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इस माह की कवियित्री : प्रतिमा नाग
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• रायपुर छत्तीसगढ़ की प्रतिमा नाग का जन्म कोलकाता में हुआ. • बचपन से साहित्य के प्रति रुझान रहा, बांग्ला भाषा में लेखन जारी है. हिंदी में भी लिखने का प्रयास जारी है. • विवाह के बाद छत्तीसगढ़ में आकर बस गई हैं. • हिंदी में लिखने की कोशिश, ‘ छत्तीसगढ़ आसपास ‘ के पाठकों के लिए.. पसंद आए तो प्रतिमा नाग को हौसलाअफजाई जरूर दें.
– संपादक ]
▪️ माँ
मेरी मां _
संसार की सरहद को छूकर
बैठी हुई__मेरी मां।
फटे आंचल की सुराख से
जब—तब भागते, सुखों को
पकड़ने की नाकाम कोशिश में
ज्यादा और ज्यादा दुखों को
अंक में समेटे__मेरी मां।
मगर तब भी, तब भी
सुबह की उजले तारों सी
दमकता चेहरा लिए __मेरी मां।
छुपाए हुए दर्द से नीले
और ममता से गुलाबी,
मिलेजुले चेहरा लिए मेरी मां।
मां मेरी झरनों की कलकल,
मां मेरी कमल पर खिले मोती की झलमल ,
गोधूली की नारंगी रोशनी मां मेरी,
अमाबस की अंधेरे में टिमटिमाते तारों की चमक मां मेरी ,
मां मेरी गरीबी की ऐश्वर्य की राजरानी।
मां मेरी ज्यादा बहुत ज्यादा मां जैसी।
मां मेरी एकदम मां जैसी।।
▪️ बेबस जिंदगी
अभी आपके शहर में शाम गहराया होगा
और कोहरे के साए में लिपट रही जिंदगी।
हर एक तन कुछ तपिश की आस लिए
कंबल–चादरों में दुबक रही है जिंदगी।
कहीं सूखे पत्तों और टहनियों की आग से हथेलियों को गर्म कर रहीं है ज़िंदगी।
कहीं गर्म चाय की चुस्कियों में
जीने की कोशिश कर रहीं है ज़िंदगी।
कहीं बूढ़ी आंखो में नहीं बची जो
उमंगों के ताने –बाने,
वही निराशा की फटी रजाई में
सिमट रहीं हैं ज़िंदगी।
आज की रात ऐसे ही ठिठुरते बीत जायेगी,
कल सुबह सूरज फ़िर गर्म चादर बिछाएगी,
कल की आस में आज बेबस कट रहीं हैं ज़िंदगी।
यहां अभी गर्मी की मौसम __
फिरभी बेबस है जिंदगी।
एक अदद ठंडी हवा की चाहत में
लचर कट रहीं है जिंदगी।
तरस कर बरस जाए, बादल
ऐसी चाहत में बीत रहीं हैं ज़िंदगी।
कुछ राहत की चाहत में
दिन, हफ्ता, महीना गुजार रहीं हैं ज़िंदगी।।
▪️ पहाड़
पहाड़ सी उम्र लेके, पहाड़ सी जिंदगी जी रहा हूं।
जाने कितनी सदियों से जी रहा हूं ,
बस जीए जा रहा हूं।
जाने किसने मुझे धरती के आगोश से
उछाल दिया आसमान के ओर?
जाने कितनी युगों से आसमान छूने की कोशिश में
खुद से लड़े जा रहा हूं?
धूप, सर्दी, हवा और बारिश से जाने कब तलक अपने वजूद को बचाऊं?
जाने कितनी सदियों को अपनी पथराई आंखों से पनपते और मिटते देखता जाऊं?
दिल में पत्थर रख कर सहन की हद तक जाने कितनी सदी सहता जाऊं?
मेरा सीने में दिल नहीं हैं
जाने कब तक सुनता जाऊं?
लेकिन मैं पत्थर दिल नहीं हूं,
जो कभी न पिघल जाऊं….
मेरे अंतस में पनपते जज़्बात की नदी को
मैं ही तो बहाता रहा हूं।।
• संपर्क –
• 93994 29452
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