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- भीष्म साहनी पर विशेष [जन्म 8 अगस्त 1915 रावलपिंडी पाकिस्तान : निधन 11 जुलाई 2003 दिल्ली] आम आदमी नहीं चाहता कि किसी भी तरह के दंगे, फसाद, हिंसा हो, आम आदमी तो चैन से जीना चाहता है. मानवीय संवेदनाओं को तलाशने, सामाजिक ताने बाने को समझने और जीवन मूल्यों को जीने वाले लेखक – भीष्म साहनी
भीष्म साहनी पर विशेष [जन्म 8 अगस्त 1915 रावलपिंडी पाकिस्तान : निधन 11 जुलाई 2003 दिल्ली] आम आदमी नहीं चाहता कि किसी भी तरह के दंगे, फसाद, हिंसा हो, आम आदमी तो चैन से जीना चाहता है. मानवीय संवेदनाओं को तलाशने, सामाजिक ताने बाने को समझने और जीवन मूल्यों को जीने वाले लेखक – भीष्म साहनी
भीष्म साहनी और तमस या तमस और भीष्म साहनी एक ही प्रतिध्वनि उत्पन्न करता है और उससे एक ही छवि उभरती है जिसका नाम होता है भीष्म साहनी। लेखक के साहित्यक जीवन यात्रा में कभी – कभार कोई एक अविस्मरणीय, कालजयी या अमर कृति बन पाती है।
‘तमस’ भीष्म साहनी के लेखकीय जीवन की एक अमर कृति है।तमस के लिए ही उन्हें 1975 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1975 में ही शिरोमणि लेखक अवार्ड (पंजाब सरकार), 1980 में एफ्रो एशियन राइटर्स असोसिएशन का लोटस अवार्ड, 1983 में सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड तथा 1998 में भारत सरकार के पद्मभूषण अलंकरण से विभूषित किया गया। उनके उपन्यास तमस पर 1986 में एक फिल्म का निर्माण भी किया गया था। जो काफी चर्चित हुई।जिसके बाद तमस उपन्यास लाइब्रेरी या बुक स्टाल में धूल खाते एक कोने में पड़े बंडल से बाहर निकल कर जन जन के पास पहुंच गई।वह जीवंत हो उठी।वास्तव में भीष्म साहनी मानवीय संवेदनाओं को तलाशने, समाजिक तानेबाने को समझने,जीवन के मूल्यों को जीने वाले लेखक थे।यही कारण है कि उनकी कृतियां (कहानी,उपन्यास, गद्य,कविताएं आदि) पाठकों के हृदय को छूती है।और तथ्य एवम कथ्य को पाठक अपने जीवन के बिल्कुल आस पास पाता है। कभी कभी तो पढ़ते पढ़ते वह खुद ही अपने आपको कहानी के पात्र के रूप में महसूस करने लगता है।
हिन्दी साहित्य में प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने ,व्यवस्था तथा जीवन के द्वंद और सामाजिक सरोकार के साथ मानवीय संवेदनाओं का लेखक माना जाता है।लेकिन यह हमें यह भी समझना होगा कि मुंशी प्रेमचंद के समय की परिस्थितियों और भीष्म साहनी के समय काल की परिस्थितियों में काफी बदलाव आ चुका था परंतु जीवन की विसंगतियों और व्यवस्था के आचरण में कोई मौलिक अंतर नहीं हुआ था।
इप्टा , प्रगतिशील लेखक संघ और जनवादी विचारधारा से जुड़े प्रसिद्ध लेखकों और चिंतकों की प्रथमश्रेणी के साहित्यकार होने के बावजूद किसी व्यक्ति व विशेष राजनैतिक दल को अपने ऊपर कभी हावी नहीं होने दिया। वामपंथी विचारधारा के साथ जुड़े होने के कारण वे मानवीय मूल्यों को कभी आंखो से ओझल नहीं होने देते थे। आपाधापी और उठापटक के युग में भीष्म साहनी का व्यक्तित्व बिल्कुल अलग था। उन्हें उनके लेखन के लिए तो स्मरण किया ही जाएगा लेकिन अपनी सहृदयता के लिए वे चिरस्मरणीय रहेंगे। हिन्दी फ़िल्मों के जाने मानेअभिनेता बलराज साहनी उनके बड़े भाई थे।
सरल सहज व्यक्तित्व –
भीष्म साहनी को पद्मभूषण अलंकरण से भी विभूषित किया गया. इन बड़े बड़े पुरस्कारों और सम्मानों के मिलने,पाठकों की तारीफें मिलने के साथ-साथ बतौर लेखक समाज-सरकार भी उन्हें सराहते रहे हैं फिर भी उनकी सहजता-सरलता कभी कम नहीं हुई. शायद इसी कारण उन्होंने जिस भी विधा को छुआ, कुछ अनमोल उसके लिए छोड़ ही गए. कहानियों में चाहे वह ‘चीफ की दावत’, हो या फिर ‘साग मीट’, उपन्यास में ‘तमस’ और नाटकों में ‘हानूश’ और ‘कबीरा खड़ा बजार में’ जैसी अनमोल कृतियां समाज को दे गए।
भीष्म साहनी के व्यक्तित्व की सहजता-सरलता वाले आयाम पर उनकी बेटी कल्पना साहनी की वह बात बेहद दिलचस्प है जो उन्होंने अपने पिता के आखिरी उपन्यास ‘नीलू, नीलिमा, नीलोफर’ के विमोचन के मौके पर कही थी. यहां उन्होंने बताया, ‘वो जो कुछ भी लिखते थे सबसे पहले मेरी मां को सुनाते थे. मेरी मां उनकी सबसे पहली पाठक और सबसे बड़ी आलोचक थीं. इस उपन्यास को भी मां को सौंपकर भीष्म जी किसी बच्चे की तरह उत्सुकता और बेचैनी से उनकी राय की प्रतीक्षा कर रहे थे. जब मां ने किताब के ठीक होने की हामी भरी तब जाकर उन्होंने चैन की सांस ली थी।
समीक्षा –
आलोचक नामवर सिंह भीष्म साहनी के लिए कहते हैं, “मुझे उनकी प्रतिभा पर आश्चर्य होता है कि कॉलेज में पढ़ते हुए वे लिखने, प्रगतिशील लेखक संघ से भी जुड़ने का समय निकाल लेते थे.मैं यह नहीं कहता कि उनकी सभी रचनाओं का स्तर ऊंचा है , लेकिन अपनी हर रचना में उन्होंने एक स्तर बनाए रखा… हैरानी होती है यह देख कर कि रावलपिंडी से आया हुआ आदमी जो पेशे से अंग्रेज़ी का अध्यापक था और जिसकी भाषा पंजाबी थी, वह हिंदी साहित्य में एक प्रतिमान स्थापित कर रहा था।
समाज को इस तरह देखने का काम मुंशी प्रेमचंद ने भी अपनी रचनाओं में किया लेकिन भीष्म साहनी का देखा-समझा समाज प्रेमचंद के आगे के समय का समाज है. साथ ही भीष्म जी ने अपनी भाषा में वैसी ही सादगी और सहजता रखी जो रचनाओं को बौद्धिकों के दायरे निकालकर आम लोगों तक पहुंचा देती है. यदि विष्णु प्रभाकर की अद्भुत रचना ‘आवारा मसीहा’ के बजाय तमस को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला तो इसकी एक वजह इस उपन्यास की वह भाषा भी होगी जिससे विषय की मार्मिकता लोगों को दिलों तक पहुंच जाती है.
जीवन वृत्त
जन्म 8 अगस्त 1915, रावलपिंडी, पाकिस्तान- निधन 11 जुलाई 2003, दिल्ली
रावलपिंडी पाकिस्तान में जन्मे भीष्म साहनी आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रमुख स्तंभों में से थे। 1937 में लाहौर गवर्नमेन्ट कॉलेज, लाहौर से अंग्रेजी साहित्य में एम ए करने के बाद साहनी ने 1958 में पंजाब विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि हासिल की। माता-पिता: हरबंस लाल साहनी, लक्ष्मी देवी।
रावलपिंडी पाकिस्तान में जन्मे भीष्म साहनी आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रमुख स्तंभों में से एक थे। 1937 में लाहौर गवर्नमेन्ट कॉलेज, लाहौर से अंग्रेजी साहित्य में एम ए करने के बाद साहनी ने 1958 में पंजाब विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि हासिल की। भारत पाकिस्तान विभाजन के पूर्व अवैतनिक शिक्षक होने के साथ-साथ ये व्यापार भी करते थे। विभाजन के बाद उन्होंने भारत आकर समाचारपत्रों में लिखने का काम किया। बाद में भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) से जुड़ गए। इसके पश्चात अंबाला और अमृतसर में भी अध्यापक रहने के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय में साहित्य के प्रोफेसर बने। 1957 से 1963 तक मास्को में विदेशी भाषा प्रकाशन गृह (फॉरेन लॅग्वेजेस पब्लिकेशन हाउस) में अनुवादक के काम में कार्यरत रहे। यहां उन्होंने करीब दो दर्जन रूसी किताबें जैसे टालस्टॉय आस्ट्रोवस्की इत्यादि लेखकों की किताबों का हिंदी में रूपांतर किया। 1965 से 1967 तक दो सालों में उन्होंने नयी कहानियां नामक पात्रिका का सम्पादन किया। वे प्रगतिशील लेखक संघ और अफ्रो-एशियायी लेखक संघ (एफ्रो एशियन राइटर्स असोसिएशन) से भी जुड़े रहे। 1993 से 97 तक वे साहित्य अकादमी के कार्यकारी समीति के सदस्य रहे।
प्रमुख रचनाएं –
उपन्यास – झरोखे, तमस, बसंती, मय्यादास की माडी़, कुन्तो, नीलू निलिमा नीलोफर
कहानी संग्रह – मेरी प्रिय कहानियां, भाग्यरेखा, वांगचू, निशाचर
नाटक – हानूश (1977), माधवी (1984), कबीरा खड़ा बजार में (1985), मुआवज़े (1993)
आत्मकथा – बलराज माय ब्रदर
बालकथा- गुलेल का खेल
आम आदमी तो चैन से जीना चाहता है –
प्रख्यात साहित्यकार भीष्म साहनी का शुक्रवार 11 जुलाई को दिल्ली में निधन हो गया. भीष्म साहनी से ललित मोहन जोशी ने बीबीसी हिंदी सेवा के लिए 2 दिसंबर 2002 को पुणे में विशेष बातचीत की थी. इस बातचीत में भीष्म साहनी ने अपने जीवन के विभिन्न पहलुओं, उपन्यास तमस के लेखन, विभाजन की त्रासदी, हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य, आज की परिस्थितियों और अपने सकारात्मक और आशावादी दृष्टिकोण पर खुल कर विचार व्यक्त किए:उन्होंने कहा कि – “आम आदमी नहीं चाहता कि किसी भी तरह के फ़साद हों, हिंसा हो, आम आदमी तो चैन से जीना चाहता है.आराम से एक दूसरे के साथ शांति और भाईचारा के साथ रहना चाहता है और इतिहास भी साक्षी है,देश की आजादी में सबने मिलकर एक से एक बढ़कर शहादतें दी।”
•गणेश कछवाहा
[ रायगढ़ छत्तीसगढ़ निवासी गणेश कछवाहा वर्तमान में पुणे महाराष्ट्र प्रवास पर हैं. संपर्क : 94255 72284 ]
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