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- ▪️ सर्पदंश [संस्मरणात्मक कथा] – तारकनाथ चौधुरी – चरोदा-भिलाई, छत्तीसगढ़
▪️ सर्पदंश [संस्मरणात्मक कथा] – तारकनाथ चौधुरी – चरोदा-भिलाई, छत्तीसगढ़
अपनी-अपनी मित्रता पर गर्व करने के सबके अलग- अलग मानदंड हैं किंतु मेरे मित्रोंं की बात ही कुछ और है।अनादि काल से बहती गंगा पर चाहे कितना भी कर्कट,बाहरी आवर्जना डाला जाये-उसकी पावनता जिस तरह अक्षुण्ण रहती है,ठीक उसी तरह हम तीन मित्रों की मित्रता अकलुष और अविच्छिन्न है।मैं,बलदाऊ और अरुण सुदूर आदिवासी अंचल के एक गाँव डौण्डीलोहारा में एक ही कालखण्ड में पदस्थ हुए थे।मै और बलदाऊ शिक्षक पद पर थे और अरुण बैंक कर्मी था।हम तीनों की रुचियाँ समान थीं,इसलिए अंतरंगता प्रगाढ़ होना स्वाभाविक था।साहित्य,संगीत और फिल्मों पर चर्चा करते , ठहाके लगाते अवकाश का सयय बीतता।कार्यस्थल के तनाव या किसी से मनमुटाव से उपजी विरक्ति को -कभी अरुण की बाँसुरी,कभी बलदाऊ का हारनोमियम बजाते हुए गीत गायन तो कभी मेरी कविताएँ सामान्य अवस्था में ले आतीं।
छुट्टियों में हम एक दूसरे के घर जाया करते और घर के सदस्यों संग ऐसे घुल मिल जाते जैसे हम उस घर का ही आवश्यक हिस्सा हों।समय को संभवतः हमारी इस मित्रता की अप्रतिम शैली से ईर्ष्या होने लगी थी तभी तो उसके कोप भाजन का शिकार हुए हम और हम सरकारी आदेश का पालन करते हुए नयी संस्थाओं में पदभार ग्रहण करने चल दिये।अरूण ने दुर्ग की एक शाखा में कार्यभार सँभाला,बलदाऊ दल्लीराजहरा के एक विद्यालय का हिस्सा बना और मैंने डौण्डी के एक दुर्गम गाँव की शाला में पदभार सँभाला। विरह वेदना केवल नारी संदर्भित होती है-ऐसा नहीं है।
अलग होने से पहले हम तीनों का प्रगाढ़ आलिंगन में रूदन इस बात को प्रमाणित कर रहा था।उस काल में मोबाइल अस्तित्व में होता तो अलगाव की पीडा़ की तीव्रता निश्चित रुप से परस्पर वार्तालाप की शीतलता से कम हो जाती।हम नियमित एक दूसरे को पत्र लिखते और अंतरालों में मिलते रहते।दस,बीस,तीस नहीं पूरे बयालिस वर्षों की परिपक्व मित्रता है हमारी।आज हम तीनों सेवानिवृत्त हैं किंतु सेवा की प्रवृत्ति अब भी प्रबल है जिसका प्रमाण सोशल मीडिया पर मिलता रहता है।
विगत माह जब मैंने अरुण और बलदाऊ से डौंडीलोहारा के बैगा(ओझा)के घर जाने की बात कही तो वे बिना हील हवाला के(जैसा कि वर्तमान चलन है)राजी़ हो गये क्योंकि
हम कभी एक दूसरे की इच्छा का विरोध नहीं करते थे,सम्मान करते थे–संभवतः यही विशिष्टता हमारी मित्रता को प्राणवंत रखी थी।अरुण वहाँ अपने पुराने मकान मालिक का घर और समारु होटल देखना चाहता था तो बलदाऊ उस विद्यालय की वर्तमान छवि देखना चाहता था जहाँ से शिक्षकीय जीवन की शुरुआत हुई थी ओर मैं उस बैगा(ओझा) से मिलना चाहता था जिनके चमत्कारी पथ्य और असरकारी फूँक ने मुझे सर्पदंश के प्राणघातक प्रभाव से मुक्त किया था।
समय के पाबंद हम आज भी हैं इसलिए हम नियत समय पर ही बलदाऊ की कार से गंतव्य की ओर चल पडे़।जिस सड़क पर बसें हिचकोलें खाती जामा करती थीं,उस पर वाहनें अब हिरण की सी चौकडी भरते गुजर गुज़र रही थीं।सड़क के दोनों तरफ विकास के साक्ष्य रह-रहकर हमें चकित करते।लगभग दस बजे हमें बालोद मार्ग से होते हुए डौण्डीलोहारा पहुँचे।अरुण ने चाय पीने की इच्छा जाहिर की तो मैंने तपाक् से खेदू होटल चलने की बात कही-जहाँ हम बरसों पहले ताज़गी भरने के लिए सुबह की पहली चाय और दिन भर कघ थकान दूर करने के लिए शाम की चाय पीया करते थे।होटल का कायाकल्प हो चुका था,लेकिन नाम अब भी वही था।काउंटर पर खेदू भाई की तस्वीर पर टँगी ःमाला और जलते दीपक को देख हमारी उत्सुकता को आघात लगा।ग्राहकों की भीड़ अब भी वही स्वाद होने का प्रमाण दे रही थी।हमने हल्का नाश्ता किया और चाय मँगवायी।चाय की पहली घूँट लेते ही हम एक साथ बोल पडे़-“वाह!क्या चाय है।”अरुण ने फिर कहा-“सफ़र की सारी थकान हिरण हो गई भाई,मैं तो एक प्याली चाय और पीऊँगा।”
चाय पीते हुए मेरी दृष्टि कोने में बैठे एक अधेड़ सज्जन पर पडी़ जो एकटक हमारी ओर देख रहे थे।हमें काउंटर की तरफ बढ़ता देख वे हमारे क़रीब आ गये और अरुण से मुखातिब होते हुए हाध जोड़कर कहा-“निगम साहब नमस्कार।मैं जसराज शर्मा,पहचान पा रहे हैं मुझे?”
इससे पहले कि अरूण कुछ कहता,मैं उससे लिपट गया और बोला-“जस्सू तुम्हारी आवाज़ ही पहचान है।लहजा अब भी पहले की तरह दुरुस्त है,शरीर तंदुरूस्त है।मैं चौधुरी हूँ,ये अरुण निगम है और वो बलदाऊ राम साहू हैं।हम तीनों रिटायर्ड हो चुके हैं और पुराने लोगों से मिलने की उम्मीद लेकर डौण्डीलोहारा आये हैं।”
इतना सुनते ही जस्सू अपनी लम्बी – लम्बी दो बाँहो में हमें समेटकर घर चलने की जि़द करने लगा।इतने बरसों बाद भी पहले जैसा ही स्नेहाधिकार देख इस अनुरोध का अपमान न कर सके और उसके साथ हो लिए।चलते-चलते वो हमें डौण्डीलोहारा के विकास की गाथा और सागौन के जंगलों के विनाश की व्यथा सुनाता रहा और हम विस्मयादि बोधक के प्रतिरुप बने सुनते रहे।
जस्सू का मकान अब भी अपने मौलिक स्वरुप में बदले हुए समय को चुनौती दे रहा था।दूधिया रंग की दीवारें और पान के पत्तों का वर्ण लिए दरवाजे़ जैसे कुछ परंपराओं के अक्षुण्ण रहने का समर्थन कर रहे थे।
जस्सू हमारा परिचय जब घर के वरिष्ठों-कनिष्ठों से कराया तो हमने भी उनका यथायोग्य सम्मान- अभिवादन किया।बच्चों से उनके वर्तमान और भविष्य को लेकर रुचिपूर्ण बातें की,उन्हें उपहार। दिया।भाभी जी गरम पकौडो़ं का प्लेट रखते हुए दोपहर का भोजन भी कर जाने का जब निवेदन किया तो हम दुविधा में पड़ गये क्योंकि हमने बैगा के गाँव में खाना खाने का निर्णय पहले ही ले लिया था।अरुण और बलदाऊ का संवाद कौशल तब काम आया और भाभी जी मिथ्या रुठने का भाव दिखाते हुए मान गईं।हम लगभग आधा घंटा वहाँ बैठे फिर बैगा के गाँव जाने की बात कहकर जस्सू की माताजी से तथा जस्सू से जाने की अनुमति ली।जैसे ही हम कार पर सवार होने को हुए अरुण ने कहा-“समारु होटल भी चलना है भाई।अभी गाडी़ यहीं रहने दो।”
बस स्टैंड के क़रीब ही था समारु का होटल,लेकिन अब कोई भी वहाँ हमारा परिचित न था।होटल- समारु की सबसे छोटी बेटी और दामाद की देखरेख में पहले से बेहतर स्थिति में लग रहा था।अरूण ने समारू से जुडी़ यादों को जब बिटिया और दामाद से साझा किया तो उनकी आँखें भर आईं।मैंने और बलदाऊ ने उनके सर पर हाथ रख उनकी ढाढ़स बँधाई और जाने का उपक्रम किया।अभी हम कार पर व्यवस्थित बैठ भी न पाये थे कि समारु की बेटी को हमारी तरफ दौड़कर आते देखा।उसके हाथ में पाॅलीथीन की एक बडी़ सी थैली थी जो उसने अरूण के हाथों में थमा दी।अरूण भाव विह्वल होकर उसे निहारता रहा,फिर कहा-“देखा तारक! ऐसी होती हैं बेटियाँ।” हमने पुनः उसे ढेर सारा आशीर्वाद दिया और बैगा के गाँव के लिए रवाना हो गये।कच्चे रास्तों के गड्ढेनुमा घावों पर यिकास का कोलतारी मरहम लगने से हमारा सफ़र आसान हो गया था और हम दस मिनट के अंतराल में ही दसरु बैगा के गाँव पहुँच गये।पुरानी तस्वीरों का डिजिटल स्वरुप जैसा ही गाँव का वर्तमान संस्करण था।प्रस्तर गलियों के दोनों तरफ,पक्के मकान अपने परिचय की तख्तियाँ लटकाये खडे़ थे।खपरैल वाली झोपडि़यों का नामोनिशान नहीं था।
हमने चौपाल के निकट अपनी कार रोकी और काँधे पर हल लेकर जाते एक किसान से दसरू बैगा के घर का पता पूछा और उसके बताये रास्ते की तरफ चल दिये।गाँव का सबसे आखिरी मकान था उनका लेकिन पहले की तरह नहीं।सीमेंट की दीवारें,मज़बूत छत और टाइल्स लगे फर्श उनकी समृद्धि की गवाही दे रहे थे।
खुला द्वार पट यूँ तो हमारे प्रवेश को सहज कर दिया था फिर भी शिष्टाचार के अनुगत हम बबा!बबा!कहते हुए देहरी लाँघ गये।
दालान में स्थापित मूर्ति को देख हम सशंकित मन से एक दूसरे को निहारने लगे।घर के किसी भी सदस्य को हमारी उपस्थिति का पता न चलना अजीब सी अनुभूति करा रहा था।तभी अरुण की दृष्टि उस खाट पर पडी़ जिसमें एक वृद्धा हमारी तरफ पीठ किये लेटी हुई थी।उनके निकट पहुँचकर हमने “पाँव परथन दाई” कहा तो बडे़ क्षीण स्वर में “कोन हस ग?”कहती करवट बदलकर हमें देखने लगीं।उनके उठने की कोशिश को अरूण और बलदाऊ ने सहारा देकर सहज किया।किसी गुफा मे जलते दीप सी उनकी आँखें हमें भौंचक्क देख रही थीं।हम झुककर प्रणाम करने लगे तो उन्होंने अपनी पतली काष्ठनुमा बाँहों में हमें भरकर जाने कितने प्रकार के आशीष-कवच दे डाले।बरसों माँ के स्नेहिल स्पर्श से वंचितों के लिए वो अमृत क्षण था।हमने साथ लाये उपहारों को विनम्र श्रद्धा से उन्हें दिया और हमारे आने का कारण बताया।कारण सुनकर वो फफक कर रो पडीं और काँपती तर्जनी से दालान में प्रतिष्ठित मूर्ति की ओर इंगित करते हुए कहा-“तुँहर बइगा बबा पथरा के देउँता सरिख हो गिस हे बाबू!न बोलय,न बतियावय अउ मोर कलपना ला त सुनबे नइ करय।कतको लोगन के साँप के ज़हर उतार के जीव- परान ल बचाइस,फेर बपुरा अपन परान ल नइ बचा पाइस।बडे़ फजल जंगल पानी बर गे रिहिस फेर साबुत नइ लहुटिस,डोमी साँप ह ओखर परान ला हर लिस बाबू।”
अश्रु की अविरल धारा को आँचल से पोंछते हुए जब उन्होंने हमसे बइगा बबा की मूरत पर फूल चढा़ आने की बात कही तो हमसे उठा नहीं जा रहा था।ऐसा लग रहा था मानो सैकडो़ं साँपों का दंश हमें चेतनाशून्य कर दिया हो।
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