देवी की सर्वोच्च शाश्वत शक्ति का साक्षी है। लगभग एक हजार सीढ़ियों को चढ़कर माता के दरबार में पहुंचने पर जैसे सारी थकान दूर हो जाती है, मन श्रद्धा से भर उठकर गा उठता है:-
तेरी होवे जै जैकार, नमन करूं मां करो स्वीकार।
तेरी महिमा अनुपम न्यारी जग में सबसे बलिहारी है।
तू ही अम्बे, तू ही दुर्गा, बमलेश्वरी तेरी सिंह की सवारी।
नैया सबकी पार लगे मां तरी जै जैकार…..।
इसी प्रकार रायगढ़, सारंगढ़, उदयपुर, चांपा में समलेश्वरी देवी, कोरबा जमींदारी में सर्वमंगला देवी, जशपुर रियासत में चतुर्भुजी काली माता, अड़भार में अष्टभुजी देवी, झलमला में गंगामैया, केरा, पामगढ़ और दुर्ग और कुरूद में चंडी दाई, खरौद में सौराईन दाई, शिवरीनारायण में अन्नपूर्णा माता, मल्हार में डिडनेश्वरी देवी, रायपुर में बिलासपुर रोड में तथा पंडित रविशंकर शुक्ला विश्वविद्यालय के पीछे बंजारी देवी का भव्य मंदिर है। छुरी की पहाड़ी में कोसगई देवी, बलौदा के पास खम्भेश्वरी देवी की भव्य प्रतिमा पहाड़ी में स्थित हैं। नवरात्र में यहां दर्शनार्थियों की अपार भीड़ होती है।
या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।
•प्रो.अश्विनी केशरवानी
•संपर्क –
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