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विशेष आलेख : क्या नये भारत में बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर को पढ़ना मना है? – सुभाष गाताडे

4 weeks ago
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महाराष्ट्र के वर्धा में स्थित महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय एक बार फिर गलत कारणों से सुर्खी में आ गया है। लगभग चार महीने से अधिक समय बीत गया है, जिसमें अंबेडकर की लिखी सामग्री को पढ़ने की एक अनूठी पहल को जबरन बंद कर दिया गया है, उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी किए जा रहे हैं और यहां तक कि दलित शिक्षकों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई भी की जा रही है, लेकिन इसके बारे में कोई विरोध की सुगबुगाहट नहीं है और इन घटनाक्रमों के होने बावजूद, यूजीसी या विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के शीर्ष अधिकारी इस पर चुप्पी साधे हुए हैं।

विश्वविद्यालय परिसर में खुले में अंबेडकर के बारे में पढ़ना बंद करें, इससे “(भाग लेने वाले) छात्रों की सुरक्षा और स्वास्थ्य तथा विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा” को खतरा हो सकता है। एक शैक्षणिक संस्थान के इस अविश्वसनीय फरमान की खबर पूरे दिन दबी रही।

जैसा कि अपेक्षित था, बांसवाड़ा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनावी भाषण, जिसे पिछले 30 सालों में उनका सबसे ‘विभाजनकारी’ भाषण माना जा रहा है, को लेकर हुए जबरदस्त देशव्यापी हंगामे ने इसी तरह के अन्य जरूरी मुद्दों पर ग्रहण-सा लगा दिया है।

शिक्षकों को इस तरह का फरमान जारी करने वाली और जांच के दायरे में आने वाली यह संस्था, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र है, जो एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है। आपको याद होगा कि कुछ समय पहले, इस संस्थान ने इसी तरह सबका ध्यान अपनी ओर तब खींचा था, जब चीन से हिंदी शोधार्थियों की एक टीम ने इसका दौरा किया था। उनके दौरे के दौरान इस टीम को नागपुर में आरएसएस के मुख्यालय (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) में ले जाया गया था और आरएसएस के नेताओं के साथ बैठक कराई गई थी।

जो बात परेशान करने वाली है, वह यह है कि खुले में अंबेडकर द्वारा लिखी सामाग्री का पाठ करने के इस अनूठे प्रयोग को चार महीने से अधिक समय हो गया है, जो कि अंबेडकर स्टडी सर्कल इंडिया नामक अनौपचारिक समूह के तहत विश्वविद्यालय के दलित शिक्षकों द्वारा की गई एक पहल थी, जिसे जबरन रोका गया, इसमें शामिल शिक्षकों को कारण बताओ नोटिस जारी किया गया और उनमें से तीन के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई भी की गई है, लेकिन इस पर जैसे साजिशपूर्ण चुप्पी छाई हुई है।

विश्वविद्यालय प्रशासन की उन शिक्षकों के खिलाफ कार्रवाई के पीछे क्या कारण रहा होगा, जो यूजीसी की व्यावसायिक आचार संहिता का पालन कर रहे थे?

..’शिक्षक को सामुदायिक सेवा सहित विस्तार, सह-पाठ्यचर्या और पाठ्येतर गतिविधियों में भाग लेना चाहिए… शिक्षक को समुदाय में शिक्षा में सुधार लाने और समुदाय के नैतिक और बौद्धिक जीवन को मजबूत करने के लिए काम करना चाहिए।’..
(उक्त बयान में विश्वविद्यालय प्रशासन को संबंधित शिक्षकों द्वारा दिए गए जवाब से उद्धृत किया गया है।)

प्रशासन का प्रतिशोधपूर्ण रवैया तब भी दिखाई दिया था, जब उसने कथित तौर पर कुछ शिक्षकों के खिलाफ ‘पनिशमेंट पोस्टिंग’ की पुरानी और जांची-परखी पद्धति का इस्तेमाल किया, कुछ वरिष्ठ प्रोफेसरों को उनकी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया गया, कुछ कर्मचारियों को अलग-अलग विभागों आदि में भेज दिया गया।

दूसरा, यूजीसी या शिक्षा मंत्रालय के उन शीर्ष नौकरशाहों या डॉ. अंबेडकर के स्वयंभू शिष्यों की ओर से उन शिक्षकों के खिलाफ इन अलोकतांत्रिक कार्रवाइयों के बारे में आज तक कोई सुधारात्मक कार्रवाई क्यों नहीं की गई है, जो केवल डॉ. अंबेडकर के लेखन पर चर्चा कर रहे थे?

क्या यह अपेक्षा करना अतिश्योक्ति होगी कि वे गहरी नींद से उठेंगे और कार्रवाई करेंगे, ताकि अंबेडकर की लिखी सामाग्री पढ़ने का सत्र फिर से शुरू हो, दंडात्मक कार्रवाई का सामना करने वाले शिक्षकों को उचित मुआवजा मिले?

जहां तक ‘सार्वजनिक रूप से डॉ. अंबेडकर को पढ़ने के पूरे प्रयास को कलंकित करने’ का सवाल है, इसमें कोई चौंकाने या आश्चर्य की बात नहीं है।

डॉ. अंबेडकर के विश्व दृष्टिकोण या जिस तरह से उन्होंने समाज का विश्लेषण किया और इसके सुधार के लिए क्रांतिकारी समाधान प्रस्तावित किए, उनके प्रति जिन लोगों के मन में जबरदस्त नफरत है, वह आसानी से सम्मानित शिक्षकों के खिलाफ इस तरह की मनमानी कार्रवाइयों का सहारा ले सकते हैं।

जो कोई भी यह महसूस करता है कि व्यापक जनसमूह के बीच ऐसे विचारों का प्रसार एक विध्वंसक या अस्थिर करने वाला काम होगा, जो हिंदू राष्ट्र के निर्माण की उनकी दीर्घकालिक परियोजना के लिए हानिकारक होगा, उसे डॉ. अंबेडकर को अपमानित करने या इसके सेनानियों को दंडित करने में कोई हिचकिचाहट नहीं होगी।

केंद्र में हिंदुत्ववादी वर्चस्ववादी ताकतों के उदय के बाद से ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं, जब सत्तारूढ़ दल ने खुद को डॉ. अंबेडकर के ‘शिष्य’ होने की बात की है, लेकिन वास्तविक सामाजिक-राजनीतिक जीवन में, उन्हें अपमानित किया गया है, उनके विचारों को धता बताया गया है या विकृत किया गया है।

यह 2017 की बात है, जब राष्ट्र ने ‘महाड़ क्रांति’ का 90वां वर्षगांठ मनाया था, जैसा कि दलित लोककथाओं में कहा जाता है, जब हम एक बहुत ही परेशान करने वाले दृश्य के गवाह बने। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर बिलबोर्ड लगाए गए, जहां अंबेडकर को स्वच्छता के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया। इसमें एक अंबेडकर जैसे दिखने वाले व्यक्ति को लोगों के एक समूह को कचरा फेंकने के लिए कूड़ेदान की ओर ले जाते हुए दिखाया गया है और बैनर शीर्षक में लोगों से कहा गया है कि आप अपने भीतर के ‘बाबासाहेब अंबेडकर को जगाएं और कचरा साफ करने के इस महान अभियान में भाग लें।

क्या यह प्रमुख जातियों के बीच प्रचलित समझ को संप्रेषित करने का एक परोक्ष तरीका था कि उनके लिए संविधान का मसौदा तैयार करने में अंबेडकर के ऐतिहासिक योगदान या समानता के उनके तीन दशक से अधिक लंबे संघर्ष का कोई मतलब नहीं है?

उदाहरण के लिए, 2016 डॉ. अंबेडकर की 125वीं जयंती का वर्ष था और इसे न केवल भारत में, बल्कि अन्य देशों में भी मनाने की योजनाएं चल रही थीं। महाराष्ट्र सरकार ने मुंबई के दादर में डॉ बाबासाहेब अंबेडकर के लिए एक भव्य स्मारक और दादर में इंदु मिल्स में एक मूर्ति पर 500 करोड़ रुपये खर्च करने की योजना बनाई थी। यह वही वर्ष था, जब मुंबई के दादर में डॉ. अंबेडकर भवन और उसके बगल की इमारत, जिसमें एक प्रिंटिंग प्रेस थी, को रात के अंधेरे में (25 जून, 2016) ध्वस्त कर दिया गया था।

सरकार द्वारा जो भी स्पष्टीकरण दिया गया, लेकिन उसे इस विध्वंस के कारण बचाव की मुद्रा में आना पड़ा। इस बात को भुलाया नहीं जा सकता है कि यह भवन प्रमुख भूमि पर स्थित था और तत्कालीन भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने वहां 17 मंजिला इमारत खड़ी करने की योजना बनाई थी।

जो बात परेशान करने वाली थी, वह यह थी कि इस भवन का निर्माण खुद डॉ. अंबेडकर ने किया था और ‘उनका यह स्थान अंबेडकर के कई आंदोलनों का गवाह था। ..यह इमारत डॉ. अंबेडकर के दस्तावेजों और पांडुलिपियों का खजाना थी, जो अब मलबे में दबी पड़ी है।”

कुछ साल पहले, गुजरात पाठ्यपुस्तक बोर्ड ने 5वीं कक्षा की पाठ्यपुस्तक में एक नारे ‘शिक्षित करो, संगठित हो, आंदोलन करो’ – जो कि भारत में अंबेडकरवादी आंदोलन का पर्याय है, को ‘शिक्षित हो, संगठित रहो और आत्मनिर्भरता एक सच्ची सहायता’ के रूप में’ बदल दिया था।

अंबेडकर के मुख्य नारे में किए गए इस बदलाव से — जिसे उन्होंने 1945 में अखिल भारतीय अनुसूचित जाति महासंघ की एक बैठक को संबोधित करते हुए अपने प्रेरणादायक भाषण में भी इस्तेमाल किया था – ने अंबेडकरवादी हलकों में हंगामा पैदा कर दिया था और राज्य सरकार को अपनी गलती सुधारने पर मजबूर होना पड़ा था।

हम यह भी याद कर सकते हैं कि कैसे तत्कालीन आनंदीबेन पटेल के नेतृत्व वाली गुजरात सरकार ने (2015) में इसे वापस ले लिया था और बाद में उनकी सरकार ने डॉ. अंबेडकर पर लिखी किताब को हटा दिया था, क्योंकि इसमें हिंदू धर्म पर अंबेडकर के क्रांतिकारी विचारों और उनके द्वारा 1956 में बौद्ध धर्म अपनाने के लिए ली गई 22-सूत्रीय प्रतिज्ञाओं पर चर्चा की गई थी। उक्त पुस्तक सरकार द्वारा ही शुरू की गई थी, जिसे पूरक पाठन के रूप में सरकारी स्कूलों में वितरित किया जाना था। इसमें बौद्ध धर्म अपनाने के समय अंबेडकर द्वारा अपने लाखों अनुयायियों को दी गई वे प्रतिज्ञाएं शामिल थीं, जिन्हें सरकार ने पुस्तक को ही नष्ट करने के लिए पर्याप्त ‘विस्फोटक’ पाया।

संक्षेप में कहें तो प्रतिज्ञाओं में ‘ब्रह्मा, विष्णु और महेश में विश्वास नहीं, राम और कृष्ण में विश्वास नहीं, गौरी में विश्वास नहीं’ रखने की बात कही गई और उनकी पूजा न करने का संकल्प लिया गया था। इसमें ‘भगवान के अवतार में विश्वास न करने’ और उन धार्मिक समारोहों से दूरी बनाए रखने की भी बात की गई थी, जो हिंदू धर्म का हिस्सा हैं और ब्राह्मणों द्वारा किए जाते हैं। बुद्ध के ‘महान अष्टांगिक मार्ग’ का अनुसरण करने का संकल्प लेते हुए, ‘मानव की समानता’ में विश्वास और ‘समानता स्थापित करने’ के प्रयास की भी बात की गई थी।

यह मानने के कई कारण मौजूद हैं कि औपचारिक रूप से दक्षिणपंथियों ने अंबेडकर को एक आदर्श घोषित कर दिया है और उनके लिए भजन गाते रहते हैं, लेकिन वे 1990 के दशक में अपने एक विचारक द्वारा किए गए मूल्यांकन से बहुत दूर नहीं गए हैं। 90 के दशक के मध्य में सामने आए कुछ 100 पेज के मोनोग्राफ, जिसका शीर्षक था, झूठे देवताओं की पूजा करना, अंबेडकर के खिलाफ जहर उगलता है — एक ऐसा कार्य जिसके लिए अभी तक उनकी ओर से कोई माफी या आत्म-आलोचना देखने को नहीं मिली है।

अंबेडकर के प्रति इस उदासीनता की असली जड़ क्या है? क्या ऐसा इसलिए है, क्योंकि 1940 के दशक की शुरुआत में ही, डॉ. अंबेडकर ने आरएसएस और हिंदू महासभा को “प्रतिक्रियावादी” संगठन के रूप में खारिज कर दिया था। शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के राजनीतिक घोषणापत्र में ही — वह राजनीतिक संगठन जो 1942 में उनके द्वारा स्थापित किया गया था — स्पष्ट रूप से कहा गया था : “अनुसूचित जाति महासंघ हिंदू महासभा या आरएसएस जैसी किसी भी प्रतिक्रियावादी पार्टी के साथ कोई गठबंधन नहीं करेगा।” (भीमराव रामजी अंबेडकर चरित्रग्रंथ का सी खंड 10, चांगदेव भवनराव खैरमोडे द्वारा लिखित यह मराठी पुस्तक देखे)

या, अपने ऐतिहासिक मोनोग्राफ, पाकिस्तान या भारत के विभाजन में, अंबेडकर ने ‘हिंदू राज’ की वकालत करने वालों के हाथों संभावित बहुसंख्यक रुख के बारे में अपने डर को दोहराया था।

“अगर हिंदू राज सच हो गया, तो इसमें कोई संदेह नहीं, यह इस देश के लिए सबसे बड़ी आपदा होगी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हिंदू क्या कहते हैं, हिंदू धर्म स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के लिए खतरा है। इस लिहाज से यह लोकतंत्र के साथ असंगत है। हिंदू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।” (अम्बेडकर, पाकिस्तान या भारत का विभाजन, पृष्ठ 358)।

कोई इस बात पर चर्चा कर सकता है कि आरएसएस और उसके सहयोगी संगठन डॉ. अंबेडकर से नफरत क्यों करते हैं, उन्होंने कैसे प्रस्ताव दिया कि मनुस्मृति को ‘नव स्वतंत्र भारत’ का संविधान बनाया जाए और नए संविधान का मसौदा तैयार करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। हम चर्चा कर सकते हैं कि उन्होंने हिंदू कोड बिल का विरोध कैसे किया — जिसने भारत के लिखित इतिहास में पहली बार हिंदू महिलाओं को संपत्ति या विवाह में अधिकार देने की कोशिश की गई थी।

निष्कर्ष के तौर पर, यदि द टेलीग्राफ अखबार ने इस स्टोरी को सामने नहीं लाया होता, तो डॉ. अंबेडकर और उनके विचारों के समर्थकों का यह घोर अपमान सामने नहीं आता। लेकिन दलित शिक्षकों के सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद, स्थानीय/क्षेत्रीय मीडिया ने इस अन्याय के बारे में रिपोर्ट क्यों नहीं की?

इस तथ्य के बावजूद कि वर्धा, महाराष्ट्र में विदर्भ का एक हिस्सा, नागपुर से बमुश्किल 85 किलोमीटर दूर है — जो कभी दलित आंदोलन का गढ़ था, डॉ. अंबेडकर की लिखी सामाग्री को पढ़ने से जबरन रोकने के बारे में कोई विरोध प्रदर्शन क्यों नहीं हुआ? एक तरफ जहां याद किया जा सकता है कि नागपुर वही जगह है, जहां डॉ. अंबेडकर ने 1956 में अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया था। हर साल दशहरे पर डॉ. अंबेडकर के लाखों अनुयायी दीक्षाभूमि पर जुटते हैं।

क्या कोई यह कह सकता है कि यह आंदोलन की मिलिटेंट भावना खोने का संकेत है या यह संकेत है कि (एक समय के क्रांतिकारी दलित नेता) रामदास अठावले या (अब दिवंगत) राम विलास पासवान या मायावती की तरह, यहां तक कि अंबेडकर के युवा अनुयायियों को भी परेशानी नहीं है कि उन्हें हिंदुत्व पंथ के हिसाब से सुबह याद करने के रूप में एक और प्रतीक के रूप में स्थापित कर दिया गया या उन्हें आरएसएस के संस्थापक हेडगेवार की तरह एक समाज सुधारक को चोला पहना दिया गया?

▪️ आलेख के लेखक सुभाष गाताडे स्वतंत्र पत्रकार, मानवाधिकार कार्यकर्ता और सामाजिक राजनैतिक विषयों पर टिप्पणीकार हैं. संपर्क- 97118 94180

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