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व्यंग्य : सुशील यादव
व्यंग्य : रंपरा समूची दुनिया में अनादिकाल से है
सुशील यादव
[ दुर्ग छत्तीसगढ़ ]
जो बलवान हैं अपने बल का, जो बुद्धिमान हैं, अपनी बुद्धि का, जिसके पास योग है वो अपने योग का, जिनके पास भोग है वो अपनी भोग का, यानी जिनके पास जो हुनर है उसी का लोहा मनवा लेते हैं, बशर्ते थोड़ी मेहनत थोड़ी लगन, ज़रा सा उत्साह अपने काम के प्रति रखें।
भारत ने लाल ग्रह के घेरे में अपना सेटेलाईट छोड़ कर, अपना लोहा मनवा लिया। थी पिछली सरकार की योजना पर पीठ अपनी थपथपवा ली।
कहते हैं करोड़ों मील दूर की योजना पर साढ़े चार सौ करोड़ की लागत आई वो भी दीगर मुल्कों के खर्चे के न के बराबर है, इसमें हर भारतीय के औसतन चार रुपये लगे।
हम लोग नाहक गणेश, दुर्गोत्सव, होली का हज़ारों में चंदा देते रहे हैं। चंदा उगाहने वाले खेल-तमाशों में पैसा फूँक जाया कर देते हैं।
आने वाले दिनों में कम से कम नज़दीक के चाँद पर गणपति बिठाने का कोई सार्थक प्रयास कोई करे तो मै चंदे की रकम में सौ गुना इजाफा करने के लिए तैयार हूँ। अपने गणपति का दुनिया एक बार तो लोहा माने। लोग जाने तो सही हिन्दुस्तान के खज़ाने में क्या-क्या है?
लोहे के बारे में एक मज़ेदार वाकया है। अपने इलाके में एक बड़ी आयरन एंड स्टील इंडस्ट्रीज़ के मालिक हैं सेठ राधेश्याम घनश्याम दास। अच्छा कारोबार है हज़ारों टन लोहा साल में गला के सरिया, एंगल, चेनल बना डालते हैं। मगर अफ़सोस उनकी पत्नी को डाक्टरों ने आयरन की कमी में एनीमिया पेशेंट घोषित कियाहुआ है है। विडम्बना देखिये, जिनके घर, दूकान, गोदाम में टनों बेहिसाब लोहा इधर-उधर बिखरा पड़ा रहता है, उन्हीं की मालकिन आयरन की कमी झेल रही हैं। डाक्टरों ने शरीर में आयरन बढ़ाने की गोलियाँ लिख दी हैं। वे खाती रहती हैं। राधेश्याम जी सौ-दो-सौ, एम जी में लिए जाने वाले, लोहे की गोलियों का अलग खाता-फाईल मेंटेन करते हैं।
राधेश्याम जी अब मौके-बेमौके अपनी पत्नी को सोने हीरे की बजाय, ‘लोहे की रिंग’ गिफ़्ट करते रहते हैं। ये उनके प्यार का टोटका बन गया है। बीबी को यूँ सस्ती गिफ़्ट देने का रिवाज़ हो तो आदमी बेशक चार के गले लगता फिरे।
उन्होंने अपना नुस्खा देशी स्टाइल में यूँ बता रखा है कि रसे-तरी वाली भी चीज़ को खाने से पहले अँगूठी निकाल के डुबायी जाए, रात को फ़कत एक लोटे पानी में अँगूठी डूबी रहे और दिन भर उस पानी का सेवन करें। आयरन की कड़ाही में सब्जी वगैरह बनाने-खिलाने का अलग टोटका आज़माया जा रहा है। सेठ राधेश्याम पत्नी के शरीर में आयरन पहुँचाने की भरपूर कोशिश में लगे रहते हैं। वे सब अपना ‘लोहा इलाज’ मार्फत लोहा मनवा रहे हैं। सेठ की पत्नी ऊपर सोने और भीतर आयरन से लद रही हैं। रात को वे चुम्बक लिए मिलते हैं।
हम लोग जब हायर सेकेंडरी में थे, हमारे इरादे रोज़ बदला करते थे। हमारी धुन रहती थी कि कोई तो फील्ड हमारे लिए बनी होगा जिसमें हम अपना लोहा मनवा लें।
किसी स्टेडियम में दारासिंग-रंधावा की कुश्ती देख आते तो, अगले दिन अखाड़े में दिखते। उस्ताद मुआयना करके कह देते कुछ खा-पी के आया करो। वो सींक से बदन पर, दो-चार दंड बैठक या मुदगर घुमाने की भी इज़ाज़त नहीं देते।
फिल्मी पोस्टर देख कर, स्टाइल और नए फैशन की दीवानगी बढ़ी रहती। डॉयलाग, गाने और स्क्रिप्ट लिखने का बुखार चढ़ा रहता, गोया ज़माना हमें आसमान में एक दिन ज़रूर बिठा देगा।
ज़माना जितना हम समझते हैं उतना सीधा-सादा है नहीं। उसने समय को देखा है। उसके सामने हम जैसे कई पतंगबाज़ आये, गए, झोल खा गए, या कट गए होंगे? इतिहास पे इतिहास रच गए हैं लोहा मनवाने के लिए ट्राई मारने वाले लोगों का।
समय की निगाह इन ट्राई मारने वालों पर तेज़ होती है। अच्छे बुरे कामों का परिणाम तत्काल दे देता है, लिहाज़ा मेट्रिक में हम बड़े करीबी मार्जिन से पास हुए। इस फील्ड में लोहा तो क्या प्लास्टिक भी न मनवा सके।
बनते बिगड़ते इरादों के साथ, कभी इच्छा शक्ति को मज़बूत कर लिया तो बी ए, एम ए में तीर कमान में चढ़ पाई और हमारा निशाना, ऊँचे परिणाम पर लग गया। जिस किसी ने हमारे प्रति अपनी धारणायें बना ली थीं, कि ये तो कोई काम का बन्दा है ही नहीं! उसे हमने बदला। नौकरी लग गई, दाल-रोटी के जुगाड़ ने कम से कम इस काबिल तो बना दिया कि, एक पिछड़ा परिवार ही सही, हमारा लोहा मान ले।
मन में अभी भी, “आज कुछ तूफानी करते हैं”, वाली बात पैदा होती रहती है।
आप बताओ, इतनी उम्र वाले आदमी के पास लिम्का बुक्स ऑफ रिकॉर्ड में जाने लायक कुछ करने की योग्यता-क्षमता है?
इस पुस्तक को पढ़ देखो तो लोग अजीब-अजीब से आश्चर्यचकित कर देने वाले कारनामे किये बैठे लगते हैं।
इनमें से एक आध हम कर लें तो हाथ-पैर तुड़वा के पट्टी बँधवाने, हास्पिटल में एडमिट होने की नौबत आ जायेगी। हम चुपचाप बुक्स आफ लिम्का को एकाएक बंद करके रख देते हैं। बेटर-हाफ अक्सर पूछती हैं इस पुस्तक में ऐसा क्या पढ़ लेते हो जो गहरी-गहरी साँस लेने की नौबत आ जाती है? कुछ आरती, भजन या चालीसा वगैरा पढ़ना चाहिए आपको…….!
हमें लोहा मनवाने का पुराना स्टाइल बहुत पसंद आता है।
भगवान राम ने हज़ार दो हज़ार वानर सेना लेके लंका जीत ली। मनवा लिए। भगवान हनुमान के नेतृत्व में, बिना सरकारी ठेके-घपले की पुनीत परंपरा का निर्वाह किये, समुंदर में पुल बंध गया। वे भी मनवा लिए। बिना किसी चार्टेड प्लेन के संजीवनी बूटी आ गई। भाई वाह…? बिना चीरफाड़ के मिस्टर लक्ष्मण कोमा से जीवित हो गए। न केवल जीवित हुए, वरन “किसको टपकाना है”, की मुद्रा में योद्धा माफिक तन के खड़े हो गए।
लोहा ही लोहा ……., हज़ारों पीढ़ियाँ गुज़र गईं, मानते हुए।
विज्ञान में भी लोहा गलाने, ढालने, पीटने के करोड़ों कारनामे हैं।
गिरते हुए सेब को देख के किसी ने ‘गुरुत्वाकर्षण’ ढूँढ निकाला। हमारी तरफ विडम्बना ये है कि कभी गिरते हुए ‘आम’ को आम आदमी देख लें तो माली दौड़ा देता है। चिंतन का समय नहीं मिलता।
आइन्स्टीन ने ‘प्रकाश की गति’ को नाप दिया। फिर वही विडम्बना, हम लोग एक प्लाट नापने वाली चकरी के सौ फीट में दो-दो जोड़ लिए रहते हैं। ख़ाक लोहा मनवाएंगे?
ये तो अच्छा हुआ कि, कोलंबस भाई और वास्कोडिगामा जी ने अपने-अपने समय में अमेरिका और हिन्दुस्तान को खोज लिया, वरना हमारे पी एम अपना लोहा मनवाने कहाँ जाते?
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