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कहानी : डॉ. रौनक जमाल
• मिज़ाज के कॉटे
– डॉ. रौनक जमाल
[ दुर्ग, छत्तीसगढ़ ]
खान साहब को रिटायर हुए एक साल का अरसा गुजर चुका था। इस बीच उनकी पत्नी भी बीमारी के कारण उन्हें अकेला छोड़ गई थी। खान साहब तन्हाई से घबरा से गए थे। उन्हें आभास होने लगा था कि बेटा, बहु और पोता-पोती भी उन पर ध्यान नहीं देते। उनका व्यक्तित्व उन सब के लिए कोई मायने नहीं रखता है।
रविवार का दिन होने के कारण खान साहब आदत के मुताबिक नाश्ता करके मित्रों से मिलने घर से निकल पड़े। संध्या घर को लौटे तो चौकीदार ने बताया कि बेटा, बहु और बच्चे दोपहर का खाना खाकर घूमने के लिए निकले है ! घर में ताला लगा देखकर खान साहब का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। वो सर पकड़ कर बरामदे में पड़ी कुर्सी पर बैठ गए। आँखे बंद की पैर लम्बे किए, बदन को ढ़ीला छोड़ा और सोच के सागर में डूबकी लगा दी।
आखिर बेटा मुझसे उखड़ा-उखड़ा क्यों रहता है ! बहु सहमी सहमी क्यों रहती है, पोता-पोती मेरे पास आने से कतराते क्यों है। खान साहब के दिमाग में यह प्रश्न बिजली की तरंगो सी तीव्रता लिए भ्रमण कर रहे है रहे थे। उसी दरमियान बेटे
और बच्चों के बेखौफ ठहाकों ने खान साहब के सोच के सिलसिले को तोड़ दिया । उन्होंने आँखें खोल कर देखा, बहु ताला खोल रही थी चारों के चारों खुशी से झुम रहे थे।
“बेटा जरा इधर आना !! खान साहब ने गुस्से से कहा”
“जी अब्बा जान!! कहकर बेटा उनके करीब जाकर खड़ा हो गया !”
“ऐसी बात नहीं है अब्बाजान”
“मैं देख रहा हूँ तुम्हें मेरी बिल्कुल भी परवाह नहीं है!!” “फिर कैसी बात है!!? तुम मेरा ध्यान रखते हो न बहु मुझसे बात करती है, बच्चे तो मेरे साय से भी भागते है ।। आखिर ये सब क्या है !!??
“ये सब आपका ही किया घरा है अम्बाजान
आपने जैसा बोया है, वैसी ही फसल तैयार हुई है- !!
सारी जिन्दगी आप अफसरी करते रहे है। को मुँह खोलने नहीं दिया । आफिस में भी घर में भी आप ने कभी अम्मी मुझसे कभी सीधे मुँह बात नहीं की कभी मेरी कोई बात न सुनी है और न मुझ पर तवज्जे दी है हमेशा नादिरशाही रवैय्या रहा है।
आपका लाल पीली आँखे कभी किसी की सुनना नहीं सिर्फ, अपनी सुनाना . बहु को कभी बेटी मानकर दो बाते की है आपने उससे कभी उसका हाल चाल पूछा है? बच्चों के सर पर कभी प्रेम से हाथ रखा है आपने कभी पोता-पोती को गोद में उठाने का धर्म निभाया है आपने !!?? उन्हें अपने कमरे में कभी आने दिया?? नहीं, कभी नहीं अम्मी बेचारी जीवन भर गुलामों की तरह जीती रही और आपकी गुलामी करते करते इस दुनिया से चली गई!!!! लेकिन अब्बाजान मैं आप जैसा नहीं हूँ मैं सिर्फ आफिस में अफसर हूँ। घर आता हूँ तो एक अच्छे पति के रूप में प्रेम करने वाले बाप की शक्ल में, मैं अपनी पत्नी से बहुत प्यार करता हूँ। क्योंकि वो मेरी जीवन संगनी है। बच्चों को देखकर मेरा जीवन छलकने लगता है। मैं मन से उनकी सुनता हूँ और अपनी उन्हें सुनाता हूँ वो मेरे जीवन का आधार है…. अब्बाजान मैने पत्नी और बच्चों के साथ मिलकर हँसता खेलता परिवार बनाया है ताकि जब मैं आपकी उम्र का हो जाओ तो मैं आपकी तरह अकेला न रह जाओ और मुझे तन्हाई का नाग न डसने लगे !! समझे आप !!?? डॉ मेरी कोई बात से आपके मन को चोट पहुँची हो तो मुझे क्षमा कर दीजियेगा !! “कहकर बेटा घर के अन्दर चला गया ।
बेटे का एक-एक शब्द खान साहब के कानों में गर्म गर्मी लोहे की तरह असर कर रहे थे | उनकी आँखों के सामने जीवना का हर एक पल पलक झपकते गुजर गया। उनकी आँखों से आसुओं का बाँध टूट पड़ा। उन्हें लगा जैसे किसी ने उन्हें गहरी नींद से जगह दिया हो वो पछता रहे थे, और अपनी गलतियों पर गौर कर रहे थे, लेकिन उनके आँसु पोछने वाला कोई नही था!
वो मन ही मन सोच रहे थे, कि अफसरी मिज़ाज की इतनी बड़ी सजा !! वो भी उम्र के इस पड़ाव पर मिजाज के जहरीले कॉटों ने खान साहब की जिन्दगी को छलनी कर दिया था !!!! लेकिन चिड़ियों खेत चुक गई थी वो कर भी क्या सकती थी। रोते-रोते कुर्सी में ही सो गए। आँख खुली तो बहु उन्हें जगा रही थी और कह रही थी “अब्बाजान आप कुर्सी में क्यों सो गए?” अपने कमरे में चलिए, मैं आपके लिए खाना ला रही हूँ।
खान साहब ने बहु को गौर से देखा और बेटी कहकर लिपटा लिया और कहा “बेटा मुझे मॉफ कर दो। मैने तुम्हारे साथ बहुत ज्यादती की।” ये सुनते ही बहु भी रो पड़ी। दोनो की गंगा-जमुना में खान साहब के असफल जीवन को सफल बना दिया था।
खान साहब एक जिम्मेदार बाप, ससुर और दादा बनकर बहु के साथ घर में दाखिल हुए। तो उन्हें लगा उनकी पत्नी उनके बदले रूप को देखकर खुशी से खिल-खिलाकर हँस रही है। आज खान साहब के मन से सारा बोझ उतर चुका था और उन्हें अपने जीवन के ये पल सुनहरे लग रहे थे।
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