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- नूरुस्सबाह खान ‘सबा’ की गज़लें : ‘दौर ही ऐसा है क्या करे आदमी…’/’ख्यालों में कोई जब झांकता है…’ और ‘जब तलक ज़लज़ला नहीं आता…’
नूरुस्सबाह खान ‘सबा’ की गज़लें : ‘दौर ही ऐसा है क्या करे आदमी…’/’ख्यालों में कोई जब झांकता है…’ और ‘जब तलक ज़लज़ला नहीं आता…’
▪️ [1]
दौर ही ऐसा है क्या करे आदमी
अपने साए से भी अब डरे आदमी
ज़िन्दगी ज़ोर – व – ज़ुल्मत के साए में है
फिर भी जीने की ख़्वाहिश करे आदमी
चार दिन की है दुनिया समझते हैं सब
लुत्फ़ लेने को इसका मरे आदमी
देव मुनियों के बस में भी आते नहीं
रूप शैतान का जब धरे आदमी
हुक्मरां ठीक से ये बताते नहीं
बम धमाकों में कितने मरे आदमी
हर तरफ़ अमन की फिज़ा हो अगर
ज़ुल्म करने से तौबा करे आदमी
ज़िन्दगी ये भी इज़्ज़त की जी ले “सबा”
बेटियों पर करम जब करे आदमी
▪️ [2]
ख़्यालों में कोई जब झांकता है
तो सोया दर्द फिर से जागता है
ग़म- ए-फ़ुरक़त दिया है जब से उसने
ये दिल हर वक़्त रोना चाहता है
मेरा चेहरा भी पढ़ लेता है अक्सर
मेरी हर कैफ़ियत वह जानता है
जिसे नफ़रत के क़ाबिल भी न मैं समझूं
वह मुझसे दिल का सौदा चाहता है
किताब – ए दीन पढ़कर देख लो तुम
हरेक मज़हब मोहब्बत बांटता है
ज़मीं से आसमां तक सब है तेरा
तू मुझसे और कितना चाहता है
जो मेरा हो नहीं सकता जहां में
“सबा”,क्यों दिल उसे ही मांगता है
▪️ [3]
जब तलक ज़लज़ला नहीं आता
याद हमको ख़ुदा नहीं आता
रंजो ग़म से निजात मुश्किल थी
ख़त अगर आपका नहीं आता
दिल को पत्थर बना लिया हमने
अब कोई ग़म नया नहीं आता
साथ मिलता नहीं अगर उनका
ज़िंदगी में मज़ा नहीं आता
तोड़ सकती हूं मैं सलासिल को
दिल मगर तोड़ना नहीं आता
ऐसे लोगों से दूर ही रहिये
जिनको करना वफ़ा नहीं आता
बेबसी में “सबा” मेरे घर पर
अब कोई आशना नहीं आता
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