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विचार-मंथन : अमृता मिश्रा

1 year ago
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👉 अमृता मिश्रा
[ अध्यापिका, दिल्ली पब्लिक स्कूल, भिलाई, छत्तीसगढ़ ]

• एक जीव की आपबीती

आज तुम्हारी दुनिया से जा रहा हूँ। मन की व्यथा कुछ ऐसी है, जो बता रहा।समय के साथ -साथ मनुष्यों के अंदर मरती मनुष्यता ने हमारी स्थिति बद-से- बदतर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बहुत खुश था मैं, अपनी माँ के गर्भ में। दुनिया में आना चाहता था। इसे अपनी आँखों से देखना चाहता था। लेकिन एक दिन मैदान में माँ बैठी थी किसी छाँह में । अचानक मुझे चोट लगी। माँ शायद दौड़ रही थी और पीछे से डंडों की बरसात हो रही थी। फिर सब शांत। सारे दिन माँ भूखी रही। शायद उसे जहाँ ले गए, वहाँ घास न थी। खाने को कुछ न मिला न ही मिला पानी। तीन गायें मर चुकीं थीं। चोट और नई जगह पर माँ भी घबराई और दहशत में थी । फिर कोई हमें ले आया। प्यार का स्पर्श मैंने महसूस किया। लेकिन शरीर पर पड़े चोट ने समय से पूर्व मुझे धरती पर आने को मजबूर कर दिया। मैं खड़ा नहीं हो पा रहा। माँ मुझे दुलार कर रही पर वह काँप रही थी। गर्म आग राहत दे रही थी। लेकिन माँ बहुत दुःखी है। दर्द में है।वह भी ठीक नहीं और मैं भी। जा रहा अपनी माँ को छोड़, तुम लोगों की मतलबी दुनिया को छोड़। अधूरी चाहतों के साथ।
तुम लोगों का लालच नहीं बदलता तो बदलाव कैसे होगा??
सड़कों पर बैठे साँड़ से तुम नहीं भिड़ते। गली – चौराहों पर भौंकते कुत्ते तुमसे पकड़े नहीं जाते पर निरीह गायें तुम्हारी कमाई का जरिया हैं तो तुम उसे कहीं से भी पीटकर ले जाओगे?
कौन कहता है, व्यवस्था बदली है? गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने का ढोंग बन्द करो सब। हो सके तो काँजी हाउस- गौठानों द्वारा चल रहे व्यापार को बंद करो। अपनी क्रूरता बन्द करो। नहीं तो एक दिन तुम्हारे जैसे मुझ धरती पुत्रों के लिए भी धरती खुद प्रतिकार कर उठेगी। मैं जा रहा पर मेरी मौत के जिम्मेदारों पर कोई असर नहीं होगा क्योंकि कुछ भी तो नहीं बदला है। इंसान इंसान ही नहीं रहा।

०००

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