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कथायान : ‘ अपनें लोग ‘ – संतोष झांझी
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अपनें लोग
– संतोष झांझी
बाबूजी नें हांफते हुए साइकिल को स्टैंड पर चढ़ाया,धोती के छोर से
चेहरे का पसीना पोछा और गेट खोलकर लाॅन पार करते हुए दरवाजे तक जा
पहुंचे।दरवाजे की घंटी तक बढे हुए हाथ को उन्होंने अचानक रोक अपना चश्मा
उतारा और धोती के छोर से उसे खड़े खड़े साफ करते रहे, पर उनकी नजरें बंद
दरवाजे पर टिकी रहीं। अचानक उन्हें कुछ याद आया तो पलटकर गेट की ओर
चल दिये, गेट खोला और साइकिल के हैंडल पर लटका छोटा मटमैला सा थैला
उतार लाये । घंटी बजाते बजाते उन्होंने आवाज लगाई,,,मोनो,,,ओ मोनो,,।
कुछ क्षण बाद नौकरानी ने दरवाजा खोला और अंदर चली गई। दुबारा
आकर बोली–“बैठो, बीबीजी नहाता है।” थोड देर बाद वह उनके सामनें पानी
का एक गिलास रख गई। तब उन्हें महसूस हुआ कि उन्हें बहुत प्यास लगी थी।
संकोच से उन्होंने थैला टेबिल से उठाकर गोद में रख लिया।
पानी का गिलास उठाते हुए उन्होनें सोचा, सच ही तो है,,मेरी बेटी सरू
और इस नौकरानी के रूप रंग में क्या फर्क है? बल्कि इस नौकरानी का रंग रूप
हमारी सरू से अधिक खिला लगता है। धर्मचंद बाबू अपनी बेटी सरू के भविष्य
की चिन्ता में डूब गये।
छैः बच्चों में चौथे नंबर की सरू की रचना भगवान ने पता नही
क्या सोचकर सब से अलग थलग की थी,, बाकी पांचों बच्चे ऊँचे लंबे गोरे चिट्टे थे,
बस एक सरू ही साढे चार फुट की और गहरे रंग की थी दुबली पतली लड़की थी।
पता नहीं उसकी शारीरिक बढत क्यों रूक गई। दिमागी तौर पर भी चारों बेटे और
सरू से छोटी कान्ति पढनें में बहुत होशियार थे।बस सरू ही पिछड़ गई,सब से?
पर घर के कामकाज स्वादिष्ट भोजन पकानें और महीन कशीदाकारी में सरू का कोई
जवाब नहीं है। बड़ी बहू ने उसदिन ठीक ही कहा था –“इससे अच्छी तो मेरी कामवाली
है ।लड़का कहाँ से ढूंढे इसके लिये। कान्ति ने भी भाभी का समर्थन किया–“हम भी
दर्जनो जगह बात कर चुके हैं बाबूजी,, लोग यकीन ही नहीं करते कि यह मेरी दीदी है।
कहते हुए कान्ति की गरदन गर्व से तन गई। मँझले लापरवाही से बोला–” हटाइये
बाबूजी, कितना भटकेंगे ? पैसा बर्बाद मत कीजिये,,,, शादी अगर हो भी गई तो दूसरे
दिन इसे वापस नहीं भेज देंगे ,इसकी क्या गारंटी है।”
धर्मचंद बाबू पत्नि सहित उदास मन से वहाँ से उठकर अपने उस
एक कमरे वाले घर में आकर चुपचाप पड़े रहे। सरू खाना पका रही थी ।उसमें गर्दन—“-
उठाकर दोनो की तरफ एकबार देखा और सब समझकर गर्दन झुकाये अपने काम मे
लगी रही।
बहू ने चरण स्पर्श किया तो बाबूजी की तंद्रा टूटी,आजकल ऐसा ही
होता है, थोड़ी थोड़ी देर बाद बाबूजी पता नहीं कहां किन चिन्ताओ मे उलझ जाते हैं
बहू नें एक कप चाय और प्लेट में दो बिस्कुट बाबू के सामनें रख दिये,चाय के साथ साथ
दो बिस्कुट देख बाबूजी बिना कहे ही बहुत कुछ समझ गये। अनमने ढंग से धीरे धीरे
बिस्कुट कुतरते बाबूजी ने चाय खतम की। बहु ने ही बात शुरू की।
—–“नारायण देवरजी के यहाँ हो आये?”
बाबूजी ने धीरे से कहा–“हाँ,,गया तो था पर,,,,,
–“क्यों क्या कहा उन्होने ?
—“ताला लगा था,,,,
—-“गये होंगे घूमने,,, ताकी पैसे देने से बचे रहें,,,
—“नहीं ,,नहीं रास्ते में ही मिल गये दोनो,, बेटी बीमार था उसे दोनों हस्पताल लेकर
गये थे। बैंक जा नहीं पाये , कल आने को कहा है।”
—“अहं,,,सब चालबाजी है। एक हम हैं,,,,,,, बात अधूरी छोड़ बहू ने लंबी सांस ली।
—-” माँ कैसी हैं?
–“ठीक है अब तो कुछ,,,,
—“सरू को कहिये फिर से आठवीं का इल्जाम देने की कोशिश करे।”
—-“कहा तो है पर,,,,
—” बाबूजी बात यह है कि इस बार हाथ जरा तंग है ।मोनी स्कूल की तरफ से टूर पर
जा रही है। तो इस बार,,,,,,
—” मोनी कहाँ है ? यह आम,,, उसके लिये,,,” बाबूजी ने संकोच से कहा।
–” हाँ हाँ दे दीजिये,, मोनी देख दादू आये हैं ,,,बहू ने आवाज लगाई,,,
मोनी लपक कर आई और दादू के गले में बाँधे डाल झूल गई,,,
—“दादू,, मालुम मै स्कूल की तरफ से इस बार बाम्बे जा रही हू टूर पर,,,,,
—” हाँ हाँ बेटा मालुम है,, अच्छा है घूमकर आओ,,,, यह लो तुम्हारे लिये हैं,,,,
मोनी आम लेकर अंदर चली गई तो बाबूजी उठ कर खड़े हो गये–“अच्छा,चलता हूँ ”
थके कदमों से बाबूजी ने साइकिल उठाई , पर उसपर बैठने की बजाए
पैदल ही चलते रहे, सोच मे डूबे। हर महीने ऐसा ही कुछ होता है। बस एक छोटे ही है
जो हर महीने पत्नी से चोरी चुपचाप दो सौ रूपये खुद घर आकर दे जाता है और घंटों
माँ के सामनें सर झुकाये बैठा बाबूजी और सरू की चिन्ता करता रहता है,,,
उसकी कुछ मजबूरियाँ हैं,, वो माँ बाबूजी और सरू को साथ नहीं रख सकता।छोटी
उसन उउ ने साफ कह दिया है,,ये लोग साथ रहेंगे तो मै जल मरूंगी,, और सब को हथकडिया
लगवा दूंगी,,,,
अपनी सरकारी नौकरी के दिनों मे भी बाबूजी ने इन बच्चों की पढ़ाने लिखाने,इनके
शौक पूरे करने के चक्कर मे कभी न अच्छा खाया न अच्छा पहना, अच्छे ओहदे पर
होते हुए भी बाबूजी का पूरा जीवन सादगी और अभाव मे ही गुजरा। दो बेटों को इंजीनियर
बनाया। एक ने पालिटैक्निक की सब से छोटा रजत बैंक में कैशियर हो गया ।बड़े तीनों
भी उनकी ही कम्पनी मे लग गये।
आजकल सरकारी नौकरी मे आने के लिये योग्यता के अलावा भी
बहुत कुछ चाहिये। सो पहले चारो बेटों को पढ़ाने फिर नौकरी लगवाने मे बाबूजी का
बैंक बेलेंस खाली होता चला गया। बचा खुचा कान्ति की शादी में लग गया।जैसे तैसे
बेटों की शादियाँ भी एक एक कर निभ गई। बड़े ने तो शादी होते ही अलग रहनें का
फैसला कर लिया,,बहाना था कि घर छोटा है मँझले ने शादी के बाद घर मे पैसा देना बंद
कर दिया। बहू दस दस बजे सोचकर उठती, ,,माँ और सरू पर पूरे काम का बोझ पड
गया। आखिर उसे भी कम्पनी से क्वार्टर मिल गया,, तो उसने भी धीरे से किनारा कर
लिया। तीसरे बेटे ने अपने बाॅस की इकलौती बेटी से कोर्टमैरिज कर ली। उसने पहले ही
अलग रहनें का इंतजाम कर लिया था । छोटा रजत चुपचाप अपनें भाई भाभियों के
रंग ढंग देखता रहा,,उसने एक दिन ऐलान कर दिया कि वह शादी नहीं करेगा,, चंद वर्षों
में ही माँ बाबूजी ने देखा छोटे चुप सा रहने लगा है।उसके बारे में उड़ती उड़ती खराब
खबरें भी उन्हें मिलने लगी। माँ ने रजत को समझा बुझाकर शादी के लिये किसी तरह
राजी कर लिया ।
शादी के बाद कुछ दिन तो ठीक-ठाक निकले, फिर बहू के नाटक
शुरू हो गये,, कारण तब तक बाबूजी रिटायर हो चुके थे, छोटी बहू बात बात पर तीनो
बहुओं के भाग्य को सराहने और अपने भाग्य को कोसने लगी। सरू तो जैसे उसकी
आँखो का सब से बड़ा काँटा थी। रजत रोज रोज के झगड़ों से परेशान इस शादी के लिये
माँ बाबूजी को दोषी ठहराता।
एक दिन छोटी बहू ने जेठ जेठानियों ,कान्ति और दामाद को फैसला
करनें के लिये बुला भेजा, उन्होंने फैसला छोटी बहू के हक में ही देना था वही दिया,, तय
हुआ रजत भी अपने परिवार के साथ बैंक कालोनी के अपने क्वार्टर में चला जाए। चारों
बेटे हर महीनें दो दो सौ रूपये माँ बाबूजी को देंगे।
माँ ने कहा–“तुम्हारे बाबूजी रिटायर हो चुके हैं। कम्पनी का क्वार्टर छोड़ना होगा,,,, बात
बीच में ही काटकर मँझला बोला–” क्वार्टर छोड़नें पर ही तो बाबू जी को कंपनी से फायनल
पेमेन्ट मिलेगा।”
–“फिर हम कहाँ रहेंगे माँ ?”सरू घबरा कर पूछ बैठी।
बात गंभीर थी पर बड़ी बहू ने उसे यूँ ही उड़ा दिया— “अरे सरू तुझे क्या चिन्ता? यह सब
बातें बड़ो को सोचने दे।”–“वैसे मकान न बनवाकर आपनें बहुत बड़ी भूल की बाबूजी,,,,”
बड़े ने टाई की गठान ढीली करते हुए गला खखारा।
बाबूजी तिलमिलाते हुए भी चुप्पी साधे रहे, पर माँ चुप न रह सकी।
–” हाँ भूल तो जरूर की है, तुम सब की चिन्ता करने से पहले अपनें बुढापे की चिन्ता करनी
चाहिये थी।”
नारायण चिढ़कर बोला–यह क्या बात हुई ? सभी अपनें बच्चों के लिये इतना तो करते ही हैं।
आपने नया क्या किया है ?”
मँझला भी उखड़ गया –” लोगों के माँ बाप तो बच्चों के लिये कितनी जमीन जायदाद छोड़ते
हैं ।आपने हमारे लिये क्या बनाया?”
मँझला हंसी–” सरू छोड़ जायेंगे हमारे लिये,,,,,
अब बाबूजी से न रहा गया–“तुम लोग अपनी चिन्ता करो सरू की चिन्ता करनें की कोई भी
जरूरत नही । वो मेरी जिम्मेदारी है।”
छोटे ने भाग दौड़ कर एक कमरे का इंतजाम कर दिया। सामान के नाम पर बस पहनने के
कपड़े, बिस्तर और बर्तन ही वहाँ रखे जा सकते थे। एक छोटा सा किचन,और छोटा सा
लैट्रिन कम बाथरूम,,,इतने बड़े बंगले मे रहनें के बाद यही एक कमरा किराये पर ले सकने
की स्थिति में थे धर्मचंद बाबू,,, वैसे बहू से चोरी छोटू अक्सर साल भर का इकट्ठा किराया
मकान मालिक को दे देता था।
घर छोटा होने का एक और फायदा बेटे बहुओं को हुआ उन्हें यहाँ कभी
कभार आकर रहने की चिन्ता से भी मुक्ति मिल गई। माँ बाबूजी कभी उनके घर रहने नही गये
और न ही उन्होने कभी रहनें का आग्रह किया।
रिटायरमेंट पर कंपनी से जो थोड़े बहुत पैसे मिले वह बाबूजी ने सरू
के नाम पोस्ट आफिस में जमा करवा दिये।, जिसके ब्याज से रूकी सूखी दाल रोटी चलने
लगी। बाबूजी हमेशा चिन्ता मे डूबे रहते। मुंह खोलकर कभी किसी से कुछ नही कहा,पर उन्हें
अंदर ही अंदर सरू की चिन्ता थी पैतीस साल की सरू ,और इधर प्रतिमा और बाबूजी का शरीर
दिन पर दिन ढल रहा था। लड़की को अधिक बाजार हाट भेजना नहीं चाहते थे और खुद अब
उनकी आँखें और पाँव जवाब देने लगे थे।
शाम को एक दिन अंधेरा घिरनें पर सीढ़ियाँ चढ़ते लड़खड़ा गये।वो तो
उसी मकान में रहनें वाले कार्तिक ने संभाल लिया ,नहीं तो निश्चित ही एकाध फ्रैक्चर हो जाता।
पैर में हल्की सी मोच आ गई थी। कार्तिक कई दिन तक आकर पैर की मालिश करता रहा।
कार्तिक का बाजार में चाय भजिये का ठेला था। कभी कभी आते समय
गर्म गर्म भजिये ले आता, बाबूजी सरू को चाय बनाने को कहते, पर कार्तिक चाय के लिये हमेशा
मना कर देता।अब बाजार हाट के सारे काम कार्तिक ने अपने जिम्मे ले लिये थे।एक दिन झिझकते
हुए उसने बाबूजी के सामनें एक प्रस्ताव रखा–“बाबूजी एक बात कहनी थी, सोचता हूँ कैसे कहूँ ?
बाबूजी एकबारगी विचलित हो उठे,, सोचा आज हमारे हालात इतने खराब हो गये कि एक चाय
ठेला लगाने वाला लड़का शायद सरू का हाथ ही मांग बैठेगा।
कार्तिक ने धीरे से कहा–” मेरा दुनियाँ मे कोई नहीं है बाबूजी जिन्दगी भर
पका पका कर और होटलों मे खा खाकर तंग आ चुका हूं ” धर्मचंद बाबू चौकन्ने होकर बैठ गये।
गुस्से में उनका चेहरा तमतमाने लगा। कार्तिक ने आगे कहा–“जहां आप तीनों का भोजन
पकता है वहाँ मेरा भी दो वक्त का भोजन बन जाए तो,,, मेरे उपर बहुत मेहरबानी होगी। बस
सादा भोजन,,, जो कहेंगे मै पेमेन्ट कर दिया करूंगा।
बाबूजी नें लंबी सांस छोड़ी,जैसे प्रतिष्ठा पर आँच आते आते रह गई हो। कोई दूसरा वक्त होता
तो वो साफ मना कर देते पर अभी उन्होने झट हाँ करदी और घर जाकर सरू से कह भी दिया
कि कल से कार्तिक के लिये भी खाना बनाना है। प्रतिमा और सरू मुंह बाये उन्हें देखती रही।
इन तीन प्राणियों के गुमसुम उदास घर में कुछ खुशी और मुस्कराहट से भरे
क्षण नजर आनें लगे। कार्तिक दोनो समय आकर अपना टिफ़िन ले जाता। धीरे धीरे यह
सिलसिला बाबू जी ने ही खतम कर दिया।–“कार्तिक बेटा ,यह डब्बे का झंझट हटाओ, यहीं हम
लोगों के साथ बैठकर भोजन किया
इस तरह अब खाने के समय एक परिवार जैसा आनन्द माँ बाबूजी को
मिलनें लगा। वह आनंद जिससे माँ बाबूजी और सरू बहुत दिन से वंचित थे। कार्तिक ने सरू
के हाथ के खाने की तारीफ करते हुए कई बार कहा–“ऐसा स्वादिष खाना सरू बनाती है।अगर
आठ डब्बे भी आफिस के लिये बुक हो जाएँ तो आप तीनो का खाना उसी से निकल जाए, पर
आप बड़े लोग है यह सब आपको पसंद नहीं आयेगा।
बाबूजी ने महसूस किया कार्तिक पैसे कमाने का गुर जानता है। लीज पर
कार्तिक को वही जगह मिल गई जहां वह अपना ठेला लगाता था।उसने वहाँ तुरन्त अच्छा
पक्की दूकान जैसा मजबूत ठेला खड़ा कर नानवेज बनाना शुरू किया, चिकनचिल्ली से लेकर
एगरोल कवाब तक,,, काम इतना चला कि दो नौकर भी रखनें पड़े। लोग कारो मे दूर दूर से
आते,, खाते भी और पैक करवाकर भी ले जाते,,,,
अब कार्तिक नाॅनवेज अपनी दुकान से ही बनवा कर ले आता। हजारों हजार दुआएं जो उनके
दिल में अपनें बच्चों के लिये महफूज थी,अपने आप बिना मुँह से कहे कार्तिक की झोली मे
जानें लगीं। प्यार और अपनें पन के भूखे तीनों प्राणी कार्तिक का इंतजार करते रहते। उसे
देख तीनों के चेहरे खिल जाते।
इन खुशियों में बाधा उसदिन पड़ी जिसदिन मामूली से बुखार और
पेटदर्द मे प्रतिमादेवी अचानक चल बसीं। हर काम में कार्तिक का योगदान, भागदौड़ और
बाबूजी के प्रति आदर भाव देखकर छोटीबहू बड़ी बहू को कुहनी मारकर मुस्कराई–“लगता है
इस चाय वाले को किसी दिन बाबूजी दामाद बना लेगे। बड़ी ने गुस्से मे भौहें चढाई–“छी, ऐसा
हुआ तो हमारे सम्बन्ध उसी दिन खतम। बेटे इंजीनियर और दामाद,,,,?”
अंधेरे बरामदे में दरी पर लेटे लेटे बाबूजी ने सब सुना और तिलमिलाकर रह गये,,पर बहुओं
की बातों ने उन्हें सोचने की एक नई दिशा अवश्य दे दी।
दशगात्र के बाद छोटे ने कहा–“बाबूजी कुछ दिन चलकर हमारे साथ
रहिये।”
बड़े और मंझले ने भी कहा–“हाँ बाबूजी चलिये, माँ के बिना यहाँ कुछ दिन आपलोगों को
अच्छा नहीं लगेगा।” मंझली बहू ने विशेष आग्रह दिखाया–“चलिये बाबूजी आपका और सरू
का मन बच्चों मे बहला रहेगा और मै भी निश्चिन्त होकर आफिस जा पाऊँगी।
बाबूजी इस आग्रह का कारण जान गये। दो सौ रूपये देने से भी बचेंगे और आया या क्रैस का
भी पैसा बचेगा।
बोले–“नहीं नहीं यहीं ठीक है हम,,,धीरे धीरे आदत हो जायेगी,,,,,
उनके मना करनें पर भी कोई नहीं माना,,,छोटी ही आगे बढकर उन्हें ले गई,,और मंझली से
बोली–“कुछ दिन हमारे पास रहलें,, फिर तुम ले जाना।”
बाबूजी और सरू को सब जानते समझते हुए भी मजबूरन उनके साथ जाना पड़ा। सुबह बाबूजी
को एक कप चाय देने के बाद सरू उन्हें खाना खाने के समय ही दिखलाई देती।बाबूजी उसे दिन
भर कभी बर्तन साफ करते,कभी कपड़े धोते, कभी सफाई करते देखते । बीच बीच में बहू की
आदेश देती आवाज सुनाई देती।
एक महीना बीतते न बीतते उन दोनो को मंझली के घर भेज दिया गया।वहाँ सर चढ़े दो बत्तमीज
बच्चों ने उनका और सरू का जीना हराम कर दिया,,पर बहू के कानों पर जूं न रेंगती,,वो उल्टा
बात बात पर सरू को लताड़ती,,उसे ही जाहिल जंगली बताती,,बच्चो की शरारतो के कारण ही
बाबूजी दिन में खाना खाकर थोड़ी देर आराम भी न कर पाते।
उसदिन आखिर बाबूजी के सब्र का बांध टूट ही गया।जब बाबूजी की छड़ी उठाकर
अनुराग ने सरू के सर पर दे मारी। सरू के सर से खून की धार बह निकली। प्रशान्त और बहू
आफिस में थे,,, बाबूजी ने सरू का जख्म साफ किया तो देखा घाव गहरा है।दोनो बच्चों को
पड़ोसियो के हवाले कर बाबूजी सरू को लेकर हस्पताल पहुंचे,,, टांके लगाने के बाद,खून अधिक
बह जानें के कारण डाक्टर ने ग्लूकोज लगा उन्हे हस्पताल में रोक लिया।
प्रशान्त और बहू को बाबूजी ने हस्पताल से फोन कर दिया। बहू फोन पर ही चिल्ला
पड़ी—“इतनी उम्र हो गई आपकी ,इतनी भी समझ नहीं कि अपनी छड़ी संभालकर रखें। उपर
से बच्चों को पड़ोसियों के हवाले छोड़ आये।”
दोपहर बारह बजे फोन किया था और अब रात के आठ बज रहे थे,, दोनो प्राणी भूखे प्यासे अभी
भी हस्पताल मे पड़े थे। सरू को एक बोतल और ग्लूकोस लगा दिया गया।बाबूजी दो बार बाहर
जाकर चाय पी आये। रात नौ बजे प्रशान्त आया —“अरे आपलोग अभी तक यहीं हैं ? रेवा का
मूड बहुत खराब है,, बच्चों को अकेले पड़ोस में छोड़ दिया,,उनसे तो हमारी बातचीत बंद है,,,
—–“और क्या करता मै ?”
प्रशान्त–“हमें फोन कर हमारा इंतजार करना था।
—“तब तक खून बहनें देता ?
—“खाना वाना कुछ खायेंगे ?
—“अब रहनें दो, बस घर जाते जाते राह मे जरा कार्तिक को खबर कर देना,,,
—-“अच्छा चलता हूँ, सुबह ड्यूटी भी जाना है। ब्रेड ला दू?”
—“नहीं रहनें दो,, बस कार्तिक को जरा,,,,,,,,
—-“अभी जाते हुए उसको ठेले पर खबर दे
प्रशान्त के जाने के बाद , भूख और थकान से निढ़ाल बाबूजी बाहर बेंच पर
लेटे लेटे सोच रहे थे,,,अगर मै भी न रहा तो क्या सरू इस तरह लावारिस अकेली हस्पताल
में पड़ी रहेगी? मेरे रहते जब ये हाल है तब मेरे न रहनें पर क्या होगा ?क्या होगा मेरी सरू
का,,,, क्या होगा ??
—“कुछ नही होगा बाबूजी,,,”
–“कौन ??
—-“मै हूँ बाबूजी कार्तिक,,, आप नींद मे बड़बड़ा रहे थे,,,
—” नींद में? नींद मे नहीं, मै जाग रहा हूँ,, कब से ,मैं सोया ही नही कभी,,,
—“अच्छा अब ज्यादा बात नहीं,,, उठिये वार्ड मे सरू को देखने चलते हैं। ग्लूकोस खतम
हो गया हो तो उसे कुछ खिलायें,,, आप भी कुछ खा लीजिये,,, ये बिरयानी लाया हूँ,, सरू
को पसंद है,,,
बाबूजी सोचने लगे ये कार्तिक कौन है हमारा ? जिसे हमारी इतनी चिन्ता है ?
–” सुबह जब चोट लगी तो तुरन्त मुझे खबर करनी चाहिये थी। इस उम्र मे सुबह से उपर
नीचे हस्पताल मे भूखे प्यासे भटक रहे हैं,,, मै जानता हूँ सुबह से आप दोनों के मुंह में अन्न
का दाना नही गया होगा।
फिर बोला—-“बाबूजी मै अनाथ हूँ,,, मुझ अनाथ को आप मिले जैसे एक घर परिवार मिल
गया,,,मुझे पिताजी मिल गये,,,और ,,,आपने मुझे अब खबर दी ? सुबह से अकेले कष्ट उठाते
रहे,,,, आप मुझे अपना नहीं समझते न ?
—” तो फिर कौन है मेरा ? तूं ही बता ?
—” तो फिर अपनी सारी चिन्ताएँ मुझे क्यो नहीं सौप देते,,, मै आपके परिवार जितना बड़ा
आदमी नही हूँ शायद इसलिये,,,
–“नहीं रे एक तूं ही तो है हमारा अपना,,, तभी तो तुझे बुला भेजा,,, चल सरू को देखते हैं “”
सरू उनका इंतजार कर रही थी। डाक्टर ने घर जाने की इजाजत दे दी।
—-“चलिये पहले वहाँ बेंच पर बैठकर खाना खा लीजिये।”कार्तिक ने कहा।
— “नहीं अब घर चलकर ही खायेंगे ।” सरू ने कहा।
—“जैसी आपकी मर्जी,,,, ठहरिये मै आटो लेकर आता हूँ।
जब आटो प्रशान्त के घर की ओर मुड़ने लगा तो बाबूजी ने रोककर कहा—“उधर नहीं
कार्तिक , मुझे अपनें घर जाना है।”
बाबूजी ने देखा यह सुनकर सांवली सरू के चेहरे पर सुबह की लालिमा दमक उठी ,,और उसनें
निश्चिन्त होकर आटो की पुश्त पर सर टिकाकर आँखें मूंद ली ।
▪️ परिचय –
•1 अप्रैल 1945 को जन्मी संतोष झांझी छत्तीसगढ़ ही नहीं देश की ख्यातिलब्ध लेखिका व कवयित्रि हैं.
•1968 से देश के विभिन्न अखिल भारतीय मंचों पर काव्य पाठ.
•आकाशवाणी और दूरदर्शन पर निरंतर प्रसारण.
•बांग्ला कहानी, कविता, उपन्यास और नाटकों का हिंदी व हिंदी से पंजाबी में अनुवाद.
•4 कविता संग्रह, 4 उपन्यास, 5 कहानी संग्रह, 1 नाट्य संग्रह और 10 समूह पुस्तकें प्रकाशित.
•एमए के छात्रों द्वारा कविता, कहानी, उपन्यास, नाटकों पर शोध, पीएचडी.
•दो फिल्मों में अभिनय और गीत लिखें.
•छत्तीसगढ़ राज्य सहित देश के कई संस्थाओं द्वारा सम्मान.
•आप ‘ छत्तीसगढ़ प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन ‘ और ‘ छत्तीसगढ़ प्रगतिशील लेखक संघ भिलाई – दुर्ग ‘ की उपाध्यक्ष हैं.
•डॉ. सोनाली चक्रवर्ती ने संतोष झांझी के समग्र साहित्य पर पीएचडी की है.
•’ छत्तीसगढ़ आसपास ‘ संतोष झांझी के सम्पूर्ण साहित्य को रेखांकित करते हुए अतिशीघ्र ‘ एकाग्र अंक संतोष झांझी ‘ का प्रकाशन किया जा रहा है. परिकल्पना एवं संयोजन प्रदीप भट्टाचार्य और अतिथि संपादक डॉ. सोनाली चक्रवर्ती का है.
•’ छत्तीसगढ़ आसपास ‘ वेब पोर्टल में संतोष झांझी की कहानी ‘ अपनें लोग ‘ आज प्रकाशित की जा रही है.
इस कहानी को ‘ छत्तीसगढ़ आसपास ‘ के प्रिंट मासिक पत्रिका में ‘ नवम्बर – 2023’ अंक में भी पाठक पढ़ सकते हैं.
▪️
संपर्क पता –
डी/7, सड़क – 12, आशीष नगर [पश्चिम], भिलाई नगर, जिला – दुर्ग, छत्तीसगढ़
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